मेहनत पर जुर्माना

कृषि
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चावल, गेहूं या चीनी, कोई भी ऐसी फसल नहीं जिसका अधिक उत्पादन होने पर किसानों को मेहनत का सही दाम मिला हो। जब पैदावार अधिक होती है तो निर्यात पर रोक लगा दी जाती है और खपत से जरा भी कम उपज होने पर आयात करके घरेलू बाजार में कीमतें गिरा दी जाती हैं। बताने की जरूरत नहीं कि ऐसे फैसले किन लोगों के इशारे पर लिए जाते हैं और किसान क्यों अपनी जान दे रहे हैं। कारोबारियों और राजनीतिकों की लॉबी के इन फैसलों का दुष्प्रभाव किसानों तक सीमित नहीं रहता।

पिछले दिनों असम के बेसीमारी जिले में जूट (पटसन) की वाजिब कीमत मांग रहे किसानों पर पुलिस ने गोलियां बरसा कर चार किसानों को मौत की नींद सुला दिया। पूरे देश का कृषितंत्र इस समय अजीबोगरीब मुसीबत का सामना कर रहा है। महाराष्ट्र और राजस्थान में किसान प्याज के सही दाम हासिल करने के लिए सड़क पर हैं वहीं तमिलनाडु और गुजरात के किसान कपास निर्यात का कोटा बढ़वाने के लिए लड़ रहे हैं। पंजाब-हरियाणा-पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान गेहूं के ढेर पर बैठे रो रहे हैं और दक्षिण भारत में चावल और रबर ने किसानों को हलकान कर रखा है। विडंबना देखिए, बंपर उत्पादन के बावजूद पिछले दो साल से खाद्य मुद्रास्फीति दोहरे अंकों के करीब झूल रही है और सरकारी गोदामों में अनाज सड़ रहा है।

किसान के खेत से चलने वाली उपज उपभोक्ता तक पहुंचते-पहुंचते पचास से अस्सी फीसद महंगी हो जाती है। सवाल उठता है कि किसान और उपभोक्ता दोनों के लुटने पर भी नीतियों में तब्दीली क्यों नहीं की जाती, और मलाई खाने वाला तीसरा समूह कौन है? किसानों की बर्बादी तय करने वालों की शिनाख्त करने के लिए सबसे पहले प्याज को लिया जा सकता है। हमारे देश में प्याज की सालाना खपत लगभग एक करोड़ टन है। पिछले तीन साल से प्याज का बंपर उत्पादन हुआ है। हमारे देश में साठ फीसद प्याज की फसल रबी के मौसम में और बाकी खरीफ के मौसम में बोई जाती है।

खरीफ या मानसूनी प्याज मई-जून में बोया जाता है और सितंबर-अक्तूबर तक यह फसल बाजार में आ जाती है। मुख्यतया बारिश के पानी में तैयार होने के कारण मानसूनी प्याज को लंबे समय तक भंडारित नहीं किया जा सकता और यह फसल खाद्य प्रसंस्करण सुविधाओं के अभाव में जल्दी ही सड़ने लगती है। यही वह कमजोरी है जिसका फायदा उठा कर कारोबारियों और राजनीतिकों का गठजोड़ किसानों और उपभोक्ताओं की जेब पर डाका डालता है। 1998 के दिल्ली के प्याज संकट से लेकर अब तक का इतिहास गवाह है कि देश में हमेशा सितंबर और दिसंबर के बीच ही प्याज की कीमतें जनता को रुलाती हैं। चूंकि कुछ राज्यों के किसान अगस्त में फसल काटने के बाद प्याज की बुआई करते हैं जो जनवरी तक बाजार में आ जाता है। नई फसल की आवक के चलते प्याज की कीमतों में कृत्रिम तेजी जनवरी के पहले हफ्ते में हवा हो जाती है।

प्याज में तेजी लाने का यह खेल कारोबारी और नेता बेहद चतुराई से हर साल खेलते रहे हैं और पिछले साल की तरह इस साल भी अगस्त की शुरुआत में ही यह लॉबी सक्रिय हो गई। महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात और राजस्थान समेत सारे प्याज उत्पादक राज्यों में मानसून की मेहरबानी के चलते इस बार प्याज का बेहतर उत्पादन हुआ है। दूसरे देशों में प्याज का उत्पादन प्रभावित होने और उच्च गुणवत्ता के चलते अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भारतीय प्याज की खासी मांग है। कारोबारियों ने कम कीमतों पर प्याज का भंडारण करने के लिए नेताओं पर दबाव बनाया और सरकार ने प्याज की कीमतों पर लगाम कसने का बहाना बना कर प्याज के निर्यात पर रोक लगा दी। हैरत की बात यह है कि निर्यात पर पाबंदी के समय प्याज की कीमतें दस रुपए प्रति किलोग्राम के आसपास चल रही थीं। निर्यात पर पांबदी लगते ही कारोबारियों ने अपनी खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों में प्याज का भंडारण करना शुरू कर दिया और बाजार में प्याज की आपूर्ति रोक कर कृत्रिम कमी पैदा करनी शुरू कर दी।

खपत से ज्यादा पैदावार होने के बावजूद निर्यात पर रोक लगाने के कारण छोटे व्यापारियों में हड़कंप मच गया और छोटे स्तर पर भी प्याज की जमाखोरी होने लगी। विडंबना देखिए, सरकार ने प्याज सस्ती दरों पर मुहैया करवाने का तर्क देकर निर्यात पर रोक लगाई थी, लेकिन दो सप्ताह के भीतर ही प्याज की खुदरा कीमतें चालीस रुपए प्रति किलोग्राम का आंकड़ा पार कर गर्इं। देश भर में किसानों ने प्याज के बोरे सड़कों पर फेंकने शुरू कर दिए और बढ़ते दबाव के बाद सरकार ने प्याज के निर्यात पर लगाई गई पाबंदी हटा ली। हालांकि किसानों को इस फैसले से कोई फायदा नहीं होने वाला है। छोटे किसानों के पास फसल को अधिक समय तक रोके रखने की क्षमता या भंडारण की सुविधा नहीं होती। यही वजह है कि एशिया की सबसे बड़ी प्याज मंडी (महाराष्ट्र के नासिक जिले की) लासलगांव में बिलखते किसानों ने प्याज महज दो रुपए प्रति किलो की दर से व्यापारियों को बेच दिया है। त्योहारी मांग और शादी-विवाह के मौसम में कारोबारी इसी प्याज को पचास-साठ रुपए प्रति किलो की दर से बेच कर मुनाफा कमाएंगे। निर्यात पर पाबंदी भले ही हटा ली गई है मगर निर्यात को हतोत्साह करने के लिए न्यूनतम निर्यात मूल्य यानी एमईपी का रोड़ा लगा दिया गया है।

इस साल अप्रैल में रबी का प्याज बाजार में आने के समय न्यूनतम निर्यात मूल्य 170 डॉलर प्रति टन तय किया गया था लेकिन मानसूनी प्याज के बाजार में आते ही एमईपी को बढ़ा कर 475 डॉलर प्रति टन कर दिया गया। एमईपी में ढाई गुना से ज्यादा की इस बढ़ोतरी ने निर्यात पर पाबंदी हटाने के फैसले की प्रासंगिकता ही खत्म कर दी है और छोटे-बड़े सारे किसान इसकी चपेट में आकर बर्बाद हो गए हैं। क्या नीति-निर्माताओं के पास इस बात का जवाब है कि किन कारणों से एमईपी में अचानक बढ़ोतरी कर दी गई? आयात-निर्यात की दोहरी नीतियों के सहारे एक तरफ किसानों को उपज की वाजिब कीमत से वंचित रखने और दूसरी तरफ उपभोक्ताओं को भी ठगने का यह तरीका हरेक जिंस के साथ अपनाया जाता है। 2010-11 में कपास की 340 लाख गांठों (एक गांठ 170 किलोग्राम) का उत्पादन हुआ। हमारी घरेलू खपत 250 लाख गांठों की है।
 

यूपीए सरकार पिछले सात सालों से फसलों के समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी करके किसानों की भलाई करने का दम भर रही है। पहली बात तो यह है कि सरकारी समर्थन मूल्य कई बार फसल की लागत से साठ फीसद तक कम होता है और इसका भी मंडियों में उपज बेचने वाले चालीस फीसद किसान ही फायदा उठा पाते हैं। भंडारण की क्षमता नहीं होने के कारण किसान फसल काटते ही बेच देते हैं, मगर यहां भी सरकार के आयात-निर्यात फैसले चोट करते हैं।

उत्पादन और खपत के आंकड़ों को देख कर साधारण आदमी भी बता सकता है कि इत्मीनान से 90 लाख गांठों का निर्यात किया जा सकता था, लेकिन सरकार ने महज 55 लाख गांठों के निर्यात की अनुमति दी। नतीजन किसानों को उपज का सही दाम नहीं मिला और कपास का भंडारण करने वाले जमाखोरों ने ऊंची दरों पर छोटी कताई और कताई-बुनाई मिलों को कपास बेचना शुरू कर दिया। संकट इतना बढ़ गया कि देश के कई इलाकों में कताई-बुनाई मिलें बंद हो गर्इं और कर्ज में डूबे तिरुपुर जैसे इलाकों के छोटे व्यापारी खुदकुशी करने लगे। मामला गरमाने के बाद कपास की अतिरिक्त गांठों के निर्यात की अनुमति दी गई, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में अमेरिकी कपास की आवक शुरू होते ही कीमतें गिरना शुरू हो गर्इं। दूसरी ओर किसान अपनी पैदावार बेच चुके थे, इस कारण भंडारण की क्षमता वाले बड़े कारोबारियों ने ही निर्यात का थोड़ा-बहुत फायदा उठाया। याद रहे, कृषिमंत्री शरद पवार के गृहराज्य महाराष्ट्र के विदर्भ में 16 लाख से ज्यादा किसान कपास की खेती करते हैं और पिछले कुछ सालों से उपज का सही दाम न मिलने के कारण मौत को गले लगा रहे हैं।

चावल, गेहूं या चीनी, कोई भी ऐसी फसल नहीं जिसका अधिक उत्पादन होने पर किसानों को मेहनत का सही दाम मिला हो। जब पैदावार अधिक होती है तो निर्यात पर रोक लगा दी जाती है और खपत से जरा भी कम उपज होने पर आयात करके घरेलू बाजार में कीमतें गिरा दी जाती हैं। बताने की जरूरत नहीं कि ऐसे फैसले किन लोगों के इशारे पर लिए जाते हैं और किसान क्यों अपनी जान दे रहे हैं। कारोबारियों और राजनीतिकों की लॉबी के इन फैसलों का दुष्प्रभाव किसानों तक सीमित नहीं रहता। उपभोक्ताओं और आखिरकार अर्थव्यवस्था को भी इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। नब्बे के दशक में हमारा देश खाद्य तेलों में आत्मनिर्भर था, लेकिन अर्थव्यवस्था खोलने के अभियान में साल-दर-साल तिलहन पर आयात शुल्क कम किया जाता रहा। नतीजा यह हुआ कि घरेलू बाजार मलेशिया, इंडोनेशिया, ब्राजील और अर्जेंटीना के तेल से पट गया और अब भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा खाद्य तेल आयातक देश बन गया है। यह नीति अब भी जारी है। यूपीए सरकार पिछले एक हफ्ते से इंडोनेशियाई सरकार से सस्ते पॉम तेल की गुहार लगा रही है क्योंकि देश की खपत का आधे से ज्यादा खाद्य तेल आयात किया जाने लगा है।

पांच साल पहले कारोबारियों के दबाव में रबर के मसले पर किए गए एक अदूरदर्शी फैसले की सजा देश की जनता आज तक भुगत रही है। 2006-07 में 8.5 लाख टन रबर का उत्पादन हुआ था और 93 हजार टन रबर पहले से बचा हुआ था। उस समय रबर की खपत 8.2 लाख टन थी। मगर एक बार फिर कारोबारी लॉबी के दबाव में पहले 56 हजार टन रबर का निर्यात और कुछ समय बाद 90 हजार टन रबर का आयात किया गया। कहने की जरूरत नहीं कि निर्यात के समय घरेलू बाजार में रबर के दाम गिराना और आयात के समय कीमतों में उछाल लाना ही मकसद था। किसानों ने उस झटके के बाद रबर की खेती से तौबा कर ली लेकिन वाहन उद्योग और जूता उद्योग समेत दूसरे क्षेत्रों में रबर की मांग बेहताशा बढ़ती गई। बीते पांच सालों से ही भारत रबर आयातक देशों की कतार में लगातार ऊपर जा रहा है।

यूपीए सरकार पिछले सात सालों से फसलों के समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी करके किसानों की भलाई करने का दम भर रही है। पहली बात तो यह है कि सरकारी समर्थन मूल्य कई बार फसल की लागत से साठ फीसद तक कम होता है और इसका भी मंडियों में उपज बेचने वाले चालीस फीसद किसान ही फायदा उठा पाते हैं। भंडारण की क्षमता नहीं होने के कारण किसान फसल काटते ही बेच देते हैं, मगर यहां भी सरकार के आयात-निर्यात फैसले चोट करते हैं। भारतीय जूट बोर्ड ने चालू सत्र के लिए फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1515 रुपए प्रति क्विंटल तय किया है। असम के किसान जूट की सबसे बेहतर किस्म तोसा के लिए महज आठ सौ रुपए प्रति क्विंटल मांग रहे हैं, जबकि बिचौलिए तीन सौ रुपए से ज्यादा देने को तैयार नहीं हैं। पत्रकारों को लैपटॉप बांटने वाले मुख्यमंत्री तरुण गोगोई जूट का दाम बढ़ाने के बजाय किसानों पर गोलियां बरसवा रहे हैं।

सरकार के अर्थशास्त्री भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि किसान से उपभोक्ता तक पहुंचते-पहुंचते उपज का दाम चौगुना हो जाता है। महंगाई की जड़ पर प्रहार करने के बजाय कभी वैश्विक कारणों का हवाला दिया जाता है तो कभी बहुब्रांड रिटेल की तान छेड़ी जाती है। बीते दो साल से बंपर उत्पादन के साथ देश की खेती-किसानी बेहद नाजुक मोड़ पर खड़ी है। अगर किसानों को उपज की सही कीमत नहीं दी गई तो खाद्य तेलों की माफिक देश अनाज का आयातक भी बन सकता है। मरते किसानों की परवाह सरकार न भी करे, लेकिन खाद्य वस्तुओं की महंगाई यूपीए सरकार की चूलें हिला सकती है। सरकार अगर महंगाई से निजात दिलाना चाहती है तो आयात-निर्यात का यह खेल बंद कर किसानों को कृषि उपकरण, बीज, खाद आदि कम दरों पर मुहैया कराने होंगे।
 

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