महासागरीय ज्वालामुखियों के अध्ययन भूमण्डलीय तापन की दृष्टि से जलवायु परिवर्तन को समझने में सार्थक साबित हो सकते हैं


इस टामू मस्सीफ महासागरीय ज्वालामुखी पर आज से बीस साल पहले अध्ययन शुरू किये गए थे। अध्ययनों से पता चला है कि पृथ्वी पर क्रिटेशियस युग अर्थात् 14 करोड़ से साढ़े छह करोड़ साल पहले प्रशान्त महासागर में अनेक पठार हुआ करते थे, जो फूट पड़े थे, लेकिन वो तब से दिखाई नहीं दिये थे। भूवैज्ञानिकों का मानना है कि प्रशान्त महासागर में टामू मस्सीफ जैसे और भी महासागरीय ज्वालामुखी हो सकते हैं।

वर्ष 2016 विभिन्न समुद्री जलवायुवीय शोधों जैसे तापमान के नए कीर्तिमान, नए महासागरीय ज्वालामुखी की खोज और साल के अन्त में इंडोनेशिया में आये भूकम्प के कारण अत्यधिक सुर्खियों में रहा। यूएस नेशनल ओशिएनिक एंड एट्मोस्‍फेरिक एडमिनिस्‍ट्रेशन (एनओएए) की रिपोर्ट के अनुसार अफ्रीका, यूरेशिया और दक्षिण अमेरिका में वर्ष 2016 का नवम्बर माह का तापमान पिछले 134 वर्षों में सबसे अधिक दर्ज किया गया।

हालांकि उत्‍तरी अमेरिका, ग्रीनलैंड के कुछ भागों और आस्‍ट्रेलिया में तापमान अपेक्षाकृत कम रहा। संयुक्त राष्ट्र की आइपीसीसी की रिपोर्ट-2013 में कहा गया था कि इस शताब्दी के अन्त तक अंटार्कटिक हिम के पिघलने से समुद्र का जलस्तर पाँच सेंटीमीटर बढ़ेगा। लेकिन हाल के शोधों ने वैज्ञानिक बिरादरी को सोच में डाल दिया है, क्योंकि अब माना जा रहा है कि ध्रुवीय हिम के पिघलने से वर्ष 2100 तक समुद्री जलस्तर लगभग 40 सेंटीमीटर बढ़ जाएगा। वहीं एक अन्य अन्वेषण में वैज्ञानिकों ने विश्व के सबसे बड़े ज्वालामुखी टामू मस्सीफ को प्रशान्त महासागर के नीचे खोज निकालने का दावा किया है, तो दूसरी ओर 5 दिसम्बर 2016 को पूर्वी इंडोनेशिया के तट पर आये 6.0 तीव्रता के जबरदस्त भूकम्प के लिये यह माना जा रहा है कि प्रशान्त महासागर स्थित ‘रिंग ऑफ फायर’ में टेक्टोनिक प्लेटों के टकराने के कारण इंडोनेशिया में इस तरह के लगातार भूकम्प और ज्वालामुखीय गतिविधियाँ होती रहती हैं। ये सभी शोध कहीं-न-कहीं आपस में जुड़े हुए प्रतीत हो रहे हैं, जो इस बात का संकेत देना चाहते हैं कि भूमण्डलीय तापन के लिये उत्तरदायी मानवजनित कारणों के अलावा महासागरीय ज्वालामुखी जैसे प्राकृतिक कारणों की तरफ भी ध्यान दिया जाना उतना ही आवश्यक हो गया है।

नवम्बर, 2016 के नेचर जियोसाइंस जर्नल में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार जापान के 1600 किलोमीटर पूर्व में प्रशान्त महासागर के अन्दर शेट्स्की राइज नामक पठार पर समुद्र के दो किलोमीटर नीचे टामू मस्सीफ नामक ज्वालामुखी को खोजा गया है। यह पृथ्वी के अब तक के सबसे बड़े ज्वालामुखी, हवाई के मौना लोआ ज्वालामुखी से भी बड़ा है। ऐसा दावा किया गया है कि तीन लाख दस हजार वर्ग किलोमीटर का यह महासागरीय ज्वालामुखी मंगल ग्रह के ओलिम्पस मॉन्स ज्वालामुखी के बराबर हो सकता है। ओलिम्पस मॉन्स ज्वालामुखी सम्पूर्ण सौरमंडल में सबसे बड़ा माना जाता है।

इस टामू मस्सीफ महासागरीय ज्वालामुखी पर आज से बीस साल पहले अध्ययन शुरू किये गए थे। अध्ययनों से पता चला है कि पृथ्वी पर क्रिटेशियस युग अर्थात् 14 करोड़ से साढ़े छह करोड़ साल पहले प्रशान्त महासागर में अनेक पठार हुआ करते थे, जो फूट पड़े थे, लेकिन वो तब से दिखाई नहीं दिये थे। भूवैज्ञानिकों का मानना है कि प्रशान्त महासागर में टामू मस्सीफ जैसे और भी महासागरीय ज्वालामुखी हो सकते हैं। इस महासागरीय ज्वालामुखी का नाम टामू मस्सीफ इसलिये रखा गया है क्योंकि यह टेक्सास ए एंड एम यूनिवर्सिटी के पहले अक्षरों को जोड़कर बना टामू शब्द है, वहीं मस्सीफ शब्द फ्रेंच से लिया गया है, जो विशाल पर्वत के लिये प्रयोग किया जाने वाला एक वैज्ञानिक शब्द है।

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि समस्त पृथ्वी स्थल व जल दो भागों में बँटी है। जिस प्रकार इसके स्थलीय भाग पर पर्वत, पठार व मैदान आदि पाये जाते हैं, उसी प्रकार पृथ्वी की विशाल जलराशि को संचित करने वाले महासागरीय भाग के नितल पर भी इसी तरह की विभिन्न आकृतियाँ स्थित हैं। पृथ्वी के पाँचों महासागरों यथा प्रशान्त, अटलांटिक, हिन्द, दक्षिणी एवं आर्कटिक के महासागरीय नितलों अथवा अधस्तलों में महाद्वीपीय मग्नतट, महाद्वीपीय मग्नढाल, गहरे समुद्री मैदान, महासागरीय गर्त, मध्य महासागरीय कटक, प्रवाल द्वीप, समुद्री टीले, अन्तःसमुद्री कन्दराएँ और निमग्न द्वीप पाये जाते हैं। पृथ्वी पर ज्वालामुखियों का अस्तित्व महासागरों में भी है। अधिकतर समुद्री टीलों तथा निमग्न द्वीपों का निर्माण वास्तव में महासागरीय ज्वालामुखीय प्रक्रिया के परिणामस्वरूप ही होता है।

पृथ्वी पर अनेक ज्वालामुखी स्थलीय भाग पर फूटते हैं और आसपास की भूमि से ऊपर की ओर उठते हुए एक ऊँची सी स्थलाकृति बनाते हैं। परन्तु बहुत से ऐसे भी ज्वालामुखी होते हैं, जो महासागर के तल पर फूटते हैं, इनको महासागरीय ज्वालामुखी या अन्तःसमुद्री ज्वालामुखी कहते हैं। ये महासागरीय ज्वालामुखी समुद्र के अन्दर से ऊपर उठते हुए समुद्र सतह से निकलकर अन्ततः द्वीप के रूप में विकसित हो सकते हैं। अभी तक कुल 5000 से अधिक सक्रिय अन्तःसमुद्री ज्वालामुखियों की पहचान की जा चुकी है। पृथ्वी पर प्रतिवर्ष सभी ज्वालामुखियों से निकलने वाले कुल लावा में से 75 प्रतिशत से अधिक इन्हीं महासागरीय ज्वालामुखियों से निकलता है।

अधिकांश महासागरीय ज्वालामुखी लगभग 80000 किलोमीटर की लम्बाई में फैले मध्य महासागरीय कटकों पर पाये जाते हैं, जहाँ पृथ्वी की टेक्टोनिक प्लेटें एक दूसरे से दूर जा रही हैं और नई भूपर्पटी बनती जा रही हैं। पृथ्वी पर होने वाली ज्वालामुखी तथा ऊष्माह्रास की नब्बे प्रतिशत गतिविधियाँ मध्य महासागरीय कटक पर होती हैं। अधिकांश अन्तःसमुद्री ज्वालामुखी गहरे समुद्र में पाये जाते हैं, इसलिये इनका अध्ययन कर पाना कठिन होता हैं। हालांकि उथले समुद्र वाले ज्वालामुखी के अध्ययन किये जा रहे हैं।

अन्तःसमुद्री महासागरीय ज्वालामुखियों की प्रकृति स्थलीय ज्वालामुखियों से भिन्न होती है। मध्य महासागरीय कटकों में बेसाल्टिक लावा बड़ी मात्रा में किसी भी एक स्थान पर नहीं फूटता है, वह कटकों के साथ समुद्र तल पर ज्यादातर दरारों से निकलता है, जिससे कोई एक बड़ा ज्वालामुखी नहीं बन पाता है। 2009 में, मध्य व दक्षिणी प्रशान्त महासागर में स्थित पॉलीनेशियाई देश टोंगा की राजधानी नुकुआलोफाके समुद्री तट से लगभग 63 किमी दूर समुद्र में ज्वालामुखी फटने से धुएँ का एक बड़ा सागुबार उठा था। इससे यह तथ्य सामने आया कि समुद्री ज्वालामुखी भी विस्फोट के साथ फूटते हैं और इनके विस्फोटों के बीच कुछ सप्ताह से लेकर एक लाख वर्ष तक का समय हो सकता है।

ओरेगन के केनन समुद्र तट के पश्चिम में लगभग 480 किलोमीटर दूर जुआन डि फूका कटक पर स्थित एक्सियल समुद्री टीले पर ओरेगन स्टेट यूनिवर्सिटी, एनओएए पैसिफिक मरीन एनवायरनमेंटल लेबोरेटरी एवं यूनिवर्सिटी ऑफ नार्थ कैरोलिना के वैज्ञानिकों द्वारा किये गए अध्ययनों से बहुत से रोचक तथ्य सामने आये हैं। यह पता चला है कि एक्सियल समुद्री टीला पूर्वोत्तर प्रशान्त महासागर में सबसे सक्रिय महासागरीय ज्वालामुखी है, जो हाल ही में कम-से-कम तीन सन 1998, 2011, और 2015 में फूट चुका है।

सामान्यत: समुद्र में अत्यधिक मात्रा में जल होने के कारण ज्वालामुखी से निकलने वाला लावा तुरन्त ही ठंडा होकर ज्वालामुखी कांच और तकियानुमा संरचनाओं का निर्माण करता है। 2000 मीटर से अधिक गहरे समुद्रों में अत्यधिक जलराशि के दबाव के कारण ज्वालामुखी के फटने पर जल उबलता नहीं है और वहाँ एक तरह का तरल पदार्थ बनता है। कभी-कभी ज्वालामुखी उद्भेदन में जलतापीय चिमनियाँ सल्फर का काले रंग का धुआँ निकालती हैं, जिसे ब्लैक स्मोकर्स कहते हैं।

लानीना अलनीनो की विपरीत स्थिति होती है। इस परिस्थिति में मध्य तथा पश्चिमी प्रशान्त महासागर में उपोष्णकटिबन्धीय उच्च वायुभार पट्टी का सामान्य से बहुत अधिक प्रबल होना है। वैज्ञानिकों का अनुमान था कि 2015 में लगभग 1 डिग्री सेल्सियस तापमान बिना मानव-जनित जलवायु परिवर्तन के बढ़ा होगा। लेकिन आँकड़े दर्शाते हैं कि पिछले एक साल में मानव-जनित तापमान में कोई वृद्धि नहीं हुई है तो ऐसे में वर्ष 2016 के लिये यह मानना होगा कि अलनीनो के कारण ही वर्ष 2016 अब तक का सबसे गर्म साल रहा है।

महासागरीय ज्वालामुखी समय के साथ जल के अन्दर बढ़ते जाते हैं और अन्ततः समुद्री जल की सतह से बाहर निकलकर द्वीपों का निर्माण करते हैं। इसका सबसे अच्छा उदाहरण हवाई द्वीप है। वर्तमान में इसी तरह से लोइही नामक एक नए द्वीप का निर्माण हवाई के दक्षिण पूर्वी तट पर समुद्र में लगभग 48 किमी पर हो रहा है, जो कि सेंट हेलेंस पर्वत से बड़ा है और कुछ लाख सालों में समुद्र सतह से बाहर आ जाएगा।

महासागरीय ज्वालामुखियों के अध्ययन दर्शाते हैं कि ज्वालामुखियों के फटने से पहले उस क्षेत्र में भूकम्प आने शुरू हो जाते हैं। इन भूकम्पों की आवृत्ति 500 से बढ़कर 2000 भूकम्प प्रतिदिन तक पहुँच जाती है और ज्वालामुखी उद्भेदन के दौरान भूकम्पों की आवृत्ति 600 भूकम्प प्रति घंटे तक हो जाती है। उथले समुद्रों में अन्तः समुद्री ज्वालामुखियों के फटने से भूकम्प के साथ-साथ सूनामी का खतरा भी बढ़ जाता है। जैसे-जैसे ज्वालामुखी फटने की ओर बढ़ता है, तब होने वाले कम्पनों से शक्तिशाली ज्वार-भाटा भी उत्पन्न होने लगते हैं।

समुद्र द्वारा पृथ्वी की सतह की अपेक्षा दोगुनी दर से सूर्य की किरणों का अवशोषण किया जाता है। समुद्री तरंगों के माध्यम से सम्पूर्ण पृथ्वी पर काफी बड़ी मात्रा में ऊष्मा का प्रसार होता है। इस ऊष्मीय प्रसार में महासागरीय ज्वालामुखियों की भी अपनी भूमिका होती है, क्योंकि पृथ्वी का मौसम निर्धारित करने वाले कारकों में महासागर प्रमुख हैं। समुद्री जल की लवणता और विशिष्ट ऊष्माधारिता का गुण पृथ्वी के मौसम को प्रभावित करता है।

पृथ्वी की समस्त ऊष्मा में जल की ऊष्मा का विशेष महत्त्व है। अधिक विशिष्ट ऊष्मा के कारण समुद्री जल दिन में सूर्य की ऊर्जा का बहुत बड़ा भाग स्वयं में धारण कर लेता है। इस प्रकार अधिक विशिष्ट ऊष्मा के कारण समुद्र ऊष्मा का भण्डारक बन जाता है जिसके कारण समस्त विश्व में मौसमीय सन्तुलन बना रहता है।

मौसम के सन्तुलन में समुद्री जल की लवणता का भी अपना विशिष्ट स्थान है। हाल ही में कुछ वैज्ञानिकों ने आर्कटिक महासागरीय ज्वालामुखियों पर किये गए अध्ययनों में पाया है कि गहरे समुद्र में गेकल समुद्री कटक के ठीक ऊपर उच्च तापमान और कम लवणता का एक क्षेत्र बन गया है, जिससे बहुत बड़ी मात्रा में पृथ्वी की आन्तरिक ऊष्मा का प्रवाह होने से आर्कटिक हिम चादरें पिघल रही हैं। गेकल समुद्री कटक ग्रीनलैंड के उत्तरी सिरे से साइबेरिया तक आर्कटिक महासागर के नीचे 1,800 किलोमीटर में फैली महासागरीय ज्वालामुखियों की एक विशाल शृंखला है।

सामान्य तौर पर पृथ्वी पर तापमान बढ़ने से बर्फ पिघलती है, जिससे पृथ्वी के स्थल भागों पर दबाव कम होने लगता है, फलस्वरूप स्थलीय ज्वालामुखियों की सक्रियता बढ़ जाती है। ठीक इसके विपरीत जब पृथ्वी ठंडी होने लगती है, तब बर्फ जमना शुरू हो जाती है, बहुत बड़ी जलराशि हिमनदों में सीमित हो जाती है और समुद्रस्तर नीचा हो जाता है, परिणामस्वरूप महासागरीय ज्वालामुखियों पर दबाव कम हो जाता है और उनके फटने की सम्भावना बढ़ जाती है।

वैज्ञानिकों द्वारा प्रशान्त, अटलांटिक और आर्कटिक महासागरों के समुद्री कटकों पर किये गए भूकम्पीय अध्ययनों से इस बात की पुष्टि हुई है कि पृथ्वी पर हिमयुग के दौरान जब वह ठंडी हुई थी, तब महासागरीय ज्वालामुखियों की सक्रियता बढ़ गई थी और अधिक महासागरीय विस्फोट हुए थे। इन महासागरीय ज्वालामुखियों के कारण पृथ्वी की आन्तरिक ऊष्मा बाहर आने लगती है।

अभी तक अधिकांश वैज्ञानिकों का मानना रहा है कि ध्रुवीय हिम चादर के पिघलने के लिये मानवजनित गतिविधियाँ ही उत्तरदायी हैं। परन्तु आर्कटिक क्षेत्र में महासागरीय ज्वालामुखियों के आँकड़ों ने ध्रुवीय हिम पिघलाव के कारणों के लिये एक नई दिशा में सोचने पर मजबूर कर दिया है।

हालांकि जलवायु वैज्ञानिकों द्वारा पिछले दो दशकों में मानवजनित कार्बन डाइऑक्साइड के कारण हुए भूमण्डलीय तापन से ध्रुवीय हिमचादरों को ऊँची दर से पिघलने को प्रस्तुत किया है, जो पूरी तरह सिद्ध भी होता है। लेकिन अन्य प्राकृतिक कारणों जैसे पृथ्वी की कक्षा में बदलाव, गहरी महासागरीय धाराओं में दीर्घावधिक चक्रीय परिवर्तन और सबसे महत्त्वपूर्ण भूऊष्मा व उससे प्रेरित गर्मी का गहरे समुद्र में महासागरीय ज्वालामुखी द्वारा बाहर निकलना है। अतः समुद्री बर्फ के पिघलने के लिये महासागरीय ज्वालामुखी की भूमिका को कम नहीं आँका जा सकता है।

महासागरीय ज्वालामुखी अलनीनो व लानीना जैसी परिस्थितियों की उत्पत्ति, समुद्री हिम के विस्तार और उसकी मोटाई, बड़ी मात्रा में मीथेन उत्सर्जन तथा भूमण्डलीय तापन चक्र को भी प्रभावित करते हैं। अनेक भूगर्भवेत्ताओं ने माना है कि अलनीनो की उत्पत्ति पूर्वी प्रशान्त उभार में ज्वालामुखी उद्गार के कारण होती है। यह महासागरीय नितल के विस्तार वाला क्षेत्र है, जो अलनीनो का कारण बनता है। वहीं कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि भूमण्डलीय तापन और ज्वालामुखी उद्गार अलनीनो की उत्पत्ति का कारण हैं।

लानीना अलनीनो की विपरीत स्थिति होती है। इस परिस्थिति में मध्य तथा पश्चिमी प्रशान्त महासागर में उपोष्णकटिबन्धीय उच्च वायुभार पट्टी का सामान्य से बहुत अधिक प्रबल होना है। वैज्ञानिकों का अनुमान था कि 2015 में लगभग 1 डिग्री सेल्सियस तापमान बिना मानव-जनित जलवायु परिवर्तन के बढ़ा होगा। लेकिन आँकड़े दर्शाते हैं कि पिछले एक साल में मानव-जनित तापमान में कोई वृद्धि नहीं हुई है तो ऐसे में वर्ष 2016 के लिये यह मानना होगा कि अलनीनो के कारण ही वर्ष 2016 अब तक का सबसे गर्म साल रहा है। सम्भावना इस बात की भी जताई जा रही है कि अब लानीना की बारी होगी, जिसके कारण वर्ष 2017 ठंडा साल साबित हो सकता है, क्‍योंकि पुरा जलवायुवीय आँकड़ें दर्शाते हैं कि कीर्तिमान गर्म वर्ष के बाद आने वाला साल ठंड के कीर्तिमान बनाता है।

महासागरीय ज्वालामुखी और पृथ्वी की कक्षा में परिवर्तन का भी विशिष्ट सम्बन्ध होता है। पृथ्वी 23.5 डिग्री के कोण पर, अपनी कक्षा में झुकी हुई है। इसके इस झुकाव में परिवर्तन से मौसम के क्रम में परिवर्तन होता है। अधिक झुकाव का अर्थ है अधिक गर्मी व अधिक सर्दी और कम झुकाव का अर्थ है कम मात्रा में गर्मी व साधारण सर्दी। वैज्ञानिकों का मानना है कि प्रति दस हजार सालों के अन्तराल पर सूर्य के चारों ओर पृथ्वी की कक्षा में छोटे-छोटे परिवर्तन होते रहते हैं, जिनका सम्बन्ध महासागरीय ज्वालामुखियों से है।

पृथ्वी की कक्षा में होने वाले ये बदलाव दोनों हिमयुगों और गर्मयुगों की शुरुआत करते हैं और इनसे वैश्विक समुद्र स्तर प्रभावित होता है। इसके कारण महासागरीय ज्वालामुखियों की सक्रियता भी प्रभावित होती है। सन 2013 में महासागरीय ज्वालामुखी के उद्भेदन से जापान में निशिनोशिमा के तट पर नए द्वीप का गठन सूर्य के चारों ओर पृथ्वी की कक्षा में परिवर्तन के साथ सम्बन्धित पाया गया है।

वैज्ञानिकों का ध्यान इस ओर भी जा रहा है कि क्या महासागरीय ज्वालामुखियों से उत्सर्जित कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा से भी भूमण्डलीय तापन की प्रक्रिया प्रभावित हो रही है। उनका मानना है कि पृथ्वी पर महासागरीय ज्वालामुखी स्थलीय ज्वालामुखी की तुलना में आठ गुना अधिक लावा उत्पन्न कर सकते हैं, परन्तु दोनों से समान मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन होता है, जो लगभग 88 मिलियन मीट्रिक टन प्रतिवर्ष आँका गया है।

पिछले दो वर्षों के दौरान इस तरह के शोधों से एक बड़ी ही दिलचस्प बात एक प्रमाण के रूप में सामने आई है कि ठोस पृथ्वी, वायु और जल सब एक प्रणाली के रूप में काम करते हैं। इस दिशा में किये जा रहे अध्ययनों में महासागरीय ज्वालामुखियों द्वारा पिछले हजारों सालों से वैश्विक जलवायु में भूमण्डलीय तापन के योगदान को मापने के प्रयास चल रहे हैं।

महासागरीय ज्वालामुखी जल में लावा, कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य तत्वों को गहरे सागर में उत्सर्जित करते हैं। महासागर के विभिन्न क्षेत्रों में चक्रीय संचरित महासागरीय जल में कार्बन फँस जाता है, जहाँ यह ऊपर की ओर उमड़ने वाली धाराओं से होते हुए समुद्र सतह से ऊपर बाहर निकलकर वातावरण में उत्सर्जित हो जाता है। इस पूरी प्रक्रिया में 2,000 साल तक का समय लग सकता है और इस तरह महासागरीय ज्वालामुखियों द्वारा वातावरण में कार्बन का 88 मिलियन मीट्रिक टन अंश उत्सर्जित किया जाता है।

महासागरीय ज्वालामुखियों द्वारा उत्सर्जित कार्बन की इस मात्रा से भूमण्डलीय तापन के प्रभावित होने को नकारा नहीं जा सकता है। वर्तमान में वैज्ञानिक भूमण्डलीय तापन की दृष्टि से ही पृथ्वी पर जलवायु परिवर्तन का अध्ययन करने में जुटे हैं और जलवायु के निर्धारण में महासागरों का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। अतः जलवायु परिवर्तन में योगदान के कारण भी महासागरीय ज्वालामुखियों का अध्ययन भविष्य में भूमण्डलीय तापन को समझने में काफी सार्थक साबित हो सकता है।

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