महायोजना और बिहार

अगर नदियों को जोड़ने की महायोजना पर अमल किया गया तो यह देश तथा बिहार राज्य दोनों के लिए अहितकर होगा। आज के आकलन के अनुसार राज्य के भविष्य की आवश्यकताओं एवं कोलकाता बंदरगाह तथा महानगर और बांग्लादेश की जिम्मेदारी को ध्यान में रखते हुए गंगा नदी में इतना पानी उपलब्ध नहीं रह पाएगा, जिसे पंपिंग कर कोवरी तक भविष्य में नियमित रूप से पहुंचाया जा सकेगा। जहां तक पंपिंग के जरिये पानी ले जाने का प्रस्ताव है, जैसा कि हम जानते हैं, कर्मनाशा नदी पर जमनियां पंपिंग नहर ज्यादा सफल नहीं रही। भारत सरकार विचार कर रही है कि देश की बड़ी नदियों को जोड़ा जाए, जिससे सूखाग्रस्त राज्यों को भी खेती के लिए जल की उपलब्धता सुनिश्चित की जा सके। इन सूखाग्रस्त राज्यों में दक्षिण के तीन राज्यों के अलावा महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, गुजरात और राजस्थान भी हैं। उच्चतम न्यायालय ने भी इस संदर्भ में दिशा-निर्देश दिया है कि इसे 2015 तक पूरा किया जाए।

जल संसाधन मंत्रालय ने श्री सुरश प्रभु की अध्यक्षता में एक ‘टास्क फोर्स’ का गठन किया है, जो नदियों को जोड़ने के विभिन्न पहलुओं पर विचार करेगा। नदियों को जोड़ने की अवधारणा नई नहीं है। लगभग एक सौ साल पूर्व भी सर आर्थर काॅटन ने यह सपना देखा था। परंतु तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया।

पुनः आजादी के लगभग 25 वर्ष बाद 1972 में डाॅ. केएल राव ने ‘नेशनल वाटर ग्रिड’ का प्रस्ताव रखा, जो लगभग नेशनल पावर ग्रिड पद्धति पर आधारित था। परंतु उस समय उसे भी छोड़ दिया गया। अब पुनः नदियों को जोड़ने की बात उठायी गयी है।

नेशनल वाटर ग्रिड


केन्द्रीय जल एवं ऊर्जा आयोग द्वारा प्रस्तुत नेशनल वाटर ग्रिड के प्रस्ताव में कुल छह निर्माण सन्निहित थे:

1 - गंगा-कावेरी लिंक
2 - ब्रह्मपुत्र-गंगा लिंक
3 - नर्मदा से पश्चिमी राजस्थान तक नहर
4 - चंबल से मध्य राजस्थान तक नहर
5 - उड़ीसा एवं आंध्र प्रदेश के समुद्र-तटीय क्षेत्रों के लिए महानदी नहर तथा
6 - पश्चिमी घाट से पूरब के लिंक

केन्द्रीय जल एवं ऊर्जा आयोग ने नेशनल वाटर ग्रिड के उपर्युक्त छह भागों में से गंगा-कावेरी लिंक को प्राथमिकता दी तथा उसकी सामान्य रूप-रेखा एवं लाभ-हानि का जिक्र किया। उसने उसके लिए विस्तृत अध्ययन एवं अनुसंधान की अनुशंसा की थी।

नदियों को जोड़ने की नयी महायोजना में भी गंगा-कावेरी लिंक परियोजना के अंतर्गत गंगा से साल के 150 दिनों के लिए 60,000 क्यूसेक और अन्य 150 दिनों के लिए 1,00,000 क्यूसेक पानी को लिफ्ट कर सोन से नर्मदा पर बनने वाले बर्गी-जलाशय में पहुंचाने की योजना है। इसके लिए पटना के समीप 1387 फीट ऊंचा बराज बनाने का प्रावधान है।

नर्मदा के बर्गी जलाशय से पानी फीडर नहर के द्वारा बाणगंगा, प्राणहिता और गोदावरी होते हुए कृष्णा और पेन्नार नदी पार कर कावेरी तक ले जाया जाएगा। इस परियोजना के लिए 50 से 70 लाख किलोवाट बिजली की आवश्यकता होगी, जो नेपाल की अरुण कोशी और सुन कोशी नदियों से भविष्य में पैदा होने वाली पनबिजली से खरीदी जाएगी। इसके लिए गोदावरी और कृष्णा नदी से संभावित पनबिजली सहित आणविक संयंत्रों से पैदा की जाने वाली बिजली के उपयोग का भी प्रस्ताव है। इस परियोजना पर 1972 की कीमत पर लगभग 2900 करोड़ रुपये के खर्च होने का अनुमान है।

वर्तमान में यह कई गुणा बढ़ जाएगा। इससे बिहार और उत्तर प्रदेश के 20 लाख एकड़ सहित राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश कर्नाटक और तमिलनाडु की 80 लाख एकड़ जमीन की सिंचाई होगी। इस परियोजना के पूरा होने में 25 वर्ष का समय लगेगा। इतने बड़े खर्च को ध्यान में रखते हुए यह परियोजना लाभप्रद नहीं प्रतीत होती है। अगर 2,900 करोड़ रुपये की राशि की लाभ-हानि का विश्लेषण करें तो पाते हैं कि बेसिनवार विकासकी योजनाओं पर 2900 करोड़ रुपये खर्च करने से एक करोड़ एकड़ के बजाय 5 गुना ज्यादा जमीन में सिंचाई हो सकेगी।

नेशनल वाटर ग्रिड की स्थापना नेशनल पावर ग्रिड की अवधारणा पर होनी थी, जो पूर्णतः गलत थी, क्योंकि बिजली के मामले में ग्रिड से अतिरिक्त बिजली का दोतरफा लाना-ले-जाना संभव है, लेकिन पानी के मामले में यह एकतरफा ही होगा। परियोजना में गंगा से कावेरी तक पानी को पहुंचाने का प्रस्ताव तो है, परंतु आवश्यकता पड़ने पर कावेरी से गंगा तक पानी लाने का कोई प्रावधान नहीं है।

कावेरी से गंगा तक पानी लाने के लिए भी महंगे पंपिंग की व्यवस्था करने की जरूरत पड़ेगी, जो एक बहुत महंगा विकल्प होगा। यह तो हुई नेशनल वाटर ग्रिड के प्रस्तावित छह निर्माणों में से सिर्फ एक की बात। महायोजना में प्रस्तावित कुल 16 निर्माणों के पूरा होने में करीब 5.60 लाख करोड़ का खर्च आने का अनुमान है, जो एक बहुत बड़ी राशि होगी, जिसके लिए स्रोत ढूंढ़ना तथा पूरा करना असंभव-सा प्रतीत होता है।

बिहार राज्य में वर्तमान जल आयोग


इकाई: एम सी एम

जोन

जल की उपलब्धता

वृहद एवं मध्यम

सिंचाई लघु

कुल

मनुष्य

पेय पशु

उद्योग कुल

कुल

उपयोग

शेष

1. सतही जल

उत्तर बिहार

199,359

14,603

415

15,018

-

54

54

-

15,072

184,287

गंगा स्टेम

87,793

455

73

528

-

5

5

-

533

87,260

दक्षिण बिहार

28,735

12,847

947

13,794

-

41

41

-

13,835

14,900

कुल

315,887

27,905

1,435

29,340

-

100

100

-

29,440

286,447

2. भूगर्भ जल

उत्तर बिहार

16,337

-

6,043

6,043

1,008

-

1,008

23

7,074

9263

गंगा स्टेम

1,562

-

540

540

159

-

159

24

723

839

दक्षिण बिहार

10,756

-

3,841

3,841

562

-

562

50

4453

6,303

कुल

28,655

-

10,424

10,424

1,729

-

1,729

97

12,250

16,405

स्रोत: द्वितीय सिंचाई आयोग, बिहार की रिपोर्ट, 1994

बिहार में जरूरत से ज्यादा पानी कहां!


जब भी नदियों को जोड़ने की बात आती है, तो सर्वप्रथम सबों का ध्यान बिहार की तरफ जाता है, जिसे पानी के लिहाज से ‘सरप्लस’ राज्य मान लिया जाता है। अतः इस तथ्य को जानने की आवश्यकता है कि क्या बिहार में सरप्लस वाटर है और अगर हां, तो कितना? क्या हम इसे दूसरे राज्यों को महायोजना के तहत देने की स्थिति में हैं? प्रस्तुत तालिका में राज्य में जल की उपलब्धता एवं उसके उपयोग को दर्शाया गया है।

इस तालिका से स्पष्ट है कि वर्ष 1990 के अनुसार बिहार में सतही एवं भूगर्भीय जल की बचत थी। इससे यह भी स्पष्ट है कि वर्तमान में हम सिंचाई तथा उद्योग के लिए बहुत ही कम जल का उपयोग करते हैं, तथा समुचित विकास के लिए इसका उपयोग बढ़ाने की आवश्यकता होगी। वर्तमान समय में राज्य में 50 प्रतिशत के आसपास ही कृषि योग्य भूमि को लगभग सुनिश्चित-सिंचाई सुविधा उपलब्ध है तथा फसल की सघनता 1.41 है।

कृषि योग्य शत-प्रतिशत भूमि को सिंचित करने तथा फसल की सघनता बढ़ाने के लिए हमें आज के अनुपात में ज्यादा जल की आवश्यकता होगी, जो नदियों से ही प्राप्त हो सकता है। दक्षिण बिहार (विभाजन के पूर्व यह मध्य बिहार कहलाता था) में सूखे के मौसम में जहां एक ओर जल की आवश्यकता बढ़ जाती है, वहीं इसकी उपलब्धता बहुत कम हो जाती है। इतना ही नहीं, वर्षा कम होने की स्थिति में इस क्षेत्र को सुखाड़ की मार भी झेलनी पड़ती है।

खरीफ के मौसम में धान की रोपाई के समय नहर से जल लेने की बात पर किसानों में झड़प तथा मार-पीट होना आम बात है। जल की प्रचुरता होने पर ऐसी घटनाएं नहीं होतीं। वस्तुतः उत्तर बिहार की नदियों में भी जो बाढ़ आती है, उसे सभी सरप्लस जल समझ लेते हैं। बाढ़ आने के तो कई कारण हैं। पर मुख्य कारण उत्तर बिहार की नदियों में अप्रत्याशित रूप से सिल्ट का एकत्र होना है, जिसके कारण नदियों के तल ऊंचे हो गए हैं और उनकी जलग्रहण क्षमता बिल्कुल कम हो गयी है। फिर वर्षा के महीनों में आने वाले जल का हम भंडारण नहीं कर पाते और बहुत-सा जल बाढ़ की तबाही मचाकर समुद्र में चला जाता है।

नतीजा यह होता है कि रबी तथा गरमा फसलों के लिए हमारे पास जल नहीं रहता। अगर हम उस जल का उचित प्रबंधन कर पाते, तो हमारे राज्य में गरीबी नहीं रहती।

अगर हम भविष्य की मांगों यथा - बढ़ती जनसंख्या, पशुओं के लिए पानी की आवश्यकता, सिंचाई, औद्योगिक उपयोग, थर्मल एवं पनबिजली, जल-परिवहन एवं मत्स्य पालन, बागवानी, मनोरंजन आदि अन्य आवश्यकताओं को ध्यान में रखें तो राज्य के पास इतना पानी शायद ही बच पाएगा, जिसे हम दूसरे अभावग्रस्त राज्यों को दे पाएं।

इस संदर्भ में, यह कहना उचित होगा कि वर्तमान समय में बिहार एक पिछड़ा राज्य है, परंतु राज्य के समग्र विकास के लिए कृषि एवं औद्योगिक क्षेत्र में अपार संभावनाएं हैं, जिसके लिए जल की पर्याप्त आवश्यकता होगी। साथ ही राज्य की बड़ी जनसंख्या को ध्यान में रखते हुए सस्ती दर पर सामान ढोने के लिए जल-परिवहन का समुचित विकास आवश्यक है, जो नदी में पर्याप्त जल के बिना असंभव है। पर्यटन को बढ़ाने एवं विदेशी पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए भी राज्य को अधिक जल की आवश्यकता पड़ेगी।

बिहार के लिए कोलकाता बंदरगाह का होना उतना ही आवश्यक है जितना पश्चिम बंगाल के लिए। अतः यह बिहार के हित में है कि कोलकाता बंदरगाह को किसी भी कीमत पर किसी प्रकार की क्षति न पहुंचने पाए। इसके लिए जरूरी है कि कम जल प्रवाह वाले महीनों में भी 40 हजार क्यूसेक पानी हुगली नदी में रहे। इस संदर्भ में यह जानना आवश्यक है कि 1952-53 के सूखे महीनों मंे गंगा का जल प्रवाह घटकर फरक्का में 40 हजार क्यूसेक रह गया था।

इस प्रकार हम देखते हैं कि महायोजना के तहत वर्ष के 300 दिन अगर 1,00,000 क्यूसेक पानी को पंप कर लिया जाएगा तो कोलकाता बंदरगाह बुरी तरह प्रभावित होगा। इसी प्रकार कोलकाता महानगर बिहार का निकटतम महानगर है, जो इस राज्य का एक बड़ा बाजार भी है। इसके पेयजल की आवश्यकता हुगली नदी से पूरी होती है।

अतः इसके लिए भी गंगा नदी में इतना पानी हो कि इस महानगर को जिन्दा रखने के लिए शुद्ध पेयजल उपलब्ध करवाया जा सके। इतना ही नहीं, ‘ग्लोबल वार्मिंग’ के कारण पहाड़ों पर बर्फ के विस्तार में कमी की स्थिति में हिमालय की नदियों, खासकर गंगा नदी, में जल प्रवाह कम होने की आशंका से भी इन्कार नहीं किया जा सकता। ऐसी स्थिति में गंगा जल को अन्यत्र ले जाने से इसके सूखने की संभावना है।

जैसा कि हम जानते हैं, देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 20 प्रतिशत भाग गंगा बेसिन में पड़ता है, जिसमें कुल आबादी के 42 प्रतिशत लोग निवास करते हैं। देश के कुल गंगा जलग्रहण क्षेत्र का लगभग 16 प्रतिशत बिहार में पड़ता है। राज्य में गंगा नदी के जल का उपयोग सिंचाई सिंचाई हेतु अभी भी नगण्य है। इसके विपरीत ऊपरी बेसिन के राज्यों, विशेषकर उत्तर प्रदेश द्वारा उनके भाग में उपलब्ध संपूर्ण जल का उपयोग कर लिया जाता है।

मुख्य कठिनाई सूखे के मौसम अर्थात् फरवरी, मार्च एवं अप्रैल में होती है, जब ऊपर के राज्यों द्वारा पूर्ण उपलब्ध जल की खपत करते हुए भी पर्यावरण संतुलन हेतु आवश्यक जल प्रवाह के साथ फरक्का बराज पर निर्धारित जल प्रवाह बरकरार रखने की उपेक्षा बिहार राज्य से की जाती है। ऊपर की घाटी के राज्यों को गंगा नदी में उपलब्ध जल के उपयोग की पूरी छूट मिली हुई है। अभी भी बिहार एवं पश्चिम बंगाल की सहमति के बिना योजनाओं को स्वीकृति भारत सरकार द्वारा दी जाती है। परंतु अंतरराष्ट्रीय बाध्यता को पूरा करने के लिए भारत सरकार द्वारा किए गए आकलन के अनुसार सूखे के मौसम में फरक्का पर आवश्यक जल स्तर के लिए लगभग 50 प्रतिशत की जिम्मेदारी बिहार के सिर पर है।

बांग्लादेश से समझौते के तहत भारत को फरक्का में जलप्रवाह को लगभग 35 से 40 हजार क्यूसेक जलप्रवाह बनाए रखना है। इसके साथ-साथ कोलकाता बंदरगाह के लिए भी लगभग 40 हजार क्यूसेक जल प्रवाह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है। 1952-53 में सूखे के महीनों में गंगा का जल प्रवाह फरक्का में 40 हजार क्यूसेक हो जाने के तथ्य के आधार पर हम कह सकते हैं कि राज्य में रबी तथा गरमा की खेती आवश्यक जल के अभाव में सुनिश्चित नहीं की जा सकती।

ब्रह्मपुत्र तथा गंगा को जोड़ने पर भी बिहार के लिए जल की उपलब्धता में कोई विशेष अंतर आने की संभावना नहीं है। विशेषज्ञों ने पूर्व में ही यह आशंका व्यक्त की है कि भारत बांग्लादेश समझौता के अनुरूप फरक्का में वांछित जल स्तर को कायम रखने के लिए ब्रह्मपुत्र नदी से अतिरिक्त जलप्रवाह की अपेक्षा नहीं की जा सकती, बल्कि इससे गंगा के जल की क्षारीयता में वृद्धि की ही आशंका है।

मामला जल प्रबंधन का


अनुभव बताता है कि अधिक सिंचाई से जमीन की उर्वरा शक्ति पर प्रतिकूल असर होता है। पाकिस्तान के कई जिले, भाखड़ा नहर क्षेत्र एवं शारदा सहायक नहर क्षेत्र की यही कहानी रही है। एक अनुमान के अनुसार विश्व के लगभग 50 प्रतिशत सिंचित क्षेत्र क्षारीय हो गए हैं। धान एवं गन्ने को छोड़कर लगभग सारी फसलों के लिए कम पानी की आवश्यकता होती है। इस प्रकार दक्षिण के प्रदेशों में सिंचाई के लिए जल की उतनी आवश्यकता नहीं है, जितनी आवश्यकता खेती के लिए समुन्नत तकनीक एवं उचित जल प्रबंधन की है।

एक अनुमान के अनुसार अगर साल में 50 सेंटीमीटर भी वर्षा हो तो वहां जल की आवश्यकता की पूर्ति वर्षा के पानी के उचित प्रबंधन के द्वारा की जा सकती है। कम जल वाले राज्यों, विशेषकर दक्षिण के राज्यों में जल की उतनी समस्या नहीं है जितनी रन-आॅफ की है। उचित वाटर हार्वेस्टिंग (जल छाजन) के द्वारा इस समस्या का हल किया जा सकता है।

जितना खर्च नदियों को जोड़ने में करेंगे, उससे कम खर्च में वाटर हार्वेस्टिंग स्ट्रक्चर बनाकर तथा फसल चक्र को बदलकर हम वहां की पैदावार बढ़ा सकते हैं। नदियों को जोड़ने की महंगी योजना का उपयोग अधिक जल वाली फसल उगाने के लिए करेंगे तो इसका लाभ वहां के गरीब किसानों के बजाय अमीर किसानों को ही मिलेगा। इतनी महंगी योजना द्वारा उपलब्ध सिंचाई के लिए जल का शुल्क भी अपेक्षाकृत अधिक होगा, जिसे देने में गरीब किसान असमर्थ होंगे।

महायोजना से तबाही


महायोजना को लागू करने से बहुत सारे जंगल कटेंगे। देश में पहले से ही जंगल का प्रतिशत काफी कम हो गया है। इस योजना से और अधिक जंगल कटेंगे, जिससे पर्यावरण के लिए खतरा पैदा होगा। बहुत-से लोग विस्थापित होंगे तथा विगत अनुभवों के आधार पर हम कह सकते हैं कि उनमें से बहुत कम लोगों का ही पुनर्वास संभव हो जाएगा।

जैसा कि हम जानते हैं, उत्तर भारत की नदियां, खासकर गंगा के किनारे बसे बड़े-बड़े शहरों के पर्यावरण को ठीक रखने तथा वहां से सामान लाने-ले-जाने के लिए नदी में उचित जलप्रवाह का होना आवश्यक है। यों भी नदी को नदी रहने देने के लिए इनमें एक स्तर तक जल का होना जरूरी है।

प्रत्येक नदी के जल का अपना एक विशेष गुण तथा एक विशेष संस्कृति होती है। नदियों को जोड़ने की योजना के कार्यान्वयन से नदियों की यह विशेषता समाप्त हो जाएगी, जिसका कुप्रभाव इन नदियों में रहने वाले जीव-जन्तुओं पर पड़ेगा और पर्यावरण भी बुरी तरह से प्रभावित होगा।

सही विकल्प


हिमालय से निकलने वाली नदियों से जुड़ी खास समस्या सिल्ट की है, जो दुनिया की किसी भी नदी के मुकाबले कहीं ज्यादा है। सिल्ट के कारण नदियों का तल ऊंचा हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप नदी अधिक जलग्रहण नहीं कर पाती है। नदी-तल के ऊंचा होने के कारण अधिक जल समुद्र में चला जाता है तथा बाढ़ का भी खतरा उत्पन्न होता है।

लगभग यही स्थिति नहरों की भी है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि नदियों एवं नहरों की उड़ाही की जाए, उनको गहरा किया जाए तथा उनके किनारों पर पेड़ लगाए जाएं। इसके बाद ही बिहार के सरप्लस जल का सही-सही आकलन किया जा सकेगा। सूखाग्रस्त राज्यों में सही जल एवं फसल प्रबंधन द्वारा कृषि की उपज बढ़ाई जा सकती है। नई कृषि तकनीक भी अपनाने की जरूरत है।

नेशनल कमीशन फार इंटीग्रेटेड वाटर रिसोर्सेज डेवलपमेंट की सिफारिश


डाॅ. एसआर हाशिम की अध्यक्षता में 1997 में बने इस आयोग ने वर्ष 2000 में अपनी रिपोर्ट पेश की। इस रिपोर्ट में नदियों को जोड़ने की कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए यह सिफारिश की गयी कि नदियों को जोड़ने का विचार तभी किया जाए, जब राष्ट्रहित में यह बिल्कुल अनुपेक्षणीय समझा जाए। इन्होंने यह भी कहा कि आने वाले दशकों में इसका कार्यान्वयन संभव नहीं दिखता है।

इस समिति की यह भी सिफारिश है कि जिस राज्य में जल का स्थानांतरण हो, उस राज्य को केन्द्र अथवा जल प्राप्त करने वाला राज्य उचित मुआवजा दे। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि महायोजना कारगर नहीं है तथा जिस राज्य से जल पंप कर ले जाया जाएगा, उसे कोई न कोई नुकसान अवश्य होगा।

ताड़ से गिरे खजूर पर अटके


अगर नदियों को जोड़ने की महायोजना पर अमल किया गया तो यह देश तथा बिहार राज्य दोनों के लिए अहितकर होगा। आज के आकलन के अनुसार राज्य के भविष्य की आवश्यकताओं एवं कोलकाता बंदरगाह तथा महानगर और बांग्लादेश की जिम्मेदारी को ध्यान में रखते हुए गंगा नदी में इतना पानी उपलब्ध नहीं रह पाएगा, जिसे पंपिंग कर कोवरी तक भविष्य में नियमित रूप से पहुंचाया जा सकेगा। जहां तक पंपिंग के जरिये पानी ले जाने का प्रस्ताव है, जैसा कि हम जानते हैं, कर्मनाशा नदी पर जमनियां पंपिंग नहर ज्यादा सफल नहीं रही।

अनुभव के आधार पर इस महायोजना के प्रति सशंकित होना स्वाभाविक है। आशंका तो यह भी है कि जल के अभाव में कहीं हमारी ‘मछली एवं मखाना’ की प्राचीनतम संस्कृति विलुप्त न हो जाए। इस बात का भी भय है कि भविष्य में गंगा में जल-प्रवाह की कमी के कारण ‘जल बंटवारे’ के सवाल पर राज्यों में अन्तर्कलह शुरू हो और देश की अखंडता प्रभावित हो।

यह ‘भाड़ा-समानीकरण’ की तरह ही कहीं बिहार राज्य के गले की हड्डी न बन जाए। भाड़ा समानीकरण की नीति को तो वापस भी किया गया, परन्तु राज्य से जल को अन्य राज्य में ले जाने की प्रक्रिया एक बार शुरू हो जाए तो फिर वापस नहीं हो सकती।

लोग अक्सर विदेशों में क्रियान्वित ऐसी योजना की सफलता का दृष्टांत देते हैं, किंतु जब इनकी ओर हम देखें, तो पायेंगे कि अमेरिका में यह बहुत छोटे पैमाने पर क्रियान्वित योजना है। कैलिफोर्निया राज्य में मात्र 715 किलोमीटर लंबी कैलिफोर्निया-एक्वेडक्ट परियोजना है, जिसमें पंप से लिफ्ट कर मात्र 1000 किलोमीटर तक पानी ले जाने की सुविधा है।

सोवियत संघ में भी साइबेरिया नदी का पानी बड़ी नहर के जरिये कजाकिस्तान की नदियों में ले जाने की योजना थी, जिसमें 2200 किलोमीटर लंबी नहर बननी थी। किंतु इस परियोजना को पर्यावरणीय खतरों की वजह से छोड़ दिया गया। इन उदाहरणों को ध्यान में रखते हुए भारत में इतनी बड़ी योजना का सफलतापूर्वक कार्यान्वयन संभव नहीं दिखता है। विशेषकर जब हम इन तथ्यों का आकलन डाॅ. एसआर हाशिम समिति की रिपोर्ट के आलोक में करते हैं, जिसमें इस महायोजना के तहत केन्द्र या जल प्राप्त करने वाले राज्यों से मुआवजा देने की बात कही गयी है।

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