मालवा के ग्रामीण क्षेत्रों में पर्यावरण-शुद्धता की विधियों का वैज्ञानिक दृष्टिकोण से महत्व

16 Aug 2012
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वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो स्पष्ट है कि वृक्ष की पूजा कर वहीं बैठ कर भोजन करना, यह शुद्ध वायु-प्राप्ति का एक तरीका है। गांवों में महिलाएँ चूल्हे-चौके या खेती-बाड़ी के कार्यों में लगी रहती हैं। शुद्ध वायु प्रत्येक के लिये आवश्यक होती है।

भारत के मध्य भाग में स्थित मालवा की अपनी अलग महिमा रही है। कल-कल करती वर्ष भर प्रवाहमान नदियां, हरे-भरे भू-भाग, माटी की सौंधी सुगंध, सर्व शुद्धता- इन सबसे प्रसन्न होकर लोकनायक कबीर ने अपने अनुभूतिजन्य विचार प्रस्तुत करते हुए कहा था-

देश मालव गहन गम्भीर, पग-पग रोटी डग-डग नीर


कबीर की यह अनुभूति शाश्वत सत्य को प्रकट करती है। वास्तव में यहां के शुद्ध पर्यावरण में मालवा-वासियों एवं पर्यावरण के बीच अटूट रिश्ते की स्पष्ट छाप दिखाई देती है। यह सब मालवा के ग्रामीणों द्वारा पर्यावरण शुद्धता के लिये अपनाई जा रही विधियों का प्रतिफल है। आज पर्यावरण शुद्धता की इन विधियों एवं उनके वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अध्ययन की महती आवश्यकता प्रतीत हो रही है।पर्यावरण का क्षेत्र व्यापक है, अतः प्रस्तुत शोध हेतु ‘ग्रामीण क्षेत्रों में पर्यावरण शुद्धता की विधियां: वैज्ञानिक दृष्टिकोण में महत्व’ के अंतर्गत जीवन के आधार, जलवायु, भोजन (अनाज) की शुद्धता विषयक विधियों को लिया गया है।

शोध हेतु मालवा के ग्रामीण-क्षेत्रों का सर्वेक्षण एवं ग्रामीणों से चर्चा से ज्ञात हुआ कि मालवा के ग्रामीणों द्वारा अपनाई जा रही पर्यावरण-शुद्धता की कुछ विधियां उनके ज्ञान एवं अनुभव पर आधारित हैं जबकि कुछ विधियां धार्मिक आस्था, रीति-रिवाज, परम्परा को प्रदर्शित करतीं हैं, परंतु मुख्य बात यह है कि उनके द्वारा अपनाई जा रही विधियां उनके वैज्ञानिक दृष्टिकोण को प्रदर्शित करती है।

ज्ञान एवं अनुभव पर आधारित पर्यावरण-शुद्धता की विधियां


जल शुद्धता की विधियां: Water is vital to life (जल ही जीवन का आधार है)। यह मानव के साथ ही समस्त प्राणि जगत् एवं वनस्पति-जगत् के लिये आवश्यक है परंतु यही जल अशुद्ध होने पर कई रोगों का कारक भी होता है। सामान्य रूप से चार प्रकार ही अशुद्धियां जल में पाई जाती हैं जिन्हें दूर किया जाना नितांत आवश्यक होता है-

(1) धूलकण (Sediments), (2) गंध (Odour), (3) जीवाणु एवं सूक्ष्म जैविक अशुद्धियां (Bacteria and other Microbiological Impurities), (4) घुलित अशुद्धियां (Dissolved Impurities)।

इस संदर्भ में ग्रामीण क्षेत्रों का सर्वेक्षण किया गया तो ज्ञात हुआ कि गांवों में जल के स्रोत कुएं, तालाब, बावड़ियां, हैण्डपम्प एवं नदियां हैं। यह सर्वविदित है कि प्रत्येक जीव के अस्तित्व के लिए शुद्ध जल आवश्यक है। अतः ग्रामीणों से जल शुद्धिकरण की विधियों के संदर्भ में चर्चा की तो उन्होंने सार्वजनिक जल-स्रोतों के जल-शुद्धिकरण एवं घरेलू जल के शुद्धिकरण की विधियां बताई जो कि इस प्रकार हैं-

कुएं के जल की शुद्धताः गांवों में पीने के पानी की उपलब्धता के मुख्य स्रोत कुएं तथा हैण्डपम्प हैं। ग्रामीण श्री रतनलाल ने बताया कि गांव में दो प्रकार के कुएं हैं-

1. उथले कुएं (Shallow well), 2. गहरे कुएं (Deep well)। कुओं की भीतरी बाजू को ईंट, चूने, सीमेंट से बांधा जाता है ताकि आव के माध्यम से गंदा पानी कुएं में न पहुंचे। पीने के लिये मुख्य रूप से गहरे कुएं या हैंडपम्प के जल का उपयोग करते है। गहरा कुआं तालाब के आधार-तल से गहरा होता है।

• कुओं में प्रायः सीढ़ियां नहीं बनाई जाती हैं।
• कुओं पर खंजर ईंटों की पाल बनाई जाती है ताकि पृथ्वी के पृष्ठ भाग का बरसाती पानी कुएं में न जाए।
• कुएं का पानी शुद्ध रहे, इसके लिए कुएं में मछलियां तथा कछुए डाले जाते हैं।
• कुएं के पानी को शुद्ध करने के लिये पोटैशियम परमेंगनेट का उपयोग किया जाता है।
• कुएं का पानी शुद्ध रहे, इसके लिए पानी में क्लोरिन डाली जाती है।

मालवा के गांवों में जल-पूजा, वृक्ष-पूजा, हवन आदि का अपना महत्व है। विभिन्न तीज-त्यौहारों व अवसरों पर इन्हें देखा जा सकता है। ग्रामीणों से जल आदि की शुद्धता के संबंध में चर्चा की तो उन्होंने कुछ विधियां बताईं, जो वैज्ञानिक दृष्टि से बड़ी महत्वपूर्ण एवं धार्मिक रीति-रिवाजों के बहाने पर्यावरण-शुद्धि की प्रत्याभूति देती है।

ग्रामीणों द्वारा कुएं में पानी के शुद्धिकरण के लिए अपनाई जा रही इन विधियों पर वैज्ञानिक दृष्टि से देखने पर स्पष्ट है कि पीने के लिए गहरे कुएं के जल का उपयोग करना शुद्ध जल के महत्व को प्रतिपादित करता है। वस्तुतः गहरे कुएं की गहराई पहले दुर्भेद्य स्तर को छोड़ कर उसके नीचे रहने वाले स्तर के पानी तक कुआं खोदा जाता है। इस स्तर की चट्टानें जो कि ग्रेनाईट या बेसाल्ट होती है, वह स्वयं जल शुद्धिकरण का कार्य करती हैं। इन कुओं के पानी में ऊपरी धरातल की गंदगी प्राकृतिक रुप से नहीं पहुंच पाती है तथा पानी पीने योग्य रहता है। इन कुओं के पानी में वनस्पतिज और प्राणिज अशुद्ध पदार्थ प्रायः नहीं मिलते हैं जबकि उथले कुओं (Shallow well) के पानी की पूर्ति पृथ्वी के पृष्ठ भाग से नीचे झिर कर जाने वाले चट्टानों पर जमा हुए पानी (Sub soil Water) से होती है। इसलिए इन कुओं में पृथ्वी के पृष्ठ भाग की गंदगी से पानी के अशुद्ध होने की सम्भावना रहती है। साथ ही गांवों में कुएं के आसपास गंदे पानी के डबरे, पशुओं को बांधने के बाड़े (गोठा) आदि होते हैं। इससे यहां के हानिकारक पदार्थों के जमीन में से रिस-रिसकर कुओं के पानी में मिलने की सम्भावना रहती है। इसी के साथ वर्षा ऋतु में कुओं का जल स्तर (Water-level) बढ़ जाता है तथा उसमें पृथ्वी के पृष्ठ भाग की गंदगी नीचे पानी में मिलकर उसे अशुद्ध कर देती है। अशुद्ध पानी से विषम ज्वर, हैजा, पेचिश, नहरुवा आदि रोग फैल सकते हैं।

कुएं के पानी में भिन्न-भिन्न रोगों के कीटाणुओं की सम्भावना रहती है तथा मछलियां एवं कछुए इन कीटाणुओं को नष्ट करके पानी को शुद्ध रखने में सहायक होते हैं।

प्रायः कुओं में सीढ़ियां नहीं बनाई जाती है। इसका कारण यह है कि सीढियों के माध्यम से लोगों की आवाजाही रहती है, जिसमें पृष्ठभाग की गंदगी के पहुंचने से पानी में अशुद्ध पदार्थ मिल जाते हैं।

तालाब व बावड़ियों के जल की शुद्धता


रचना द्वारा :-
ग्रामीणों द्वारा नहाने, कपड़े धोने, मवेशियों को नहलाने, सिंचाई आदि कार्यों में तालाबों के जल का उपयोग किया जाता है। इन दोनों जल-स्रोतों की बनावट एवं शुद्धिकरण के संदर्भ में ग्रामीणों से चर्चा की गई तो ग्रामीण श्री लक्ष्मीनारायण ने बताया कि तालाब का पानी शुद्ध रहे, इसके लिए चारों ओर पाल बनाई जाती है या बागड़ लगाई जाती है। बावड़ियों की गहराई के आधार-तल से अधिक रखी जाती है। बावड़ियों का सबसे नीचे का क्षेत्रफल सबसे कम होता है। इनमें चारों ओर सीढ़ियां बनाई जाती हैं ताकि जल जल स्तर कम हो तो सीढियों से नीचे पहुंचकर जल प्राप्त किया जा सके।

जलचर द्वारा :-
तालाब तथा बावड़ियों में कछुए एवं मछलियां डाली जाती हैं।

ग्रामीणों द्वारा तालाब एवं बावड़ियों के जल-शुद्धिकरण की विधियां एवं इनकी बनावट पर वैज्ञानिक दृष्टि से देखें, तो स्पष्ट है कि तालाब के आसपास बागड़ लगाना या पाल बनाना चाहिए ताकि पृथ्वी के पृष्ठभाग की गंदगी तालाब में न पहुंचे, जल शुद्ध रहे।

बावड़ियों की गहराई तालाब के आधार-तल से अधिक रखना इस बात को स्पष्ट करता है कि आव के माध्यम से तालाबों का जल बावड़ियों में न पहुंचे क्योंकि तालाबों के आसपास गंदे पानी के डबरे भी होते हैं; मवेशी भी तालाबों में पहुंच जाते हैं, इन सबसे तालाब के पानी में अशुद्धता की सम्भावना रहती है।

तालाबों एवं बावड़ियों का जल स्थिर रहता है, जिससे पानी में तैरने वाले कुछ पदार्थ जल की स्थिरता के कारण इनकी तल में बैठ जाते है। इन स्रोतों के जल में सेन्द्रिय अशुद्ध पदार्थ (Organic impurities) और मच्छरों के अंडे (Mosquito Larva’s) होते हैं, तथा पानी में तैरने वाले और उनमें रहने वाले जलचर एवं मछलियां पानी की बहुत सी गंदगी को नष्ट कर देते हैं।

घरेलू जल शुद्धिकरण की विधियां


मालवा के ग्रामीण सार्वजनिक जल-स्रोतों के साथ ही घरेलू जल शुद्धिकरण के लिए भी व्यावहारिक विधियां अपनाते हैं। ग्रामीण महिलाएं श्रीमती कौशल्याबाई एवं फूलकुंवर बाई ने घरेलू जल-शुद्धकरण की विधियां बताई, जो कि इस प्रकार हैं-

पानी उबालना – पीने के पानी को उबाल कर रखते हैं। इस उबले हुए पानी को पीते हैं ताकि हैजा, पैचिश आदि बीमारियां न हों।

वस्तुतः पानी के शुद्धिकरण की दृष्टि से यह सरल एवं विश्वसनीय उपाय है। पानी को उबाल लेने से पानी में मिले सूक्ष्म जीवों का नाश हो जाता है तथा पानी का अस्थाई भारीपन दूर हो जाता है। यह पानी पीने योग्य बन जाता है।

पानी छानना (Water Filtration) – पीने के पानी को कपड़े अथवा छलनी से छान कर रखते हैं। पीने के लिए छने हुए पानी का उपयोग करते हैं।

वस्तुतः कई बार में घुलित एवं तैरने वाली दोनों प्रकार की अशुद्धियां रहती हैं। पानी उबालने से घुलित अशुद्दियां तो खत्म हो जाती है लेकिन तैरने वाली अशुद्धियों को छानने की आवश्यकता होती है। पानी छान लेने से तैरने वाली अशुद्धियां खत्म हो जाती है।

फिटकरी द्वारा जल-शुद्धिकरण – श्री अर्जुनसिंह राठौर ने बताया कि कई बार पानी मटमैला हो जाता है। विशेषकर बरसात के दिनों में कुएं का पानी मटमैला होता है तथा पानी में अन्य गंदगी होती है। इसलिए पानी में फिटकरी घुमाते हैं। जब गंदगी बर्तन की तली में बैठ जाती है तो ऊपर वाला पानी दूसरे बर्तन में निकाल कर उसका उपयोग पीने के लिये करते हैं।

बालूरेत एवं कोयले द्वारा जल-शुद्धिकरण – घरेलू जल को शुद्ध करने के लिए इस विधि का उपयोग किया जाता है। श्रीमती रामकन्या बाई ने बताया कि इस विधि में पीने के पानी की शुद्धिकरण के लिए तीन समान आकार के मटके लेते हैं। ऊपर वाले दो मटकों की पेंदी में छेद कर देते हैं। इन तीनों मटकों को एक के ऊपर एक रखते हैं। सबसे ऊपर वाले मटके में लगभग ¼ भाग में बालू रेती (साफ एवं धुली हुई) तथा छोटे-छोटे कंकड़ भर देते हैं। उसके नीचे मटके ¼ भाग में लकड़ी के कोयले भर देते हैं। बाद में सबसे ऊपर वाले मटके में पानी भर देते हैं। यह पानी पहले मटके से टपक-टपक कर नीचे वाले मटके में जाता है तथा अंत में यह पानी सबसे नीचे वाले मटके में पहुंचता है। तीसरे मटके का पानी शुद्ध होता है। यह पीने-योग्य शुद्ध जल होता है।

बालूरेत द्वारा जल-शुद्धिकरण – श्रीमती कंकूबाई ने घरेलू जल को शुद्ध करने की इस विधि में बताया कि इसके लिए साफ धुली हुई बालूरेत मटके में थोड़ी लगभग ¼ भाग भर दी जाती है। फिर इस मटके में पानी भर दिया जाता है। इस विधि से पानी में गंदगी नीचे बैठ जाती है और यह पानी पीने लायक बन जाता है।

पीने के पानी को कपड़े से ढांककर रखा जाता है ताकि पानी शुद्ध रहे। ग्रामीणों द्वारा अपनाई जा रही यह विधियां वैज्ञानिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है।

वायु-शुद्धता की विधियां


जल एवं भोजन के बगैर प्राणी कुछ घंटे, कुछ दिनों तक जीवित रह सकते हैं लेकिन वायु के बगैर कुछ मिनट जीवित रहना असंभव होता है। मनुष्य के लिये वायु की अनिवार्यता की ओर ध्यान दें तो ज्ञात होता है कि मनुष्य एक दिन में 2300 बार सांस लेता है और इसके लिये वह 16.5 कि.ग्रा. वायु ग्रहण करता है, अर्थात् दिन भर जो ग्रहण करता है, उसका 80% भाग वायु होती है। यह आवश्यकता शुद्ध वायु के महत्व को स्पष्ट करती है। मालवा के ग्रामीण शुद्ध वायु प्राप्त होती रहे, इसके प्रति सजग रहे हैं।

वायु-शुद्धिकरण के संदर्भ में ग्रामीणों से चर्चा की तो उन्होंने अपनाई जा रही विधियां बताईं जो कि इस प्रकार हैं-

घर की रचना :-


मालवा के ग्रामीण अंचलों के घर प्रायः कच्चे होते हैं। इन घरों की रचना में उनकी वैज्ञानिक सोच परिलक्षित होती है। श्री बनवारीलील ने बताया कि घरों के छप्पर मुख्य रूप से कवेलू एवं ओरा (खजूर के तने व पीली मिट्टी से) से बनाये जाते हैं। छप्पर ढालू बनाये जाते हैं परंतु इस बात का ध्यान रखते हैं कि वर्षा का पानी घर में न जाये। कमरे की हवा को ठंडा रखने के लिए आवश्यकतानुसार दुहरे कवेलू का छप्पर बनाया जाता है। घरों में प्रकाश मिलता रहे उसके लिए रोशनदान एवं खिड़कियां रखी जाती हैं।

मालवा के ग्रामीण अंचलों में घरों के छप्पर कवेलू अथवा ओरा के बनाये जाते हैं जो कि वैज्ञानिक दृष्टि से वायु-शुद्धता की आवश्यकता एवं महत्व को प्रकट करते हैं। यह सर्वविदित है कि गांवों में भोजन प्रायः चूल्हे पर बनाया जाता है। इसमें ईंधन के रूप में लकड़ी-कंडे का उपयोग किया जाता है। लकड़ी या कंडे के जलने से धुँआ निकलता है तथा यह धुँआ ऊपर उठने का प्रयास करता है। यदि धुँए को निकलने का मार्ग नहीं मिलेगा तो घर में एकत्रित हो जायेगा, अर्थात् लकड़ी या कंडे के जलने से कार्बन एवं हवा की ऑक्सीजन का संयोग होता है तथा उससे कार्बन डाय-ऑक्साइड (Co2) और कार्बन मोनोऑक्साइड (Co) वायुएं उत्पन्न होती हैं। कार्बन मोनोऑक्साड वायु विषैली होती है जो स्वास्थ्य के लिये हानिप्रद होती है। इसलिये गांवों में वायु की शुद्धता की दृष्टि से घरों के छप्पर कवेलू एवं ओरा के बनाये जाते हैं। छप्पर से धुँआ आसानी से निकल जाता है तथा वायु शुद्ध बनी रहती है। घरों के छप्पर ओरा के भी बनाये जाते हैं। ओरा के छप्पर से घर में ठंडक रहती है तथा यह प्राकृतिक शीतगृह का कार्य करते हैं।

कचरे से खाद बनाना


गांवों में गाय, भैंस, बकरी आदि पशुओं को पाला जाता है। इससे घरों से प्रतिदिन बड़ी मात्रा में गोबर, मैंगनी, घरेलू कचरा आदि निकलता है। साथ ही फसलों के अपशिष्ट भी निकलते हैं। ग्रामीण श्री बालूराम ने बताया कि यदि गोबर आदि अपशिष्ट पदार्थों का ठीक से निपटारा न किया जाये तो गंदगी फैलती है, जिससे मक्खी, मच्छर एवं बदबू फैलते हैं। इसलिए गोबर, खली, सूखला, मैंगनी, हरी खाद, फसल, फसल अपशिष्ट को घरों से दूर गढ्ढे (उखल्डे) में डालते जाते हैं। लगभग एक वर्ष में यह सभी पदार्थ सड़ कर खाद बन जाता है। इस खाद का उपयोग खेतों में किया जाता है। इससे पैदावार भी बढ़ती है तथा मिट्टी भी खराब नहीं होती है। हवा भी शुद्ध रहती है।

वास्तव में हवन-पूजन के साथ जहाँ धार्मिक आस्था, परम्परा जुड़ी है, वहीं यह वैज्ञानिक दृष्टि से वायु-शुद्धता की विधि भी है। हवन में प्रयुक्त पदार्थों का रासायनिक परिवर्तन होता है। हवन में उत्सर्जित कार्बन डायऑक्साइड सुगंधित पदार्थों एवं कीटाणुनाशक पदार्थों की गैसों का मिश्रण होता है, जिसका स्वरुप परिणाम विविध सुवासयुक्त रसायनों से परिवर्तित होकर पर्यावरण शुद्धता में सहायता करते हैं।

वैज्ञानिक दृष्टि से गोबर तथा अपशिष्ट पदार्थों से खाद बनाने की विधि को देखें तो स्पष्ट होता है कि घरों के चारों ओर पड़ा कूड़ा-कचरा, गोबर के ढेर मक्खी, मच्छर पैदा करते हैं तथा दुर्गंध फैलती है। गोबर पशुओं के मलमूत्र आदि से प्राणिज तथा वनस्पतिज पदार्थों के सड़ने से विषैली गैस उत्पन्न होती है। इसी के साथ इन अपशिष्ट पदार्थों के सड़ने तथा कूड़े-कचरे, गोबर के स्थान पर सल्फ्यूरेटेड वायु उत्पन्न होती है जो कि हानिकारक होती है। अशुद्ध वायु से कई तरह की बीमारियां फैलती हैं। ग्रामीणों द्वारा गोबर, पशुओं के मलमूत्र (मेंगनी आदि) कूड़ा-कचरा आदि को घर से दूर उखल्डे में डाला जाता है तो मक्खी, मच्छरों की रोकथाम होती है। दुर्गंध घरों में नहीं पहुंचती तथा घरों के आसपास शुद्ध वायु बनी रहती है। इस तरह तैयार यह जैविक खाद उत्पादन वृद्धि में सहायक होता है। वातावरण की शुद्धता के साथ ही मानव स्वास्थ्य के लिए भी लाभकारी होता है।

नीम के पत्तों का धुँआ :-


गाँवों में प्रायःमच्छर तथा अन्य कीटों की रोकथाम के लिये नीम के सूखे पत्तों या गोबर के कंडों का धुँआ किया जाता है।

घर में मक्खी, मच्छर होने पर गाय के गोबर को पानी में घोलकर घर को लीपते हैं या घर धो देते हैं।

फसलों पर इल्ली प्रकोप या अन्य रोगों की रोकथाम के लिये कंडों की राख छिड़कते हैं।

वस्तुतः नीम बहुगुणकारी होता है साथ ही इसमें कीटनाशक क्षमता होती है। वैज्ञानिकों के अनुसार नीम से निष्कर्षित एजेडिरेल्टिन, मेलियनटिऑल और सैलेनिन जैसे मिलोमाइट होते है जो हानिकारक कीटों के लिए अत्याधिक प्रभावी कीटनाशक है। ऐजेडिरेक्टिन कीटों की नई पीढ़ी को जन्म से पूर्व ही कीटों के लार्वाओं के कायांतरण को भी प्रभावित करता है।

गोबर के कंडों का धुँआ या गोबर के कंडों की राख छिड़कना आदि वैज्ञानिक सोच का परिणाम है। गोबर ऐन्टिसेप्टिक होता है। इससे कीटों की रोकथाम होती है। वायु शुद्ध रहती है। गोबर के कंड़ों की राख में शत्रु कीटों को सफाया करने तथा मित्र कीटों को संतुलित रखने की शक्ति होती है। इससे मिट्टी की उर्वरा शक्ति भी बढ़ती है।

वृक्षों का रोपण


मालवा के ग्रामीण अंचलों में विभिन्न प्रकार की वनस्पतियाँ पाई जाती हैं। लेकिन जो पौधें रोपित किये जाते हैं उनमें मुख्य है- नीम, पीपल, बरगद, आवंला, इमली, पलाश, अशोक आदि। श्री सज्जनसिंह ने बताया कि इन पेड़ों को इसलिये लगाया जाता है कि इनकी छाँव घनी होती है, तने मजबूत होते हैं, ठंडी हवा प्राप्त होती है, आर्थिक दृष्टि से लाभ पहुँचाते हैं। नीम, बरगद, पीपल वृक्षों की छाँव में ही पंचायत होती है। विभिन्न अवसरों पर गाँव के लोग इन वृक्षों के नीचे बैठते हैं। महिलाएं इनकी पूजा करती हैं।

पीपल, बरगद, नीम, आँवला, अशोक, इमली आदि पेड़ों को गांव द्वारा लगाना वायु शुद्धिकरण का सुनियोजित तरीका है। वृक्ष स्वयं मानव द्वारा छोड़ी गई कार्बनडायऑक्साइड को ग्रहण करते हैं और शुद्ध वायु के रूप में उन्हें ऑक्सीजन देते हैं। वृक्ष वायु से विषैली गैसों को सोख कर वायु-शुद्धिकरण में मदद करते हैं। पीपल वृक्ष प्राणवायु उत्सर्जित करने वाले वृक्षों में सबसे ऊपर है। यह ऐसा वृक्ष है, जो रात में भी प्राण-वायु छोड़ता है। बरगद, नीम, अशोक आदि भी पर्यावरण की शुद्धता बनाये रखने वाले वृक्ष हैं। बरगद के वृक्ष की टहनियों से रस्सी जैसी जड़े निकलती है जो मिट्टी के अंदर तक श्वसन क्रिया संचालित कर ऑक्सीजन पहुंचाती है जो उपयोगी जीवाणुओं के काम आती है।

गांवों के रास्ते प्रायः कच्चे होते हैं। उनसे धूल उड़ती है। यह धूल पर्यावरण को प्रदूषित करती है। इसलिए ऐसे ही वृक्षों को लगाया जाता है जिसमें धूल प्रतिरोधक क्षमता हो। पीपल तथा बरगद वृक्ष आकार में बड़ी शाखाएँ सघन, पत्तियाँ अधिक होती है इसलिये ये वृक्ष वायु में तैरते महीन कणों को सोख लेते हैं। राष्ट्रीय वानस्पतिक उद्यान-कल्याण, कलकत्ता के शोध अनुसार पीपल में 4.15, वटवृक्ष में 3.59, कदम्ब में 4.57, आम में 4.05 अशोक में 4.56, इमली में 2.08 प्रतिशत धूल एवं प्रदूषित धूम्र प्रतिरोधक क्षमता होती है।

इस प्रकार गांवों में वृक्षों को रोपण पर्यावरण-शुद्धिकरण को दृष्टि में रखकर किया जाता है।

भोजन शुद्धता की विधियां :-


मनुष्य को जीवित रहने के लिये जल एवं वायु के साथ ही भोजन नितांत आवश्यक होता है। भोजन में प्रतिदिन किसी न किसी अनाज का सेवन किया जाता है। भोज्य पदार्थों एवं अनाज की शुद्धता के संदर्भ में ग्रामीणों से चर्चा की गई तो ग्रामीण श्री कमलसिंह मालवीय ने भोजन-शुद्धता की विधियां बताई, जो इस प्रकार है – भोजन बनाने के बाद ढाँक कर रखते हैं, ताकि उसमें मक्खी-मच्छर न गिरे।

अनाज के सेवन भोजन में आटे के रुप में या साबूत भी किया जाता है। अन्न-सुरक्षा के लिये ग्रामीण कोठियां बनाते हैं। यह कोठी पीली मिट्टी व गोबर का मिश्रण तैयार करके बनाई जाती है। कोठी की ऊंचाई लगभग 3-3-1/2 फीट होती है। इस कोठी में अनाज भरने के बाद ऊपर से उसे अच्छी तरह पीली मिट्टी और गोबर से बंद कर दिया जाता है। कोठी में से अनाज निकालने के लिए मुख (बड़ा छेद) रखा जाता है, जिसे अनाज भरने या निकालने के बाद मक्का के माकड़ा से बंद कर देते हैं। पूरी कोठी को अच्छी तरह लीप देते हैं। अनाज को कोठी में भरने के पूर्व सुखाया जाता है तथा उसमें नीम के पत्ते मिलाये जाते हैं। यह प्रक्रिया कीटनाशक है। इससे अनाज में कीट नहीं लगते हैं, अनाज शुद्ध रहता है, इसी अनाज की अगली फसल के लिए बोवनी की जाती है।

धार्मिक आस्था, रीति-रिवाज एवं परम्परा पर आधारित पर्यावरण शुद्धता की विधियां


मालवा के गांवों में जल-पूजा, वृक्ष-पूजा, हवन आदि का अपना महत्व है। विभिन्न तीज-त्यौहारों व अवसरों पर इन्हें देखा जा सकता है। ग्रामीणों से जल आदि की शुद्धता के संबंध में चर्चा की तो उन्होंने कुछ विधियां बताईं, जो वैज्ञानिक दृष्टि से बड़ी महत्वपूर्ण एवं धार्मिक रीति-रिवाजों के बहाने पर्यावरण-शुद्धि की प्रत्याभूति देती है।

जल-शुद्धता की विधियाँ


जल पूजा द्वारा – अंचल में नदियों एवं कुओं की पूजा की परम्परा है। कई समाजों में शिशु जन्म के उपरांत कुओं की पूजा की परम्परा है। इसी प्रकार हिन्दुओं में नदियों की पूजा की जाती है, यह उनकी धार्मिक आस्था को प्रदर्शित करती है।

ग्रामीणों की जल-पूजा की परम्परा जल-शुद्धता की ओर संकेत करती है। ग्रामीण इस बात से परिचित हैं कि शुद्ध जल से कई बीमारियाँ होती है, इसीलिए इसकी पूजा की परम्परा चल रही है।

वायु-शुद्धता की विधियाँ


वृक्ष पूजा द्वारा – गांवों में वृक्षों की पूजा, अर्चना, वन्दना का भाव मालवा-वासियों की धार्मिक आस्था को प्रदर्शित करता है । विभिन्न वृक्षों जैसे पीपल, बरगद, आंवला, तुलसी आदि वृक्षों की पूजी की जाती है, लेकिन धार्मिक आस्था से जुड़े इन वृक्षों की पूजा अपने भीतर वैज्ञानिक तथ्य समेटे हुए है। जैसे –

बरगद – बरगद वृक्ष की पूजा आषाढ़ माह की अमावस्या को की जाती है। महिलाएँ इस दिन पूजा कर वृक्ष के नीचे बैठ कर भोजन व भोजन-कीर्तन करती हैं।

वैज्ञानिक संदर्भ में परखें तो स्पष्ट होता है कि इस वृक्ष की पूजा का विधान पर्यावरण-शुद्धता का उपाय है। आषाढ़ की तपती गर्मी में महिलाएँ पूजा के लिए एकत्रित होती हैं। इस तथ्य से स्पष्ट होता है कि उन्हें यहाँ की शुद्ध-शीतल वायु प्राप्त हो। बरगद वृक्ष वायु-प्रदूषण कम करने में सहायक होता है।

पीपल – हिन्दू संस्कृति में इस वृक्ष की पूजा की जाती है। श्रीमती कलाबाई ने बताया कि इस वृक्ष की पूजा से जीवन में उन्नति होती है व मन प्रसन्न रहता है। इस वृक्ष की पूजा करने के बाद यहीं बैठ कर भोजन किया जाता है।

वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो स्पष्ट है कि वृक्ष की पूजा कर वहीं बैठ कर भोजन करना, यह शुद्ध वायु-प्राप्ति का एक तरीका है। गांवों में महिलाएँ चूल्हे-चौके या खेती-बाड़ी के कार्यों में लगी रहती हैं। शुद्ध वायु प्रत्येक के लिये आवश्यक होती है। इन वृक्षों की पूजा कर कुछ समय यहीं व्यतीत होगा तो निश्चय ही उन्हें शुद्ध वायु की प्राप्ति होगी। क्योंकि पीपल वृक्ष का नाम वायु-प्रदूषण कम करने तथा प्राणवायु अत्यधिक मात्रा में उत्सर्जित करने वाले वृक्षों में सबसे ऊपर है। यह स्पष्ट है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का निवास होता है। जब शीतल शुद्ध वायु प्राप्त होगी, तो मन प्रसन्न रहेगा तथा जीवन में उन्नति होगी।

ग्रामीणों द्वारा अपनाई जा रही- जल पूजा, वृक्ष-पूजा पर्यावरण- शुद्धता के सरल उपाय हैं। यह सर्वविदित है कि अपने पूज्य को कोई हानि नहीं पहुँचाता है।

हवन द्वारा – मालवांचल में विभिन्न अवसरों पर हवन-पूजन किया जाता है। हवन में विभिन्न वृक्षों की लकड़ियाँ व हवन-सामग्री उपयोग में लाई जाती है।

वास्तव में हवन-पूजन के साथ जहाँ धार्मिक आस्था, परम्परा जुड़ी है, वहीं यह वैज्ञानिक दृष्टि से वायु-शुद्धता की विधि भी है। हवन में प्रयुक्त पदार्थों का रासायनिक परिवर्तन होता है। हवन में उत्सर्जित कार्बन डायऑक्साइड सुगंधित पदार्थों एवं कीटाणुनाशक पदार्थों की गैसों का मिश्रण होता है, जिसका स्वरुप परिणाम विविध सुवासयुक्त रसायनों से परिवर्तित होकर पर्यावरण शुद्धता में सहायता करते हैं।

ग्रामीणों द्वारा जल-पूजा, वृक्ष-पूजा आदि की जाती है, वास्तव में वे कोरा कर्मकांड नहीं वरन वायु-शुद्धिकरण के उपाय हैं।

इस प्रकार मालवा के ग्रामीण क्षेत्रों में पर्यावरण-शुद्धता के लिये अपनाई जा रही विधियां वैज्ञानिक धरातल पर खरी साबित हो रही हैं। ये विधियां सरल एवं व्यावहारिक भी है। अतः इस बात की महती आवश्यकता है कि हम ग्रामीणों द्वारा अपनाई जा रही विधियों को पुनः समझें और उसमें विज्ञान के उपलब्ध अच्छे ज्ञान को शामिल कर पर्यावरण शुद्धता के लिए उपयोग करें।

संदर्भ


1. डॉ. नीरज शर्मा व डॉ. प्रेमचंद श्रीवास्तव, जल और हम, पृ.23
2. डॉ. वि.ना. भावे, आरोग्यशास्त्र, पृ.25
3. वही, पृ.32
4. डॉ. प्रेम श्रीवास्तव, डॉ. नीरज शर्माः प्रदूषण और हम, पृ. 23
5. वि.ना.भावे, पूर्वोक्त, पृ. 10
6. वही, पृ.6
7. विज्ञान प्रगति, अप्रैल 1994, पृ.43
8. डॉ. प्रेम श्रीवास्तव, डॉ. नीरज शर्मा, पूर्वोक्त, पृ.43
9. पीयूषिका, श्री कावेरी शोध संस्थान, पृ.6
10. पर्यावरण पत्रिका, राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान, 1996, 2003, 2005

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