मानसून पर निर्भर मुस्कान

10 Jun 2011
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महंगाई की मार झेल रही आम जनता और किसानों के लिए अच्छी खबर है। मौसम विभाग ने इस वर्ष के अपने पहले पूर्वानुमान में मानसून के सामान्य रहने की भविष्यवाणी की है। विभाग ने इस साल करीब 98 फ़ीसदी बारिश होने का अनुमान लगाया है। मानसून 31 मई तक केरल पहुंच जायेगा।

देश में हर वर्ष दक्षिण-पश्चिमी मानसून का किसान बेसब्री से इंतजार करते हैं, क्योंकि उनकी फ़सलों की सिंचाई इसी बारिश के पानी पर निर्भर है। समय से बारिश न होने पर न केवल खाद्यान्नों का उत्पादन घटता है, बल्कि देश के उद्योगों को कच्चे माल की आपूर्ति भी प्रभावित होती है। यह दोहरी मार आम जनता को सबसे ज्यादा झेलनी पड़ती है। मानसून की यात्रा पर नजर डालता आज का नॉलेज।

देश में मानसून के आगमन के साथ ही खुशियों की भी बौछार होने लगती है, क्योंकि भारत कृषि प्रधान देश है और हमारी कृषि मानसून पर निर्भर करती है। देश में 60 फ़ीसदी कृषि भूमि की सिंचाई बारिश के पानी से होती है। 58.2 फ़ीसदी कामगार कृषि पर निर्भर करते हैं। कृषि से उद्योगों को कच्चा माला मिलने के साथ-साथ कामगारों को आय भी होती है। मौसम विभाग का कहना है कि इस बार दक्षिण-पश्चिम मानसून 31 मई तक या इसके चार दिन आगे पीछे केरल में दस्तक देगा।

वर्तमान में मौसम वैज्ञानिक मानसून के पूर्वानुमान के लिए 2005 से देश में ही तैयार एक खास तरह के सांख्यिकीय मॉडल का इस्तेमाल करते हैं। इस मॉडल के जरिये जो पूर्वानुमान लगाया जाता है उसमें चार दिन पहले या बाद का अंतर आता है। आम तौर पर दक्षिण-पश्चिमी मानसून 15 मई तक अंडमान सागर पहुंच जाता है। मौसम विभाग देश भर में सामान्य मानसून रहने और दीर्घकालिक औसत ( एलपीए ) 98 फ़ीसदी बारिश होने का अनुमान व्यक्त कर चुका है। मौसम विभाग दीर्घकालिक पूर्वानुमान के लिए दो स्तर पर आकलन करता है। 1951-2000 तक पूरे देश में दक्षिण-पूर्व मानसून ( जून से सितंबर तक ) का औसत 89 सेमी रहा है।

पहला पूर्वानुमान अप्रैल में जारी किया जाता है और इसे फ़िर जून में अपडेट किया जाता है। इस बार पूर्वानुमान के लिए पांच पैमानों को आधार बनाया गया है। इसके तहत मानसून को पांच भागों में बांटा गया है। अल्प वर्षा (90 फ़ीसदी से कम), सामान्य से कम (90-96 फ़ीसदी), सामान्य (96-104 फ़ीसदी), सामान्य से अधिक (104-110 फ़ीसदी) और अत्यधिक (110 फ़ीसदी से ऊपर)। वर्ष 2009 में अल निनो के प्रभाव से मानसून कमजोर रहा था। हालांकि, अब अल निनो कमजोर हो रहा है, इसे जून तक जारी रहने की उम्मीद है। इसके बाद यह एन्सो स्थिति ( अप्रभावी स्थिति) में तब्दील हो जायेगा।

विशेषता भारतीय मानसून की


‘मानसून’ अरबी भाषा का शब्द है। अरब सागर में बहने वाली मौसमी हवाओं के लिए अरब मलाह मॉवसिम ( मौसम ) शब्द का प्रयोग करते थे। ये हवाएं जून से सितंबर तक गरमी के दिनों में दक्षिण-पश्चिम दिशा से और नवंबर से मार्च के सर्दी के दिनों में उत्तर-पूर्वी दिशा से बहती हैं। भारत की जलवायु ऊष्णकटिबंधीय है। यह मुख्यत दो प्रकार की हवाओं उत्तर-पूर्वी मानसून व दक्षिणी-पश्चिमी मानसून से प्रभावित होती है। उत्तर-पूर्वी मानसून को शीत मानसून कहा जाता है। यह हवाएं मैदान से सागर की ओर चलती हैं, जो हिंद महासागर, अरब सागर और बंगाल की खाड़ी को पार करके आती हैं।

लेकिन यहां अधिकांश वर्षा दक्षिण-पश्चिम मानसून लाती है। ऐशया और यूरोप का विशाल भू-भाग, जिसका एक हिस्सा भारत भी है, ग्रीष्मकाल में गरम होने लगता है। इसके कारण उसके ऊपर की हवा गरम होकर उठने और बहने लगती है। जिसके पीछे कम वायुदाब वाला एक विशाल प्रदेश बन जाता है। यह क्षेत्र अधिक वायुदाब वाले स्थानों से वायु को आकर्षित करने लगता है। अधिक वायुदाब वाला एक बहुत बड़ा क्षेत्र भारत के तीनों ओर स्थित महासागरों के ऊपर मौजूद रहता है। सागर के ऊपर मौजूद हवा में नमी होने के कारण वायु का घनत्व अधिक रहता है। उच्च वायुदाब वाले सागर से हवा मानसूनी हवाओं के रूप में जमीन की ओर बहने लगती है। यह हवा नमी से लदी हुई होती है, क्योंकि सागरों में निरंतर वाष्पीकरण होते रहते हैं।

यही नमी भरी हवा ग्रीष्मकाल का दक्षिण-पश्चिमी मानसून कहलाती है। चूंकि यह हवा हिंद महासागर और अरब सागर की ओर से भारत के दक्षिण-पश्चिम तट पर पहुंचती है, इसीलिए इसको दक्षिण-पश्चिम मानसून कहा जाता है। ये हवाएं भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश ओद देशों में भारी वर्षा कराती हैं। ये मौसमी पवन दक्षिणी ऐशिया क्षेत्र में जून से सितंबर तक सक्रिय रहती है। इस प्रकार मानसून पूरी तरह से हवाओं के बहाव पर निर्भर करता है। ये हवाएं भारतीय प्रायद्वीप की नोक, कन्याकुमारी पर पहुंचकर दो धाराओं में बंट जाती है। एक धारा अरब सागर की ओर और दूसरी बंगाल की खाड़ी की ओर बहती है। अरब सागर से आनेवाले मानसूनी पवन पश्चिमी घाट के ऊपर से बहकर दक्षिणी पठार की ओर बढ़ते हैं। बंगाल की खाड़ी से चलनेवाले पवन बंगाल से होकर भारतीय उपमहाद्वीप में घुसते हैं।

ये पवन अपने मार्ग में पड़नेवाले प्रदेशों में वर्षा करते हुए आगे बढ़ते हैं और अंत में हिमालय पर्वत पहुंचते हैं। हिमालय से टकराकर ये ऊपर उठते हैं। जिससे पूरे उत्तर भारत में मूसलाधार वर्षा होती है। भारत में अधिकांश वर्षा 70 से 90 फ़ीसदी मानसून काल में ही होती है। देश में वर्षा की मात्रा काफ़ी हद तक पर्वत श्रेणियों की स्थिति पर निर्भर करती है। यदि भारत में मौजूद सभी पर्वत हटा दिये जायें, तो वर्षा की मात्रा बहुत घट जायेगी। मुंबई, पुणे और चेरापूंजी में होने वाली वर्षा इसका उदाहरण है।

मानसून का पूर्वानुमान


मानसून की अवधि 1 जून से 30 सितंबर यानी चार महीने की होती है। इसकी भविष्यवाणी 16 अप्रैल से 25 मई के बीच कर दी जाती है। मानसून की भविष्यवाणी के लिए भारतीय मानसून विभाग कुल 16 तथ्यों का अध्ययन करता है। तथ्यों को चार भागों में बांटकर और सभी तथ्यों को मिलाकर मानसून के पूर्वानुमान निकाले जाते हैं। इस समय तापमान, हवा, दबाव और बर्फ़बारी जैसे कारकों का ध्यान रखा जाता है। और पूरे भारत के विभिन्न भागों के तापमान का अलग-अलग अध्ययन किया जाता है।

मार्च में उत्तर भारत का न्यूनतम तापमान और पूर्वी समुद्री तट का न्यूनतम तापमान, मई में मध्य भारत का न्यूनतम तापमान और जनवरी से अप्रैल तक उत्तरी गोलार्ध की सतह का तापमान नोट किया जाता है। इसके अलावा हवा का भी अध्ययन किया जाता है। वातावरण में अलग-अलग महीनों में छह किलोमीटर और 20 किलोमीटर ऊपर बहने वाली हवा के रुख को नोट किया जाता है। इसके साथ ही वायुमंडलीय दबाव भी मानसून की भविष्यवाणी में अहम भूमिका निभाता है। वसंत ऋतु में दक्षिणी भाग का दबाव और समुद्री सतह का दबाव जबकि जनवरी से मई तक हिंद महासागर विषुवतीय दबाव को मापा जाता है। इसके बाद बर्फ़बारी का अध्ययन किया जाता है।

जनवरी से मार्च तक हिमालय के क्षेत्रों में बर्फ़ का स्तर, क्षेत्र और दिसंबर में यूरेशियन भाग में बर्फ़बारी मानसून की भविष्यवाणी में अहम किरदार निभाती है। सभी आंकड़े उपग्रह द्वारा जुटाये जाते हैं। आंकड़ों की जांच-पड़ताल में थोड़ी सी असावधानी या मौसम में किन्हीं प्राकृतिक कारणों से बदलाव का असर मानसून की भविष्यवाणी पर डालता है। वर्ष 2004 के मानसून की भविष्यवाणी का पूरी तरह सही न होना इसका उदाहरण है। उस समय प्रशांत महासागर के मध्य विषुवतीय क्षेत्र में समुद्री तापमान जून महीने के अंत में बढ़ गया था।

मानसून का पड़ाव


31 जून से केरल से यात्रा शुरू करने के बाद आमतौर पर मानसून 7 जून तक कोलकाता,10 जून तक मुंबई और 29 जून तक दिल्ली में प्रवेश कर जाता है। मध्य जून तक अरब सागर से बहनेवाली हवाएं सौराष्ट्र, कच्छ व मध्य भारत के प्रदेशों में फ़ैल जाती हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, पूर्वी राजस्थान ओद बचे हुए प्रदेश जुलाई 1 तक बारिश की पहली बौछार का अनुभव करते हैं। कभी-कभी दिल्ली की पहली बौछार पूर्वी दिशा से, जो बंगाल की खाड़ी के ऊपर से बहनेवाली धारा का अंग होती है।

तो कई बार दिल्ली में यह पहली बौछार अरब सागर के ऊपर से बहनेवाली धारा का अंग बनकर दक्षिण दिशा से आती है। जुलाई तक मानसून कश्मीर और देश के अन्य बचे हुए भागों में भी फ़ैल जाता है। हालांकि, तमिलनाडु का मुख्य वर्षाकाल उत्तर-पूर्वी मानसून ( नवंबर और दिसंबर ) के समय होता है। क्योंकि पश्चिमी घाट की पर्वत श्रेणियों की आड़ में आ जाने के कारण उत्तर-पश्चिमी मानसून से उसे अधिक वर्षा नहीं मिल पाती।

महंगाई की मार झेल रही आम जनता और किसानों के लिए अच्छी खबर है। मौसम विभाग ने इस वर्ष के अपने पहले पूर्वानुमान में मानसून के सामान्य रहने की भविष्यवाणी की है। विभाग ने इस साल करीब 98 फ़ीसदी बारिश होने का अनुमान लगाया है। मानसून 31 मई तक केरल पहुंच जायेगा।

देश में हर वर्ष दक्षिण-पश्चिमी मानसून का किसान बेसब्री से इंतजार करते हैं, क्योंकि उनकी फ़सलों की सिंचाई इसी बारिश के पानी पर निर्भर है। समय से बारिश न होने पर न केवल खाद्यान्नों का उत्पादन घटता है, बल्कि देश के उद्योगों को कच्चे माल की आपूर्ति भी प्रभावित होती है। यह दोहरी मार आम जनता को सबसे ज्यादा झेलनी पड़ती है। मानसून की यात्रा पर नजर डालता आज का नॉलेज।

देश में मानसून के आगमन के साथ ही खुशियों की भी बौछार होने लगती है, क्योंकि भारत कृषि प्रधान देश है और हमारी कृषि मानसून पर निर्भर करती है। देश में 60 फ़ीसदी कृषि भूमि की सिंचाई बारिश के पानी से होती है। 58.2 फ़ीसदी कामगार कृषि पर निर्भर करते हैं। कृषि से उद्योगों को कच्चा माला मिलने के साथ-साथ कामगारों को आय भी होती है। मौसम विभाग का कहना है कि इस बार दक्षिण-पश्चिम मानसून 31 मई तक या इसके चार दिन आगे पीछे केरल में दस्तक देगा।

वर्तमान में मौसम वैज्ञानिक मानसून के पूर्वानुमान के लिए 2005 से देश में ही तैयार एक खास तरह के सांख्यिकीय मॉडल का इस्तेमाल करते हैं। इस मॉडल के जरिये जो पूर्वानुमान लगाया जाता है उसमें चार दिन पहले या बाद का अंतर आता है। आम तौर पर दक्षिण-पश्चिमी मानसून 15 मई तक अंडमान सागर पहुंच जाता है। मौसम विभाग देश भर में सामान्य मानसून रहने और दीर्घकालिक औसत ( एलपीए ) 98 फ़ीसदी बारिश होने का अनुमान व्यक्त कर चुका है। मौसम विभाग दीर्घकालिक पूर्वानुमान के लिए दो स्तर पर आकलन करता है। 1951-2000 तक पूरे देश में दक्षिण-पूर्व मानसून ( जून से सितंबर तक ) का औसत 89 सेमी रहा है।

पहला पूर्वानुमान अप्रैल में जारी किया जाता है और इसे फ़िर जून में अपडेट किया जाता है। इस बार पूर्वानुमान के लिए पांच पैमानों को आधार बनाया गया है। इसके तहत मानसून को पांच भागों में बांटा गया है। अल्प वर्षा (90 फ़ीसदी से कम), सामान्य से कम (90-96 फ़ीसदी), सामान्य (96-104 फ़ीसदी), सामान्य से अधिक (104-110 फ़ीसदी) और अत्यधिक (110 फ़ीसदी से ऊपर)। वर्ष 2009 में अल निनो के प्रभाव से मानसून कमजोर रहा था। हालांकि, अब अल निनो कमजोर हो रहा है, इसे जून तक जारी रहने की उम्मीद है। इसके बाद यह एन्सो स्थिति ( अप्रभावी स्थिति) में तब्दील हो जायेगा।

विशेषता भारतीय मानसून की


‘मानसून’ अरबी भाषा का शब्द है। अरब सागर में बहने वाली मौसमी हवाओं के लिए अरब मलाह मॉवसिम ( मौसम ) शब्द का प्रयोग करते थे। ये हवाएं जून से सितंबर तक गरमी के दिनों में दक्षिण-पश्चिम दिशा से और नवंबर से मार्च के सर्दी के दिनों में उत्तर-पूर्वी दिशा से बहती हैं। भारत की जलवायु ऊष्णकटिबंधीय है। यह मुख्यत दो प्रकार की हवाओं उत्तर-पूर्वी मानसून व दक्षिणी-पश्चिमी मानसून से प्रभावित होती है। उत्तर-पूर्वी मानसून को शीत मानसून कहा जाता है। यह हवाएं मैदान से सागर की ओर चलती हैं, जो हिंद महासागर, अरब सागर और बंगाल की खाड़ी को पार करके आती हैं।

लेकिन यहां अधिकांश वर्षा दक्षिण-पश्चिम मानसून लाती है। ऐशया और यूरोप का विशाल भू-भाग, जिसका एक हिस्सा भारत भी है, ग्रीष्मकाल में गरम होने लगता है। इसके कारण उसके ऊपर की हवा गरम होकर उठने और बहने लगती है। जिसके पीछे कम वायुदाब वाला एक विशाल प्रदेश बन जाता है। यह क्षेत्र अधिक वायुदाब वाले स्थानों से वायु को आकर्षित करने लगता है। अधिक वायुदाब वाला एक बहुत बड़ा क्षेत्र भारत के तीनों ओर स्थित महासागरों के ऊपर मौजूद रहता है। सागर के ऊपर मौजूद हवा में नमी होने के कारण वायु का घनत्व अधिक रहता है। उच्च वायुदाब वाले सागर से हवा मानसूनी हवाओं के रूप में जमीन की ओर बहने लगती है। यह हवा नमी से लदी हुई होती है, क्योंकि सागरों में निरंतर वाष्पीकरण होते रहते हैं।

यही नमी भरी हवा ग्रीष्मकाल का दक्षिण-पश्चिमी मानसून कहलाती है। चूंकि यह हवा हिंद महासागर और अरब सागर की ओर से भारत के दक्षिण-पश्चिम तट पर पहुंचती है, इसीलिए इसको दक्षिण-पश्चिम मानसून कहा जाता है। ये हवाएं भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश ओद देशों में भारी वर्षा कराती हैं। ये मौसमी पवन दक्षिणी ऐशिया क्षेत्र में जून से सितंबर तक सक्रिय रहती है। इस प्रकार मानसून पूरी तरह से हवाओं के बहाव पर निर्भर करता है। ये हवाएं भारतीय प्रायद्वीप की नोक, कन्याकुमारी पर पहुंचकर दो धाराओं में बंट जाती है। एक धारा अरब सागर की ओर और दूसरी बंगाल की खाड़ी की ओर बहती है। अरब सागर से आनेवाले मानसूनी पवन पश्चिमी घाट के ऊपर से बहकर दक्षिणी पठार की ओर बढ़ते हैं। बंगाल की खाड़ी से चलनेवाले पवन बंगाल से होकर भारतीय उपमहाद्वीप में घुसते हैं।

ये पवन अपने मार्ग में पड़नेवाले प्रदेशों में वर्षा करते हुए आगे बढ़ते हैं और अंत में हिमालय पर्वत पहुंचते हैं। हिमालय से टकराकर ये ऊपर उठते हैं। जिससे पूरे उत्तर भारत में मूसलाधार वर्षा होती है। भारत में अधिकांश वर्षा 70 से 90 फ़ीसदी मानसून काल में ही होती है। देश में वर्षा की मात्रा काफ़ी हद तक पर्वत श्रेणियों की स्थिति पर निर्भर करती है। यदि भारत में मौजूद सभी पर्वत हटा दिये जायें, तो वर्षा की मात्रा बहुत घट जायेगी। मुंबई, पुणे और चेरापूंजी में होने वाली वर्षा इसका उदाहरण है।

मानसून का पूर्वानुमान


मानसून की अवधि 1 जून से 30 सितंबर यानी चार महीने की होती है। इसकी भविष्यवाणी 16 अप्रैल से 25 मई के बीच कर दी जाती है। मानसून की भविष्यवाणी के लिए भारतीय मानसून विभाग कुल 16 तथ्यों का अध्ययन करता है। तथ्यों को चार भागों में बांटकर और सभी तथ्यों को मिलाकर मानसून के पूर्वानुमान निकाले जाते हैं। इस समय तापमान, हवा, दबाव और बर्फ़बारी जैसे कारकों का ध्यान रखा जाता है। और पूरे भारत के विभिन्न भागों के तापमान का अलग-अलग अध्ययन किया जाता है।

मार्च में उत्तर भारत का न्यूनतम तापमान और पूर्वी समुद्री तट का न्यूनतम तापमान, मई में मध्य भारत का न्यूनतम तापमान और जनवरी से अप्रैल तक उत्तरी गोलार्ध की सतह का तापमान नोट किया जाता है। इसके अलावा हवा का भी अध्ययन किया जाता है। वातावरण में अलग-अलग महीनों में छह किलोमीटर और 20 किलोमीटर ऊपर बहने वाली हवा के रुख को नोट किया जाता है। इसके साथ ही वायुमंडलीय दबाव भी मानसून की भविष्यवाणी में अहम भूमिका निभाता है। वसंत ऋतु में दक्षिणी भाग का दबाव और समुद्री सतह का दबाव जबकि जनवरी से मई तक हिंद महासागर विषुवतीय दबाव को मापा जाता है। इसके बाद बर्फ़बारी का अध्ययन किया जाता है।

जनवरी से मार्च तक हिमालय के क्षेत्रों में बर्फ़ का स्तर, क्षेत्र और दिसंबर में यूरेशियन भाग में बर्फ़बारी मानसून की भविष्यवाणी में अहम किरदार निभाती है। सभी आंकड़े उपग्रह द्वारा जुटाये जाते हैं। आंकड़ों की जांच-पड़ताल में थोड़ी सी असावधानी या मौसम में किन्हीं प्राकृतिक कारणों से बदलाव का असर मानसून की भविष्यवाणी पर डालता है। वर्ष 2004 के मानसून की भविष्यवाणी का पूरी तरह सही न होना इसका उदाहरण है। उस समय प्रशांत महासागर के मध्य विषुवतीय क्षेत्र में समुद्री तापमान जून महीने के अंत में बढ़ गया था।

मानसून का पड़ाव


31 जून से केरल से यात्रा शुरू करने के बाद आमतौर पर मानसून 7 जून तक कोलकाता,10 जून तक मुंबई और 29 जून तक दिल्ली में प्रवेश कर जाता है। मध्य जून तक अरब सागर से बहनेवाली हवाएं सौराष्ट्र, कच्छ व मध्य भारत के प्रदेशों में फ़ैल जाती हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, पूर्वी राजस्थान ओद बचे हुए प्रदेश जुलाई 1 तक बारिश की पहली बौछार का अनुभव करते हैं। कभी-कभी दिल्ली की पहली बौछार पूर्वी दिशा से, जो बंगाल की खाड़ी के ऊपर से बहनेवाली धारा का अंग होती है।

तो कई बार दिल्ली में यह पहली बौछार अरब सागर के ऊपर से बहनेवाली धारा का अंग बनकर दक्षिण दिशा से आती है। जुलाई तक मानसून कश्मीर और देश के अन्य बचे हुए भागों में भी फ़ैल जाता है। हालांकि, तमिलनाडु का मुख्य वर्षाकाल उत्तर-पूर्वी मानसून ( नवंबर और दिसंबर ) के समय होता है। क्योंकि पश्चिमी घाट की पर्वत श्रेणियों की आड़ में आ जाने के कारण उत्तर-पश्चिमी मानसून से उसे अधिक वर्षा नहीं मिल पाती।

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