मैला और मुकुट के बीच गहरा फासला

आधुनिक भारत में इंसान की गुलामी के अब दो ही नमूने मिलते हैं। रिक्शे पर बैठे आदमी को उसे चलाने वाला मेहनतकश आदमी ही ढोता है। इसके अलावा आदमी ही आदमी का मैला सिर पर ढोता है। इन दोनों मामलों में मैला ढोने की कुप्रथा कहीं ज्यादा शर्मनाक है। ज्यादा अफसोसजनक यह है कि देश के कानून, सरकार, आयोग, पुलिस या प्रशासन सभी के लिए इस कुप्रथा का खात्मा सदियों से चुनौती बना हुआ है।

केंद्र सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट को दी गई एक हालिया जानकारी के मुताबिक सदियों पुरानी मैला कुप्रथा को जड़ से खत्म करने के लिए आगामी मानसून सत्र में एक विधेयक पेश करने की तैयारी हो रही है। एक अनुमान के मुताबिक अकेले इसी इस अमानवीय कुप्रथा के शिकंजे में देश भर में आज भी पांच लाख से ज्यादा लोग फंसे हैं। जबकि लाखों लोग ऐसी दूसरी कुप्रथाओं का भी त्रासद दुख भोग रहे हैं। कुप्रथाओं पर लगाम लगाने के प्रयासों में पाबंदी से ज्यादा उन पीड़ितों के पुनर्वास की जरूरत होती है। लेकिन इस दिशा में हो रहे प्रयासों की गंभीरता का अंदाजा इसी से लगता है कि उस जनहित याचिका के 2003 में दायर होने के 9 साल बाद इस विधेयक के लाने की मंशा उच्चतम न्यायालय को बताई गई है। कई राज्यों ने इसके बारे में कारगर कदम उठाना तो दूर, उनकी ओर से अदालत को जानकारी देना भी जरूरी नहीं समझा गया है। आधुनिक भारत में इंसान की गुलामी के अब अनूठे दो ही नमूने मिलते हैं। रिक्शे पर बैठे आदमी को उसे चलाने वाला मेहनतकश आदमी ही ढोता है। इसके अलावा दूसरे आदमी का मैला सिर पर आदमी ही ढोता है। इसमें सभी कुछ हार्ईटेक हो जाने पर भी संचालन तो आखिरकार आदमी के ही हाथों होगा।

फिलहाल, तुलनात्मक रूप में इन दोनों मामलों में मैला कुप्रथा का मामला कहीं ज्यादा शर्मनाक है। उससे भी ज्यादा अफसोसजनक यह है कि देश के कानून, सरकार, आयोग, पुलिस या प्रशासन सभी के लिए इस कुप्रथा का खात्मा सदियों से चुनौती बना है। हकीकत यह है कि देश में रोजाना दम तोड़ते सामाजिक कानूनों को देखना अब आदत में शुमार हो गया है। खासकर मैला कुप्रथा ने तो धार्मिक सहिष्णुता वाले इस देश में एक सवाल आज भी खड़ा कर रखा है कि दशकों पहले बने सामाजिक कानूनों की नए जमाने में क्या हैसियत है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों की माने तो एक ग्राम मैले में एक करोड़ वायरस, दस लाख बैक्टीरिया, एक हजार सिस्ट और सौ परजीवी अंडे होते हैं। इस एक ग्राम के पैमाने पर क्विंटलों के हिसाब से मैला ढोते गरीब के सिर पर बदकिस्मती का भार कितना होगा, मैला ढुलवाने वालों के लिए इसका अंदाजा लगाना नामुमकिन है।

राष्ट्रिय मानवाधिकार आयोग ने बीते साल मैला कुप्रथा के कायम रहने की बाबत कर्नाटक सरकार से जानकारी मांग कर भी देख ली है। मंदिर मामले में आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष केजी बालाकृष्णन के साथ उड़ीसा में पुरी के एक गांव में बेआबरु करके इस कुप्रथा के ठेकेदारों ने मानवाधिकार आयोग को भी उसकी हैसियत, बेबसी और लाचारी बता दी है। फिर भी आयोग है कि मानता नहीं। ऐसे मामले सबसे ज्यादा मानवाधिकार आयोग के ही दायरे में आते हैं। जस्टिस बालाकृष्णन मामले ने यह भी जता दिया कि सदियों पुरानी सामाजिक समस्याओं, गलत परंपराओं और कुप्रथाओं पर लगाम कसना मानवाधिकार, आयोग या कानून के जरिए संभव नहीं है। इसीलिए देश में मानवाधिकार आयोग के नहीं होने के जमाने में भी इन कुप्रथाओं के खात्मे की खातिर समाज सुधार आंदोलनों के दौर चलते रहे हैं।

समाज विशेषज्ञों के मुताबिक जाति की उत्पत्ति कर्म के जरिए हुई है। इतिहास कहता है कि सदियों पहले सामाजिक व्यवस्था के निर्माण के दौरान व्यक्ति के कामों का बंटवारा हुआ। जिसे जैसा काम मिला उसका नाम भी वैसा ही ढल गया। आज व्यावसायिक गतिशीलता के दौर में भी कागजों में उसका अपभ्रंश चलता है। गंदगी का यह बेहिसाब बोझ सिर पर ढोने वाले लोग यकीनन गैर मामूली, महादलित और सबसे निर्बल होते हैं।

सरकारी दस्तावेजों की मानें तो देश में दशकों पहले ही सती प्रथा पर काबू पा लिया गया है। लेकिन देश के एक तबके में राजस्थान के झुंझुनू जिले की ‘दादी सती’ के नाम पर देश भर में लाखों दुकाने चलती हैं। माता के मंदिर पर वहां लगने वाले मेले के प्रचार के लिए क्षेत्रिय और राष्ट्रीय मीडिया में करोड़ों रुपए के विज्ञापन आते हैं। उनके नाम पर खुलेआम व्यापार, वाणिज्य कर और जिला उद्योग केंद्रों में वैधानिक पंजीकरण है। हमें चुनाव आयोग का इस बात के लिए शुक्रगुजार रहना होगा कि उसने राजनीतिक दलों के हर विरोध को दरकिनार कर बैलेट, झंडे पर जीवों के इस्तेमाल पर लगाम कस ही दिया है। लेकिन सामाजिक मामलों से संबंधित मंत्रालयों, आयोगों या विभागों में से किसी ने भी उससे कुछ नहीं सीखा है। यही कारण है कि वे मीडिया में उन व्यावसायिक प्रतिष्ठानों और विज्ञापनों के जरिए ‘सती’ का रोजाना महिमामंडन, प्रचार कर रहे लाखों लोगों के खिलाफ सफल कार्रवाई कर पाने में बेचारे हैं। हकीकत यह है कि व्यक्ति के पैदा होने के साथ ही मानवाधिकारों का हकदार हो जाने और उसी के चलते ये सभी समस्याएं उसके मानवाधिकारों से सीधा संबंध रखती हैं।

इसी तरह जाति प्रथा, दहेज प्रथा, बड़े पैमाने पर अंतर्जातीय-अंतर्धर्मी–प्रेम और विधवा पुनर्विवाह, नशाखोरी, भिक्षावृत्ति, महिलाओं और बच्चों का अनैतिक व्यापार-उत्पीड़न-वेश्यावृत्ति और यौन शोषण, मानव तस्करी, जातिवाद, क्षेत्रवाद, दलित उत्पीड़न, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, गरीबी, बेरोजगारी, बेकारी, सांप्रदायिकता, अतिक्रमण, वन्य और घरेलू जीव संरक्षण जैसी सामाजिक समस्याओं को खत्म करने के लिए दशकों पहले के दर्जनों सामाजिक कानून बने हैं। उन्हीं की मानिंद छुआछूत और मैला कुप्रथा के लिए भी कानून होते हुए भी नहीं है।

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