मैं अड्यार बोल रही हूँ

11 Dec 2015
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मैं अड्यार नदी हूँ, दक्षिण के महानगर चेन्नई की जीवनरेखा भी कहते हैं मुझे। मैं भी जीवनरेखा ही बनी रहना चाहती हूँ लेकिन लोग हैं कि अपने जीवन को सुविधाजनक बनाने के लिये मेरी रेखा को ही छोटा करते रहे हैं।

कभी भी नहीं चाहा था मैंने कि हवाई जहाज और ट्रेनें नावों की तरह मुझ पर बहती नजर आये। वे तो आसमान में और मुझ पर बनाए गए पुलों के ऊपर से गुजरती ही ठीक लगतीं हैं। मैनें कभी नहीं चाहा था कि यह महानगर टापू में तब्दील हो जाये और समुद्र का आर्थिक दोहन करते–करते सागर का ही एक हिस्सा नजर आने लगे।

आज हर शख्स मुझे देख कर डर रहा है, अपनी माँ को देखकर डर रहा है? मेरे इन बच्चों को मुझ पर तब दया नहीं आई जब मेरे पाट पर ही पूरा हवाई अड्डा तैयार किया जा रहा था। क्या स्मार्ट सिटी के रास्ते पर तेजी से दौड़ते इस शहर को नहीं पता कि पूरा महानगर ही नमभूमि और कच्छभूमि पर बसा है?

मुझे लगातार मेरे प्राकृतिक चरित्र से दूर करने की कोशिश की जा रही है। धरती की तरह ही मेरा धर्म है सहना, तो सह रही हूँ लेकिन एक करोड़ से अधिक की आबादी का बोझ ढोते–ढोते मेरे आसपास की आर्द्र ज़मीन की सोखने की क्षमता बेहद कम हो गई है। सुप्रीम कोर्ट भी इस पर चिन्ता जाहिर कर चुका है। एक करोड़ में से करीब 30 लाख तो झुग्गियों में रहते हैं। सबसे ज्यादा झुग्गियाँ तो मेरी ज़मीन पर अतिक्रमण करके ही बनी हैं।

इस महानगर के करीब हजार किमी लम्बे सीवेज तंत्र में हजारों छेद हैं, कई जगह तो सीवेज का मुँह मेरी धारा में लाकर छोड़ दिया गया है, मौजूदा सीवेज सिस्टम भी मात्र दस लाख लोगों के जल-मल को सम्भाल पाता है। बाकियों का मल-मूत्र शहर के बीचों-बीच बहने वाली कूवम नदी, मेरे और भगवान भरोसे है।

अब सोचिए मेरे पास विकल्प क्या था, लगातार होती बारिश से इन नालों में बहाव बढ़ गया, खुद मेरा पाट लबालब भर गया, अब बहने की जगह पहले ही कम थी, रास्ते में कई जगह बाधाएँ खड़ी थी। गाद सफाई का सिर्फ बजट होता है, गाद निकाली नहीं जाती, गाद जमा होने के कारण मेरी गहराई कम हो गई जिससे पानी को बहा कर समुद्र तक ले जाने की मेरी क्षमता भी कम हो गई।

सेंटर फॉर एनवायरनमेंटल एंड वाटर रिसोर्स इंजीनियरिंग के मुताबिक, 1980 में चेन्नई में 600 जल-निकाय थे जो समय के साथ गायब हो गए। सिर्फ दो दशक पहले तक 150 से ज्यादा जलाशय अत्यधिक बारिश को मेरे साथ मिलकर सम्भाल लेते थे लेकिन अब मात्र 30 जलाशय ही बचे हैं बाकि 120 जलाशय विकास के शिकार हो गए। इन जलाशयों पर अब विकास की पताकाएँ नजर आती हैं।

हालात इस कदर खराब हो गए कि तमिलनाडु प्रोटेक्शन ऑफ टैंक एंड इविक्शन ऑफ इंक्रोचमेंट एक्ट पूरी तरह नाकाम साबित हुआ। जलाशयों पर अतिक्रमण बढ़ता ही गया यहाँ तक कि मद्रास हाईकोर्ट ने पल्लीकरनाड़ झील के आसपास सभी अवैध कब्जे को हटाने का सीधा आदेश दिया, लेकिन अफसोस, सब बेकार।

और जब मकान बनने लगते हैं, तो उनमें रहने वालों के लिये सड़क, बिजली, पानी जैसी मूलभूत चीजों की व्यवस्था करनी पड़ती है। अब इन व्यवस्थाओं में शहर के अधिकारी, प्रशासन, बिल्डर सभी ने अपना हित साधने के लिये साँठगाँठ की और मेरी प्रकृति की अनदेखी की।

कुवम नदीसोच कर देखिए यह शहर प्राकृतिक आपदाओं को झेले तो कैसे झेले, इन आपदाओं को सम्भालना तो दूर यहाँ तो स्थिति आपदाओं को आमंत्रित करने जैसी है। 2003 में सरकार ने सभी घरों के लिये रेनवाटर हार्वेस्टिंग को अनिवार्य बना दिया था लेकिन यह जानने की कभी कोशिश ही नहीं हुई कि कितने लोग इस अनिवार्यता पर वास्तव में अमल कर रहे हैं। जो लोग अपने सीवेज की चिन्ता नहीं करते वे रेनवाटर की क्या करेंगे? यह आपदा मेरी लाई हुई नहीं है, यह उन किसानों का श्राप भी है जिनका पानी चेन्नई से छीना है।

मैं तो बस यहीं कहना चाहती हूँ, मैं माँ हूँ मैंने अपने बच्चों को नहीं मारा। मेरी झीलें वापस कर दो मैं तुम्हें हमेशा बाढ़ जैसी विभिषिका से बचाऊँगी। तुम्हें दूरदराज के लोगों का पानी भी नहीं छीनना पड़ेगा।

अन्त में एक सबक, जिसे इंसान सदियों से जानता है लेकिन मानता नहीं। नदी अपना रास्ता खुद बनाती है, उसके रास्ते में कोई छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए, तलाब, कुएँ, नहर बनाए जाते हैं लेकिन मैं नदी हूँ मुझे बनाया नहीं जा सकता मैं अवतार लेती हूँ, मैं तुम्हारे लिये अवतरित हूँ अब तुम पर है तुम मेरे साथ कैसा सुलूक करते हो।
 

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