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महासागर

महासागर वह समग्र लवण जलराशि है, जो पृथ्वी के लगभग तीन चौथाई पृष्ठ पर फैला हुआ है। महासागर के छोटे छोटे भागों को समुद्र तथा खाड़ी कहते हैं। सबसे बड़ा समुद्र भूमध्यसागर है, जो 8,13,000 वर्ग मील में फैला हुआ है। संसार में पाँच महासागर हैं, जिनके नाम तथा क्षेत्रफल इस प्रकार हैं : 1. प्रशांत महासागर 6,36,34,000 वर्ग मील, 2. ऐटलैंटिक महासागर 3,13,50,000 वर्ग मील, 3. हिंदमहासागर 2,83,56,000 वर्ग मील, 4. आर्कटिक महासागर 40,00,000 वर्ग मील तथा 5. ऐंटार्कटिक महासागर 57,31,000 वर्ग मील।

महासागरों में प्रशांत महासागर सबसे बड़ा है। यह अमरीका से ऑस्ट्रलिया और एशिया तक फैला है। ऐटलैंटिक महासागर यूरोप और उत्तरी अमरीका के बीच तथा दक्षिणी अमरीका और अफ्रीका के बीच फैला है। विषुवत्‌ वृत्त द्वारा यह दो भागों, उत्तरी और दक्षिणी ऐंटलैंटिक महासागरों में बँटा हुआ है। हिंद महासागर एशिया के दक्षिण में अफ्रीका और आस्ट्रेलिया के बीच फैला हुआ है। ऐंटार्कटिक महासागर ऐंटार्कटिक महाद्वीप के चारों ओर फैला हुआ है। अनेक भूगोलविद् ऐंटार्कटिक महासागर को अलग महासागर नहीं मानते, वरन्‌ इसे प्रशांत, हिंद और ऐंटलैंटिक महासागर का ही अंग मानते हैं। आर्कटिक महासागर उत्तर में स्थित है।

महासागर की गहराई-


महासागरों में प्रशांत महासागर सबसे गहरा है। इसकी औसत गहराई 14,000 फुट से अधिक है। ऐटलैंटिक और हिंद महासागर प्रशांत महासागर से कम और प्राय: बराबर गहरे है।

महासागर का तल-


महासागरों में कहीं कहीं गड्ढे पाए जाते हैं। एक ऐसा ही बड़ा गड्ढा जापान और फिलिपीन द्वीप समूह के निकट है। यहाँ का मिंडानाओं (Mindanao) गड्ढा सागरतल से 35,400 फुट गहरा है। यह गहराई विद्युत्‌ तरंगों की सहायता से ज्ञात की जाती है। अधिकांश तल हलका ढालू है। कहीं कहीं खड़ी ढालवाली पर्वतश्रृंखलाएँ तथा गह्वर (chasm) हैं। डेंड सी भी इसी तरह का स्थल का एक गह्वर है। इसका जलतल भूमध्य सागर के जलतल से 1,290 फुट नीचा है। कभी कभी पर्वतों की चोटियाँ सागर तल के ऊपर आ जाती हैं, तो उनसे द्वीपों का निर्माण होता है, जैसे कि जापान द्वीपसमूह। सागरतली पर सिंधुपंक (ooze) जमा रहता है। उथले भागों को महाद्वीपीय शेल्फ (shelf) कहते हैं।

महासागर का जल-


महासागर का जल खारा होता है, अत: यह पीने के काम में नहीं आ सकता। इसके जल में सोडियम, पोटैशियम, कैल्सियम तथा मैग्नीशियम के लवण न्यूनाधिक मात्रा में मिले रहते हैं। स्थल से नदियों द्वारा आनेवाले जल में अनेक प्रकार के खनिज लवण घुले रहते हैं। सागर से वाष्प बनकर जल उड़ता रहता है, किंतु लवण सागर में ही रह जाते हैं। इस प्रकार लवणों की मात्रा सागरों में बराबर बढ़ती रहती है। प्रति वर्ष नदियों से अनुमानत: 16,00,00,000 टन खनिज लवण सागर में आते हैं। खारेपन की मात्रा स्वच्छ जल के संभरण, हवा तथा समुद्री धाराओं, वाष्पीकरण की मात्रा तथा तीव्रता पर निर्भर करती है। संसार में सबसे अधिक खारापन डेड सी में 237%0 (लवण) है जब कि बॉल्टिक सागर में सिर्फ 15%0 है। लवणों के कारण समुद्र जल का घनत्व अलवण जल के घनत्व से अधिक होता है। अत: समुद्रजल में तैरना सरल होता है। समुद्र में पाए जानेवाले लवण पदार्थों की संख्या प्राय: 49 तक पहुँच गई है। सागर के जल के लवण में प्रमुख लवणों की औसत मात्रा इस प्रकार पाई जाती है :

लवण

प्रति 100 भाग शुष्क लवण में मात्रा

1. सोडियम क्लोराइड

77.6 प्रतिशत

2. मैग्नीशियम क्लोराइड

10.88 ''

3. मैग्नीशियम सल्फेट

4.74 ''

4. कैल्सियम सल्फेट

3.60 ''

5. कैल्सियम कार्बोनेट

3 4 ''

6. पोटैशियम सल्फेट

2.46 ''

7. मैग्नीशियम ब्रोमाइड

0.22 ''



महासागर का रंग-


सागर का जल देखने में नीला होता है। पानी में रहनेवाले धूल के कण सूर्य की किरणों को परावर्तित करते हैं, किंतु सूर्य की किरणों से प्राप्त रंगों में से लाल एवं पीला रंग जल द्वारा अवशोषित हो जाते हैं और शेष बचे रंग हरा, नीला तथा बैंगनी मिलकर जल को नीला बनाते हैं।

गैसें-


वायुमंडल में पाई जानेवाली सभी गैसें सागर के जल में मिली रहती है। सागर के जल में खारेपन की मात्रा के अनुसार ऑक्सीजन और नाइट्रोजन की जल में विलेयता निश्चित होती है। यद्यपि वायुमंडल में ऑक्सीजन तथा नाइट्रोजन का अनुपात 1:3.7 रहता है, तथापि सागर के जल में यह अनुपात 1:1.7 रहता है क्योंकि ऑक्सीजन जल में अधिक विलेय होता है।

ताप-


महासागर का जल भूमध्य रेखा के पास गरम तथा ध्रुवों पर ठंडा होता है। ताप में इस विभिन्नता के कारण सामुद्रिक धाराओं का जन्म होता है। साधारणतया सागरी धरातल का औसत ताप लगभग 17सेंo होता है। विषुवतीय भागों में ताप लगभग 27 सेंo तथा ध्रुवीय भागों में लगभग 4सेंo रहता है। जैसे जैसे हम समुद्र की गहराई में जाते हैं, समुद्र का ताप धीरे धीरे नीचा होता जाता है। यदि तल का ताप 21सेंo हो, तो एक मील गहराई का ताप 20सेंo हो जाता है।

महासागर के कार्य-


विश्व में होनेवाली वर्षा महासागरों पर ही निर्भर है। महासागर कभी सूखता नहीं, क्योंकि इसमें से जितना पानी वाष्प बनकर उड़ता है वह वर्षा द्वारा नदियों में बहकर पुन: सागर में मिल जाता है। इस प्रकार से पानी का एक चक्र बना रहता है। महासागर लहरों तथा ज्वार भाटा से कई प्रकार के कटाव एवं जमाव करता है, जिनसे विशेष प्रकार की भू-आकृतियाँ बनती हैं। लहरों से विभिन्न प्रकार के द्वीप तथा खाड़ियों का निर्माण होता है।

महासागर के प्राणी और वनस्पतियाँ-


महासागर के प्रत्येक भाग तथा गहराई में किसी न किसी प्रकार के जीव जंतु अवश्य पाए जाते हैं। जीवन संबंधी प्रवृत्तियों के दृष्टिकोण से समुद्र के जीव जंतुओं को निम्नलिखित तीन भागों में बाँटा जा सकता है :

1. प्लवक (Plankton)-


महासागर में इनकी अधिकता रहती है। यह जीव स्वयं भ्रमण नहीं करते वरन्‌ लहरों, धाराओं, ज्वार भाटा आदि गतियों के कारण इधर से उधर प्रवाहित होते रहते हैं। इसके अंतर्गत कुछ पौधे भी आते हैं।

2. तरणक (Nekton)-


स्वतंत्र रूप से चलने या तैरनेवाले सभी जीव इसमें आते हैं, जैसे ह्वेल मछलियाँ इत्यादि।

3. नितल जीवसमूह (Benthos)-


इसके अंतर्गत समुद्र की तली पर, अथवा तली के समीप, एक स्थान पर स्थिर रहनेवाले जीव आते हैं। ये सागर के गहरे भागों में मिलते हैं तथा इनके शरीर की बनावट विचित्र एवं आश्चर्यजनक होती है।

इन जीव जंतुओं में प्रवाल जीव अधिक महत्व के हैं (देखें प्रवाल शैल श्रेणी)। इनके अलावा सैकड़ों प्रकार के शैवाल, पेड़, पौधे एवं अन्य वनस्पतियाँ भी समुद्र में उगती हैं। कुछ वनस्पतियाँ मछलियों का आहार बनती हैं और कुछ से उपयोगी पदार्थ तैयार कर हम अपने काम में लाते हैं। कुछ वनस्पतियाँ मनुष्यों या धरती के अन्य पशुओं द्वारा खाई भी जाती हैं।

महासागरों का इतिहास-


वैज्ञानिकों का विचार है कि सागरी बेसिन, तथा महाद्वीपीय तल, महाद्वीपों की अपेक्षा अधिक भारी चट्टानों से बने होने के कारण नीचे बैठ गए। इन भारी चट्टानों के आंतरिक दबाव के कारण हलकी चट्टानों से बने महाद्वीपीय भाग ऊपर को निकल आए। महाद्वीपों के कटाव द्वारा भूमि सागरतलों में जमा होती है, अत: भार के कारण सागरतल पुन: नीचे की ओर धॅसता है और महाद्वीप ऊपर की ओर उठते हैं। यह क्रिया अत्यंत धीमी होती है। पृथ्वी की आंतरिक तथा बाह्य हलचलों से सागर की तली में भी अंतर आता रहता है। उत्तरी गोलार्ध में महाद्वीपों की तथा दक्षिणी गोलार्ध में महासागरों की प्रधानता, महाद्वीपों तथा महासागरों का त्रिभुजाकार होना, उत्तरी ध्रुव के जल से तथा दक्षिणी ध्रुव के थल से ढँके होने तथा भूतल पर जल और थल विभागों के एक दूसरे से विपरीत दशा में होने से कहा जा सकता है कि सागरों की उत्पत्ति के समय पृथ्वी की दशा उसी प्रकार की थी जैसी एक वृत्त पिंड को चारों ओर से दबाने पर होती है। ऊँचे उठे भाग महाद्वीप तथा नीचे धँसे भाग सागर बन गए।

महासागर का महत्व-


महासागरों के द्वारा यातायात में बड़ी सुविधा होती है। सागर द्वारा सीध मार्ग अपनाकर लक्ष्य स्थान पर शीघ्र पहुँचा जा सकता है। ये सागर मानव भोजन के भंडार हैं। सागरों में मछलियाँ बड़ी संख्या में रहती हैं। इनके पकड़ने का व्यापार आज ज़ोरों से चल रहा है। अधिकांश मछलियाँ खाने के काम आती हैं, पर कुछ से खाद भी तैयार की जाती है। ऐसी खाद में पर्याप्त मात्रा में नाइट्रोजन तथा फॉस्फेट रहता है। कुछ समुद्री घासें भी बड़ी उपयोगी सिद्ध हुई हैं। इनसे आयोडीन तैयार होता है। समुद्र के जल से अनेक लवण भी तैयार होते हैं। इनके अलावा स्पंज, मोती, मछलियों से तेल, मछलियों तथा अन्य जंतुओं से मार्गरीन, शिंशुक से खालें तथा सील से फर प्राप्त होता है।

[ धर्मप्रकाश सक्सेना]

अन्य स्रोतों से:




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