मानसून की अनिश्चितता का समाधान

21 Sep 2009
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आखिरकार 2009 का मानसून आ ही गया और वह भी बदले की भावना के साथ। कई जगहों पर बाढ़ आ गई और तमाम लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा। बारिश के चित्रों और जलाशय भर जाने की खबर के बीच ऐसा लगता है कि हमारे अर्थशास्त्री देर से आए और अपूर्ण मानसून के संभावित असर के बारे अनजान हैं। उनका कहना है कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि का बहुत कम योगदान होता है इसलिए अगर फसल अच्छी नहीं भी होती है तो भी विकास दर पर इसका कोई खास असर नहीं होगा। शेयर बाजार का ऊपर जा रहा है और इसके अलावा विकास के अन्य मानक सही स्थिति में हैं। यदि मानसून में हुए सुधार की वजह से रबी की फसल अच्छी हो जाती है तो सबकुछ ठीक हो जाएगा। जैसे कि अंत भला तो सब भला?

 

मानसून की दुर्दशा पर यह सोच उन ज्यादातर लोगों के लिए सबसे सतही और गैरसूचनात्मक लगती है जो अपनी अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। हमें इस बात को समझना होगा कि आखिर मानसून की अस्थायी असफलता किस तरह से पंगु बनाने वाली है। इसकी वजह से लोग पलायन करने एवं साहूकारों के चंगुल में फंसने को मजबूर हुए हैं। चूंकि फसल लग नहीं पाई है तो वे अपनी आजीविका का एकमात्र साधन अपने मवेशियों को बेचने को भी विवश हुए हैं। निर्धनता की यह प्रक्रिया इतनी प्रतिकूल है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था का पुनर्निर्माण मुश्किल हो जाता है। हरेक सूखा ग्रामीण समुदाय की क्षमताओं को कमजोर करता है। यह उन्हें कमजोर एवं पंगु बना देता है। सूखा कोई अस्थायी घटना नहीं होता है बल्कि यह स्थायी होता है एवं देश को खोखला कर देता है।

 

इन्हीं वजहो से मानसून की विफलता और पानी की कमी की समस्या से निपटने के लिए हमारे पास दीर्घकालिक योजना होनी चाहिए। वास्तव में हमें ऐसा उन परिस्थतियों में भी करना चाहिए जब मानसून वातावरण के बदलाव से प्रभावित हो रहा हो। दूसरे शब्दों में कहें तो हमारे पास मानसून की समस्या से या प्राकृतिक परिवर्तनशीलता से निपटने के लिए तैयारी नहीं है। हमें यह भी समझना होगा कि यह प्राकृतिक परिवर्तनशीलता किस हद तक मानव निर्मित है।

 

दक्षिण एशिया के मीडिया पेशेवरों की एक बैठक में देश के प्रमुख मानसून वैज्ञानिक बी. एन. गोस्वामी ने बताया कि मानसून के वर्तमान एवं भविष्य के लिए इस वातावरण बदलाव (जलवायु परिवर्तन) के क्या मायने हैं। पहली बात यह है कि अध्ययन इस बात को साबित कर रहे हैं कि ग्लोबल वार्मिंग भारतीय मानसून को ज्यादा परिवर्तशील और पूर्वानुमान लगाना मुश्किल बना रहा है। 1901 से 2004 तक के बारिश के आंकड़ों के आधार पर हाल के एक अध्ययन में यह बात उभर कर आई है कि मानसून के बारे में कोई पूर्वानुमान करना दोगुना मुश्किल हो गया है। इस अध्ययन के निष्कर्ष काफी व्यापक हैं। माॅनसून की असफलता से किसान कमजोर नहीं हो रहे हैं बल्कि क्या होने वाला है उस बारे में अनजान होने की वजह से कमजोर हो रहे हैं। इसलिए किसान बीज खरीदते हैं एवं उसकी बोआई पर निवेश करते हैं और वे अपनी आंखों के सामने फसलों को तैयार होते हुए देखना चाहते हैं। इसका मतलब यह है कि भारत को मानसून पर वातावरण बदलाव के असर के बारे में जानकारी जुटाने के लिए पूर्वानुमान मॉडलों और कंप्यूटिंग शक्ति पर ज्यादा ध्यान देना होगा।

 

दूसरी बात भी उतनी ही चिंताजनक है। भारत के मौसम वैज्ञानिकों को यह सवाल चिंता में डाले हुए है कि आखिर तापमान बढ़ने के बावजूद वातावरण बदलाव के मॉडलों अनुमान के अनुसार गर्मी में होने वाली बरसात में बढ़ोतरी क्यों नहीं हो रही है? इसलिए सवाल है कि क्या जलवायु परिवर्तन का हमारे देश के मानसून पर कोई असर नहीं पड़ रहा है?

 

इसका जवाब हम सभी के लिए चिंता की बात होनी चाहिए। पिछले 50 सालों से ज्यादा के बरसात पैटर्न के विश्लेषण से यह बात सामने आई है कि सामान्य बारिश वाले मौकों में कमी और दूसरी तरफ मूसलाधार बारिश वाले दिनों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। कई बार मूसलाधार बारिश के दिनों में 100 मिमी से ज्यादा बारिश होती है। चिंताजनक बात यह है कि ऐसे दिनों की संख्या बढ़ रही है, कई बार तो एक दिन में 150 मिमी से ज्यादा बारिश हो जाती है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो बारिश का स्वभाव बदल रहा है, अर्थात जब भी होती है मूसलाधार बारिश होती है। जरा सोचें कि हमारे भविष्य के लिए इसके क्या मायने हैं - मूसलाधार बारिश, जिससे बाढ़ आती है और पानी बहकर निकल जाता है। इस तरह किसानों के लिए कम ही पानी बच रहा है और भूजल भी कम रिचार्ज हो रहा है।

 

इन बदलावों को समझना महत्त्वपूर्ण है। एक तरफ तो देश में बढ़ते शहरीकरण और औद्योगिक विकास की वजह से पानी की मांग बढ़ रही है। वहीं दूसरी तरफ हम उपलब्ध जल में कचरा मिलाकर उसे प्रदूषित करके खराब कर रहे हैं। साथ ही हम बड़ी सिंचाई परियोजनाओं का सपना देखने में मूल्यवान समय नष्ट कर रहे हैं। हम इस पर बिल्कुल जोर नहीं दे रहे हैं कि इस मानसून और भावी जल संकट से निबटने के लिए हम क्या कर सकते हैं। इस संकट से निबटने के लिए सबसे जरूरी यह है कि बारिश के पानी की हर बूंद का सहेजा जाए। इसे टैंक, तालाब और यहां तक कि हर घर की छत पर सहेजा जाए। यह काम हर गांव और हर शहर में किया जाए। तब हमें सुनिश्चित करना होगा कि हर बूंद का सही उपयोग हो। इसके इस्तेमाल से ज्यादा और अलग-अलग फसलें ली जाए और औद्योगिक उत्पादकता बढ़ाई जाए और घरों में पानी की बरबादी को भी रोका जाए। ऐसा करना संभव है। यह बदलते हुए भविष्य का जल एजेंडा है। यह एक ऐसा जल एजेंडा है जिस हमें नजरअंदाज नही करना चाहिए - यहां तक कि बारिश के दौरान भी।

 

Tags: Monsoon, climate change, groundwater, rain, B N goswami, water harvesting, drought, natural variability, global warming, groundwater recharge 

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