मध्य प्रदेश का सिंदौड़ा गांव हुआ प्लास्टिक मुक्त, मिल चुका है राष्ट्रीय पुरस्कार

17 Jan 2020
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महिलाओं द्वारा बनाया गया बर्तन बैंक।
महिलाओं द्वारा बनाया गया बर्तन बैंक।

प्लास्टिक अन्य धातुओं की अपेक्षा काफी हल्का और सस्ता होता है। जिस कारण कई सदियों से विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का निर्माण करने से लेकर सामान लाने-ले-जाने में भी प्लास्टिक के थैले और बाॅक्स आदि का उपयोग किया जाता है। भोजन सामग्री को भी प्लास्टिक में पैक करने का एक नया ट्रेंड चल पड़ा है, लेकिन प्लास्टिक के उत्पादों की बिक्री को विज्ञान जगत ने तेजी से बढ़ाया है। जिसमें खिलौना और मोबाइल उद्योग काफी बड़ी संख्या में प्लास्टिक का उपयोग करते हैं। तो वहीं पानी और कोल्ड ड्रिंक का व्यापार करने वाली कंपनियां तथा ऑटोमोबाइल सेक्टर भी इसमें पीछे नहीं हैं और ये सिंगल यूज प्लास्टिक होता है, जिसका एक ही बार उपयोग किया जा सकता है। प्लास्टिक की इन वस्तुओं ने समाज में ऐसी पैठ बनाई कि प्लास्टिक इंसान के जीवन का हिस्सा बन चुका है। शायद ही ऐसी कोई वस्तु होगी जिसमें प्लास्टिक का उपयोग न होता हो। एक तरह में प्लास्टिक हमारे मन में घर कर गया है। जिसका खामियाजा वैश्विक स्तर पर तेजी से बढ़ रहे प्लास्टिक प्रदूषण व कचरे के रूप में सभी भुगत रहे हैं। ये समस्या इतनी बढ़ गई है कि विश्व स्तर पर प्लास्टिक के खिलाफ जंग छिड़ चुकी है, जिसमें भारत भी पीछे नही है।

भारत सरकार ने सिंगल यूज प्लास्टिक के बहिष्कार की बीते वर्ष दो अक्टूबर को घोषणा की थी। कई लोगों ने इस पर अमल किया, जबकि देश के अधिकांश लोग आज भी प्लास्टिक का उपयोग करते हैं,  लेकिन मध्य प्रदेश के सिंदौड़ा गांव ने प्लास्टिक मुक्त भारत की मुहिम पर न केवल अमल किया, बल्कि प्लास्टिक को अपने गांव से बाहर खदेड़कर ‘प्लास्टिक मुक्त गांव’ बनने की एक नई मंजिल पाई, जिसके लिए गांव को राष्ट्रीय पुरस्कार भी दिया गया है। दरअसल ये सफलता एक व्यक्ति की बदौलत नहीं, अपितु गांव के बच्चे से लेकर बूढ़े सभी लोगों ने इसमें अपना योगदान दिया। हुआ यूं कि गांव में पहले अन्य सभी स्थानों की तरह प्लास्टिक का उपयोग किया जाता था। स्वच्छ भारत मिशन के ब्लाॅक को-ऑर्डिनेटर धर्मजीत सिंह ने इस पूरे कार्य का बीज रोपा। उन्होंने लगातार बैठके कर ग्राम पंचायत को प्लास्टिक के दुष्प्रभावों के प्रति जागरुक किया। साथ ही प्लास्टिक के बहिष्कार के लिए प्रेरित भी किया। राष्ट्रीय सेवा योजना सहित शिक्षण व विभिन्न सामाजिक संस्थाओं के छात्रों ने भरपूर सहयोग किया। 

सिंदौड़ा की आबादी करीब 1800 है। गांव में जागरुकता फैलाने के लिए योजना बनाई गई। योजना के अनुसार स्वच्छ आंगन प्रतियोगिता कराई गई। बर्तन बैंक और कपड़े की थैलियां जैसे अभियान शुरू किए गए। खास बात ये रही कि अभियान का जिम्मा बच्चों और महिलाओं को सौंपा गया। अभियान में महिलाओं ने सबसे बड़ा योगदान देते हुए, स्वयं सहायता समूह बनाकर बर्तन बैंक बनाया। गांव में होने वाले सभी कार्यों में भोज के लिए प्लास्टिक के बर्तनों का उपयोग नहीं होता है, बल्कि बर्तन बैंक के ही बर्तनों का इस्तेमाल किया जाता है। इतना सब करने के बाद, भले ही प्लास्टिक के उपयोग में कमी आई, लेकिन पूरी तरह से नकेल नहीं कसी जा सकी। 

प्लास्टिक को पूरी तरह से गांव से खदेड़ने के लिए स्कूलों ने मोर्चा संभाला और बच्चों को साथ लेकर गांव भर में जागरुकता रैली निकाली। गांव के बाहर कूड़ाघर बनाया गया। सूखे और गीले कूड़े को अलग अलग करने की व्यवस्था की गई। दुकानदारों से प्लास्टिक की थैलियों का उपयोग न करने की अपील की गई। कई दुकानदारों ने अभियान में योगदान देते हुए प्लास्टिक की थैलियां रखना ही बंद कर दिया, लेकिन कुछ दुकानदार फिर भी नहीं माने तो उन पर जुर्माना लगाया गया। कुछ ऐसे भी दुकानदार थे, जो चोरी छिपे प्लास्टिक थैलों का उपयोग करते थे। इन पर नकेल कसने के लिए बच्चों से जासूसी कराई जाती और बच्चे दुकानदार की सूचना पंचायत को देते। अतः गांव में धीरे धीरे प्लास्टिक का उपयोग पूरी तरह से बंद हो गया।

आज आलम ये है कि इंदौर जिले के इस गांव में कहीं भी प्लास्टिक का उपयोग नहीं होता है। दुकान से सामान लाना हो या बाजार से सब्जी, सभी अपने साथ कपड़े का थैला लेकर जाते हैं। दूध लाने के लिए स्टील की केतली या कोई अन्य बर्तन लेकर जाते हैं। स्कूल के बच्चों ने भी किताबों पर चढ़ाने वाले प्लास्टिक कवर से दूरी बना ली है, अब किताबों और कॉपियों पर केवल कागज का कवर ही चढ़ाया जाता है। गांव के सभी घरों पर प्लास्टिक मुक्त घर का लोगों भी लगा है। इसके बावजूद भी यदि कोई गांव में प्लास्टिक का उपयोग करता है तो बच्चे उसे टोक देते हैं। इन सभी कार्यों को करते हुए मध्य प्रदेश के इंदौर जिले का सिंदौड़ा गांव राज्य का पहला ‘‘प्लास्टिक मुक्त गांव’’ बना, जिसके लिए पंचायत को केंद्रीय जल शक्ति मंत्रालय ने राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित किया।

लेख - हिमांशु भट्ट

 

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