मगध की जल समस्या

8 Mar 2010
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क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति के अनुरूप जल व्यवस्था मगध क्षेत्र में लम्बे समय तक कायम रही। किन्तु अनेक कारकों के प्रभाववश अब यहाँ की जल-व्यवस्था काफी हद तक छिन्न-भिन्न हो गई है।

इनमें से एक महत्त्वपूर्ण कारक राजनीतिक परिवर्तन के फलस्वरूप भूमि संबंधों तथा सामाजिक स्थिति में आया परिवर्तन है। स्वतंत्रता के पूर्व जमीन से लगान वसूली की जिम्मेवारी जमींदारों की थी। जमीन का बड़ा हिस्सा भी उन्हीं के अधिकार में था। फलस्वरूप सुनिश्चित फसल के लिए सिंचाई हेतु जल की व्यवस्था भी उन्हीं की जिम्मेवारी थी। वे यह काम अपनी रैयतों से प्रायः बलपूर्वक करवाते थे, फिर भी पहलकदमी तो उनके हाथ में रहती ही थी लेकिन आजादी, और खासकर जमींदारी प्रथा की समाप्ति के बाद जनता ने इसे सरकार की जिम्मेवारी मान ली, जिसके कर्मचारियों-पदाधिकारियों की रुचि इस काम में अपवादस्वरूप ही रहती है। अनेक स्थानों पर बाहुबलियों ने आहर-तालाब की जमीन को हड़प लिया। जल के मुद्दे पर ऐसी चिंता नहीं उभरी कि पानी हर आदमी के लिए सुलभ हो। पानी की व्यवस्था के प्रयास नितांत सीमित स्तर पर हुए।

वैज्ञानिक प्रगति जल व्यवस्था के विनाश का दूसरा महत्त्वपूर्ण कारक है। स्वतंत्रता प्राप्ति के अनेक वर्षो बाद तक भी इस क्षेत्र में भूमिगत जल का उपयोग कृषि कार्य में अपवादस्वरूप ही हो पाता था। रहट के उपयोग के साथ (पशु शक्ति के उपयोग के कारण) इसमें थोड़ी वृद्धि तो हुई लेकिन अपनी सीमित क्षमता के कारण इसने जलसंकट पैदा नहीं किया। जलसंकट में उल्लेखनीय वृद्धि बिजली तथा डीजल-पेट्रोल चालित पम्पसेटों के कारण हुई। नलकूपों के निर्माण-विकास ने इसकी गति को काफी तेज कर दिया। अत्यधिक बोरिंग के कारण पूरे मगध क्षेत्र में भूगर्भीय जल का स्तर तेजी से गिरा है। इससे भूगर्भीय जल का दोहन क्रमशः अधिक महँगा होता गया है और अनेक क्षेत्रों में तो भीषण पेयजल की कमी एवं सुखाड़ का संकट उपस्थित हो गया है।

वनों, बागीचों तथा वृक्षों के अनियंत्रित कटाव ने भी जल संकट में काफी वृद्धि की। इसके फलस्वरूप मिट्टी का कटाव बढ़ा, वर्षा जल के रुकने तथा भूगर्भ तक पहुँचने की क्रिया बाधित हुई और बाढ़/जलजमाव को बढ़ावा मिला।

अव्यवस्थित शहरीकरण तथा गैरजिम्मेवार औद्योगीकरण ने जलसंकट में दोतरफा वृद्धि की है। एक तो जल के प्रयोग में फिजूलखर्ची के फलस्वरूप भूगर्भीय एवं अन्य जलस्रोतों का क्षमता से अधिक दोहन हुआ, दूसरे जल-मल निकासी की अनियंत्रित एवं अपर्याप्त व्यवस्था के चलते प्रदूषण भयानक ढंग से बढ़ा। रासायनिक दवाओं के अधिक प्रयोग एवं गोबर जैसे मिट्टी कणों के प्राकृतिक संयोजकों के प्रयोग की कमी से मिट्टी के कणों के बीच जल धारण की क्षमता तेजी से घट रही है।

जलस्रोतों के प्रदूषण में वृद्धि कृषि क्षेत्र में रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों के इस्तेमाल के कारण भी हुई है। अनेक प्रदूषणकारी तत्वों का घरों में भी उपयोग बढ़ा है। इनमें डिटर्जेट का प्रमुख स्थान है जो साबुन-सोडा से बहुत घातक है।

अनेक स्थानों का भूगर्भीय जल प्राकृतिक रूप से ही, फ्लोरीन, आर्सेनिक आदि जहरीले पदार्थों से युक्त है। हैंडपंपों तथा नलकूपों द्वारा इसके कृषि, पेयजल तथा घरेलू कार्या के लिए उपयोग ने स्थानीय आबादी में अनेक भयानक रोगों को जन्म दिया है।

गंगा के किनारे के भूगर्भ जलस्रोतों (जलमृत) में लोहा एवं आर्सेनिक (शंखिया) की मात्रा अधिक पाई जाती है।

उपरोक्त तमाम परिस्थतियों के फलस्वरूप मगध क्षेत्र में जल संबंधी अव्यवस्था और उनके दुष्परिणाम जनता को गहरे संकट की ओर ले जा रहे हैं। यह स्थिति क्षेत्र की जनता के हित में एक उपयुक्त जलनीति की माँग करती है।

समस्त जलस्रोतों को तीन भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है - आकाशीय अर्थात वर्षा जल, भूपृष्ठीय जल तथा भूगर्भीय जल। इनमें आकाशीय जल सर्वाधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि शेष दो प्रकार के जल का प्राथमिक स्रोत यही है।

चूँकि आकाशीय जल की स्थिति में हस्तक्षेप करना (यथाः बारिश रोकना या बरसाना) किसी व्यक्ति अथवा व्यक्ति समूह के लिए आम तौर पर संभव नहीं है। इसीलिए इसको लेकर व्यक्ति अथवा व्यक्तिसमूहों में तनाव भी आम तौर पर नहीं होता है। तनाव होता है, शेष दो स्रोतों को लेकर, जिनपर व्यक्ति अथवा व्यक्ति समूहों के जरिए काफी हद तक नियंत्रण संभव है।

एक ही रंग एवं स्वाद वाला वर्षा जल जब पृथ्वी के संपर्क में आता है तो उसके संपर्क से वह उसी के रंग, स्वाद तथा स्वभाव वाला हो जाता है (वराहमिहिर)। इसी के साथ शुरू होता है जल की क्षेत्रीय पहचान तथा उसके संचय, भंडारण तथा प्रवाह नियंत्रण के साथ-साथ उस पर वर्चस्व स्थापित करने का प्रयास ।

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