मछुआरों का न तो नदी पर और न ही पानी पर अधिकार

fishing
fishing

आंध्रप्रदेश में गोदावरी नदी पर पोलावरम बांध बनने से हजारों मछुआरे दैनिक मजदूर में परिवर्तित हो जाएंगे। अन्य विस्थापितों को कम से कम जमीन के बदले जमीन या अन्य कोई मुआवजा तो मिल जाएगा। परंतु पुनर्वास योजनाओं में मछुआरों का जिक्र तक नहीं है क्योंकि वे न तो नदी और न ही पानी पर अपना कोई स्वामित्व जतला सकते हैं।

मल्लाडी पोसी और ईश्वर राव, पल्ली जाति के मछुआरे हैं जो कि गोदावरी नदी के किनारे बसे एक ऐसे गांव के निवासी हैं जिसे पोलावरम बांध के निर्माण से विस्थापन का खतरा पैदा हो गया है मल्लाडी पोसी मंतुरु में नाव खेने और मछुआरे का कार्य करता है। उसकी अकेली नाव ही मंतुरु गांव को जो कि पूर्वी गोदावरी क्षेत्र में आता है, नदी के रास्ते पश्चिमी गोदावरी के वेडापल्ली से जोड़ती है। मंतुरु उन 276 गांवों में से एक है जो करोड़ों की लागत से बनने वाले बहुउद्देशीय पोलावरम (इंदिरा सागर) सिंचाई परियोजना की डूब में आ रहा है। पोसी और उसके मित्र मानसून के तीन-चार महीनों के लिए गोदावरी में मछली संबंधित अपनी गतिविधियां रोक देते हैं और सितंबर की शुरुआत में पुनः प्रारंभ कर देते हैं। इस दौरान वे सितंबर से मई के बीच हुई अपनी आमदनी पर गुजारा करते है। करोड़ों की लागत वाली इंदिरा सागर पोलावरम बांध परियोजना से 960 मेगावाट विद्युत उत्पादन भी प्रस्तावित है। इसके अलावा इससे गोदावरी के क्षेत्र में 7 लाख एकड़ भूमि में अतिरिक्त सिंचाई का भी प्रावधान है।

परंतु इस परियोजना के साथ कुछ गंभीर प्रश्न भी जुड़े हुए हैं। सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है कि गोदावरी किसके लिए बहती है? जिस तरह आदिवासी समुदाय को जमीन के बदले जमीन या जंगल के बदले जंगल मिलने का प्रावधान है उसी तरह क्या मछुआरे नदी के बदले नदी का मुआवजा प्राप्त कर सकते हैं? इन प्रश्नों से उन पुरुषों और महिलाओं की दारुण स्थिति का भान होता है जो कि अन्य लोगों से कहीं ज्यादा गोदावरी के प्रवाह से जुड़े हुए हैं। जैसे ही पोलावरम बांध पूरा होगा ये समुदाय हमेशा-हमेशा के लिए अपनी पहचान खो चुके होंगे और उन सैंकड़ों-हजारों दिहाड़ी मजदूरों में शामिल हो जाएंगे जिन्हें हम निर्माण स्थल या खेतों में पाते हैं। पोलावरम बांध के पुनर्वास एवं पुनर्बसाहट योजनाओं के आंकड़ों में मछुआरा समुदाय का कोई उल्लेख ही नहीं है। यह अजीब तमाशा है कि जनसंख्या के इस वर्ग की ‘एजेंसी क्षेत्र’ में गणना ही नहीं की गई है।

भारत सरकार के पूर्व जल संसाधन सचिव रामास्वामी अय्यर का कहना है ‘पानी के इस्तेमाल के अधिकार तो है लेकिन इसे लेकर सम्पत्ति का अधिकार नहीं है। यह सोचना लाभप्रद होगा कि सभी प्रकार के जल संसाधन (नदी, झील, तालाब, भूजल) न तो राज्य की सम्पत्ति हैं और न ही निजी बल्कि ये तो समुदाय की सम्पत्ति है और इन्हें राज्य ने समुदायों के हित में अपने आधीन कर रखा है जबकि इन्हें सार्वजनिक ट्रस्ट के सिद्धांत पर उपयोग में लाना चाहिए।’ एक नदी को बजाय सामुदायिक सम्पत्ति संसाधन समझने के इसे साझा प्राकृतिक संसाधन की तरह से देखना चाहिए। सम्पत्ति का विचार ही समस्या की जड़ है और यह प्राकृतिक संसाधनों को लेकर व्यावसायिक दृष्टिकोण के एक पहलू से जुड़ा हुआ है। इस प्रक्रिया में शोषण तो अंतर्निहित ही है। व्यापक वैश्विक राजनीतिक अर्थव्यवस्था के चलते नदी या किसी भी अन्य प्राकृतिक संसाधन को सामूहिक सम्पत्ति संसाधन मानने के सिद्धांत पर वास्तव में गंभीर विमर्श की आवश्यकता है।

जब कोई व्यक्ति नदियों, चरागाह या चरनोई को ‘सम्पत्ति’ कह कर संबोधित करता है तो इस पर अधिकारों को लेकर राज्य व शक्ति के अन्य स्त्रोतों के नजरिए से विचार होने लगता है और सीमांत या वंचित समुदाय को इसके स्वामित्व को लेकर अपने अधिकार सिद्ध करना होता है। इस संदर्भ में खास बात यह है कि इन लोगों ने प्रथमतः इन संसाधनों को कभी अपनी सम्पत्ति समझा ही नहीं है। इसका सबसे सहज उदाहरण उन मछुआरों का है जो कि वर्ष में 5 से 6 महीनों के लिए गोदावरी के किनारे अपनी अस्थायी रिहायश बना लेते हैं। आदिवासी समुदाय अपने उन गांवों की रेत और किनारों पर बनने वाले इन अस्थायी घरों हेतु न तो कोई पूछताछ करता है और न ही इनके स्वामित्व पर कोई बात करता है। एक नदी, एक पहाड़ या एक वन जैसे प्राकृतिक संसाधन को साझा करना अंततः उनके जीवन का विस्तार ही है।

यहीं पर सवाल उठता है कि नदियों पर सिंचाई परियोजना बनाते समय किसके हित सर्वोपरी रहेंगे? कृषि के, उद्योग के या मछुआरों के? क्या नदियों और जंगलों और अन्य प्राकृतिक संसाधनों के संबंध में अंतिम निर्णय लेने का अधिकार केवल भारत राष्ट्र को ही है? वैसे विशेषज्ञ अक्सर इन सवालों पर बहस करते रहते हैं लेकिन जिनका रोजमर्रा का जीवन इन कार्यों से प्रभावित होता है उनसे इन मसलों पर कभी भी ‘सलाह मशविरा’ नहीं किया जाता। स्पष्टतः ‘साझा’ को सामुदायिक की तरह आत्मसात कर और व्यवहार में लाकर परिभाषित कर दिया जाता है। मल्लाडी पोसी का कहना है कि ‘पोलावरम परियोजना के कारण हमारी दशकों पुरानी जीविका नष्ट हो जाएगी क्योंकि यहां का जलस्तर बढ़ जाएगा। हम अब यहां कभी भी मछली नहीं पकड़ पाएंगें।’

मंतुरु के श्रीनु इससे सहमति जताते हुए कहते हैं ‘बांध के आते ही हमें हमारे पारम्परिक व्यवसाय को भूल जाना पड़ेगा।’ देवीपट्टनम (पूर्वी गोदावरी) के फिशरमेनपेटा के एक अन्य पाल्ली मछुआरे मल्लाडी गंगाधरम का कहना है ‘हमारे विरोध के बावजूद यहां बांध तो बनेगा ही। बांध के पानी में हमारी जीविका डूब जाएगी। वे हमें और कहीं भी ले जाएं लेकिन हमें तो गोदावरी पर ही जिंदा रहना है क्योंकि हमें कोई और कार्य (कौशल) आता ही नहीं है। हम मजदूर की तरह जिंदा नहीं रह सकते। गोदावरी के सहारे जीना ही हमारा धर्म है। हम क्या कर सकते हैं यदि वे हमें वह सब नहीं देते जो हम चाहते हैं?’ फिशरमेनपेटा में पाल्ली मछुआरों के तीस परिवार हैं। इस गांव के अदादादी रामबाबू का कहना है ‘हम करीब 25 वर्ष पूर्व इसी जिले के तल्लापुड़ी गांव से इसलिए यहां आए थे क्योंकि वहां पर मछली मारना कठिन हो गया था। बांध के बन जाने के बाद हम एक बार पुनः अपनी जीविका से हाथ धो बैठेगें। वैसे भी भले ही बाढ़ आए या कुछ और हमें तो कभी भी मुआवजा मिलता ही नहीं है।’

(सप्रेस/थर्ड वर्ल्ड नेटवर्क फीचर्स)

परिचय - आर. उमा माहेश्वरी आंध्रप्रदेश की एक पत्रकार हैं। वे अनेक वर्षों से विकास और विस्थापन संबंधित मसलों पर लेखन कर रही हैं।

 

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading