मेवाजी आप तो बरसो

जल अगर जीवन देता है, तो ले भी लेता है अपनी सर्जना को बिगड़ैल होते देखता है, तो बने-बनाए सुंदर चित्र को लीप-पोत देता है। इतना होने पर भी बरसात हमारे आकाश के तट पर है, हमें उसकी प्रतीक्षा है- उसकी बाढ़ें हमें मंजूर हैं, पर उसका रूठना मंजूर नहीं है।शिशिर, वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत-सब ऋतुएं मिलकर सृष्टि-चक्र बनाती हैं। इनमें से एक भी न हो या बांकी-तिरछी हो, तो चक्र ठीक से चल नहीं सकता। लेकिन हमारी आधुनिक सभ्यता की त्रासदी यह है कि उसने इस लय को तोड़ा है, राग को बेसुरा बनाया है, इससे प्रकृति को कितनी ग्लानि हुई होगी कि उसे विनाश की भूमिका में उतरना पड़ रहा है। इस संकेत के बिना मैं वर्षा ऋतु पर बात करना भी गुनाह मानता हूं....।

सभी ऋतुओं में वर्षा भी है, परंतु अंतर यह है कि इस चक्र का पहला आरा वही है। हमारे आदि ग्रंथों से लगाकर विज्ञान और हमारा जीवनानुभव यही कहता है कि जल ‘आदि जन्मा’ है। ऋग्वेद में तो एक ‘अप् सूक्त ही है। कहा गया है- ‘आपो ज्योतिमयं जगत्’ जल ज्योति है-संसार को वही तो प्रकाशित करता है। बच्चे गर्भ-बीज से लगाकर भ्रूण का निर्माण गर्भ-जल में ही होता है। आदि-अंत की पूरी कथा ‘आपोमय’ है।

प्रारंभ में मनुष्य प्रकृतिमय था, उसके भीतर, उसके बाहर सर्वत्र प्रकृति थी। पर जैसे-जैसे उसका नगरीकरण होता गया, वैसे-वैसे उसके ऋतु-संवदेन, ऋतु-संबंध कमजोर होते गए और आज तो वे टूटने की कगार पर हैं, ऐसे विषम समय में आपको वर्षा ऋतु की याद आई, तो लगा कि कहीं इन संवदेनों को बचाने की कोई चाह धड़क रही है-ऐसे ही तो मृत्यु के तट पर पहुंच-पहुंचकर जीवन लौटता रहा है।

कालिदास के ‘मेघदूत’ को लोग प्रेम-काव्य कहते हैंं, पर वास्तव में वह ‘प्रकृति-काव्य’ है। वह धरती से अंतरिक्ष का एक गतिशील वृत्त-चित्र है।आज भले ही साहित्य की कलम ऋतुओं से अपरिचित हो गई हो, परंतु साहित्य और कलाएं सदा ऋतुजीवी रही हैं। नृत्य में ऋतु, गीत में ऋतु, चित्र-मूर्ति में ऋतु, उत्सव में, प्रार्थना में, मिथक में, प्रतीक में, मुहावरों में और काव्य की पूरी सत्ता में ऋतुओं की धड़कन साफ सुनी जा सकती है। वह सदा उसकी संगिनी रही है, उसका बल रही है। कबीर कितने विश्वास से कहते हैं-

काहे री नलिनी तू कुम्हिलानी तेरी नाल सरोवर पानी।
जल में उतपति जल में बास, जल में नलिनी तोर निवास।


नलिनी तुम क्यों नाहक कुम्हलाई जाती हो, तुम्हारी नाल सरोवर के पानी में है, तुम्हारी उत्पत्ति और निवास ही जल में है, फिर कुम्हलाने की वजह? इस पद के दार्शनिक अर्थ में न जाकर हम सिर्फ लौकिक अर्थ लें, तो जल प्रसन्ता, स्वस्थता और जीवन का आश्वासन है-यही तो कबीर कहते हैं।

महाकवि कालिदास की शकुंतला को जब पिता कण्व ऋषि ससुराल के लिए विदा कर रहे हैं, तब वे अपने से ज्यादा उसके नाते-रिश्तेदार पेड़ों-लताओं को मानते हैं, वे उनसे अनुरोध करते हैं कि आप शकुंतला को जाने की अनुमति दीजिए, शकुंतला पिता का घर छोड़कर पति गृह जा रही है। इस अनुरोध में राग का कैसा उत्कर्ष है-

पातुं न प्रथमं व्यवस्यति जलं युष्माष्वपीतेषु या।
ना दत्ते प्रिय मंडनापि भवतां स्नेहेन या पल्लवम्।।
आद्येवः कुसुम प्रसूति समये यस्या भवत्युत्सवः।
सेयं याति शकुंतला पतिगृहम् सर्वेरनुज्ञायताम्।।


हे वृक्षों, लताओं, जो शकुंतला तुम्हें पानी पिलाए बिना, यानी सींचे बिना जल नहीं पीती थी, जो पल्लवों-पुष्पों से श्रृंगार करने की शौकीन होते हुए भी तुम्हारे पल्लव, पुष्प नहीं तोड़ती थी, जब पहली बार लता, पुष्प को जन्म देती थी, तो वह नए शिशु के आगमन में उत्सव मनाती थी-वही, वही शकुंतला आज पतिगृह जा रही है। कृपया आप सब उसे अनुमति दें, शुभकामनाएं दें। बेटी को विदा करते समय हम माता-पिता, परिवारजनों को मन कड़ा तो करना ही पड़ता है न! मनुष्य और प्रकृति का ऐसा संबंध असल में आकाश-जैसे सरल और उदार मन में ही होता है। ऐसा प्राकृतिक जीवन आज के सिंथेटिक युग के मनुष्य और लेखक को कहां मिला हुआ है?

जल अगर जीवन देता है, तो ले भी लेता है अपनी सर्जना को बिगड़ैल होते देखता है, तो बने-बनाए सुंदर चित्र को लीप-पोत देता है।

‘बरसात’ को एक सपाट ऋतु की तरह देखते हुए हम लगभग भूल ही गए हैं कि आषाढ़, श्रावण और भाद्रपद की बरसात के शेड्स अलग होते हैं, क्योंकि हमारे प्रकृति से जीवित संबंध नहीं रहे।‘कामायनी’ में जयशंकर प्रसाद ने यही तो कहा है कि जब देवजाति घोर विलासी, स्वार्थ केंद्रित, अहंकारी और क्रूर हो चुकी थी, सुधार की कोई गुंजाइश नहीं थी, तो जीवनदायी वर्षा घोर विकराल मेघों के रूप में उन पर फट पड़ी थी, उसने पृथ्वी, तेज वायु, आकाश को घंघोल दिया था-जल प्रलय में ‘वे भी डूबा उनका विभव बन गया पारावार’ वे और उनका सारा वैभव ताम-झाम, सारी कंपनियां, सारे बैंक बेलेंस, सारे बांध, सारी धन-दौलत सब पानी में बह गए। प्रलय का यह नजारा हमेशा सृष्टि के उसी अतिचारी दौर में आता है जब चंद ‘देवों’ का साम्राज्य सारी प्रजा का काल बन जाता है। आज भी प्रकृति अपनी सारी विषमता, विद्रूपता के साथ फिर से सृष्टि के मुहाने पर खड़ी है, आकाश से जल बरसता है तो लावा भी बरसता है और वह अपना ही एक चित्र मिटाकर नया चित्र बनाती है। क्या प्रकृति फिर से यह सोच रही है?

रचनाकर ने, लगता है अब प्रकृति से प्यार करना बंद कर दिया है, वह उसे आधुनिक संवेदना का विषय नहीं मानता, पहले कोई रचना, कोई भी कला, कोई भी उत्सव बिना प्रकृति के संभव नहीं होता था, क्योंकि प्रकृति ही तो हमें सारी कलाएं और साहित्य को जीना सिखाती हैं, हमें जीवनार्थ सिखाती है।

कालिदास के ‘मेघदूत’ को लोग प्रेम-काव्य कहते हैं, पर वास्तव में वह ‘प्रकृति-काव्य’ है। वह धरती से अंतरिक्ष का एक गतिशील वृत्त-चित्र है, एक मूवी है, इससे न धरती का कुछ छूटता है, न आकाश का! सर्वत्र प्रेम-लीला चल रही है- प्रेम आकाश-जैसा हो गया है, प्रेम, धरती-जैसा हो गया है, तभी अगर आकाश में बलाका की पंक्तियां उड़ती हैं, तो धरती पर कृषक-बालाएं आंख पर हाथ का हैट बनाकर बादल को बड़ी आस से निहारती या पुकारती हैं। यह सब क्या प्रेम व्यापार नहीं है? हमने अपनी दुनिया को कितना छोटा कर लिया है! आखिर हम इस विराट् सृष्टि-चक्र, ऋतु-चक्र और जीवन-चक्र को कितना वर्गीकृत करेंगे? कितना खंडित करेंगे?

जब हम गर्मी-सर्दी, बरसात का अनुमान अपने कमरों में लगे वैज्ञानिक उपकरणों से लगाते हैं, तब क्यों भूल जाते हैं कि बादल और नदियां हमारे सजीव सहचर हैं, हमारे आत्मीय!जब हम गर्मी-सर्दी, बरसात का अनुमान अपने कमरों में लगे वैज्ञानिक उपकरणों से लगाते हैं, तब क्यों भूल जाते हैं कि बादल और नदियां हमारे सजीव सहचर हैं, हमारे आत्मीय! मालवा का एक लोकगीत है जिसमें मेघ को बड़े ही आदर और प्यार से बुलाया जाता है। इस पंक्ति में कितनी मनुहार है- ‘मेवाजी आप तो बरसो ने घरती नीबजे।’ मेघजी, आप तो अब बरस ही जाओ, ताकि धरती में पैदावार हो, उसकी कोख हरी हो जाए! इसी गीत में पानी के देवता राजा इंदर (इंद्र) को कैसा उलाहना दिया गया है कि-हे इंदर राजा, आपका धरती से अबोला क्यों है? मियां-बीवी में तकरार तो होती ही रहती है, पर ऐसी! प्रकृति के इस विराट् फलक के भीतर जिस प्रेम क्रीड़ा की बात कही गई थी, वह कितने रूपों में कितनी मनोरमता से है जो अपने प्राणों को भी भिगोती है और धरती-आकाश को भी उसमें शामिल कर लेती है।

इधर लेखकों ने वर्षा या शरद में रमना बंद कर दिया था, मानो ऋतुएं कालिदास या पंत के साथ चली गई हों। वह बाढ़, आकाल, प्राकृतिक दुर्घटना पर लिखता रहता है। ये सब कहां से, क्यों होते हैं- यह भी पता है? इनका जन्म हमारे रूखे, कृत्रिम मनों और कृत्रिम जीवनों से हुआ है। वियोग और विद्रोह की साकार मूरत मीरा को जब अपने सांवरिया की याद करनी होती थी, तो उसे प्रकृति पहले याद आती थी, क्योंकि वही प्रिय की ‘भनक’ देती है-

‘बरसां री बदरिया सावन की/सावन की मनभावना की/सावण मां उमग्यो म्हारो मण री/भणक सुनी हरि आवण की।’

नरेश मेहता के राम अपने संशय के दुर्दांत क्षणों में भाद्रपदी वृष्टि को बुलाते हैं-

ओ भाद्रपदी वृष्टि/आद्यंत भीग जाने दो
संभव है/तुम्हारे इन देव जलों से
यह संशयाग्नि शांत हो सके/संभव है!


शुष्क यर्थाथवादी सोचेंगे कि मन में लगी संदेह की आग भला पानी से कैसे बुझेगी? उसे तो यह भी पता नहीं कि कालिदास का यक्ष ‘आषाढ़’ के मेघ को देखकर क्यों प्रेयसी की याद करता है, मीरा सांवण में प्रिय के आने की भणक क्यों सुनती है और नरेश मेहता भाद्रपद (भादवा) के मेघ में राम को क्यों नहलाते हैं? ‘बरसात’ को एक सपाट ऋतु की तरह देखते हुए हम लगभग भूल ही गए हैं कि आषाढ़, श्रावण और भाद्रपद की बरसात के शेड्स अलग होते हैं, क्योंकि हमारे प्रकृति से जीवित संबंध नहीं रहे।

हर मौसम का कैसे शोषण करें या उससे कैसे बचें, इसी जुगत में हम लगे रहते हैं-बरसात का मतलब हमारे लिए काम पर कैसे जाना, सीवेज फट जाना, पानी की निकासी न होना, हमारी कार का पानी में फंस जाना, ट्रैफिक जाम हो जाना वगैरह रह गया है। हमें एक पल को भी अपनी 80 प्रतिशत खेतिहर जनता का खयाल आता है? धरती की फटी बिवाइयां भर जाने का खयाल, हरियाली, नदी के उल्लास का खयाल और एक बड़ी सृष्टि का जीवन-चक्र चल पड़ने का उल्लास हमें महसूस होता है, जबकि उसका वास्तविक लाभ हम परजीवियों को ही होना है।

बरसात हमारे आकाश के तट पर है, हमें उसकी प्रतीक्षा है-उसकी बाढ़ें हमें मंजूर हैं, पर उसका रूठना मंजूर नहीं है। हम ट्रैफिक जाम में फंसे रहेंगे, पर करोड़ों जनता की मुक्ति, तृप्ति के आगे वह हमें मुबारक!

(लेखक प्रसिद्ध साहित्यकार हैं)

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