मिट्टी बचेगी तो देश बचेगा

10 Nov 2018
0 mins read
कीटनाशक
कीटनाशक

आज के बाजारू समय में खेती और उसके उत्पादन में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मिट्टी आमतौर पर हमारी नजरों से ओझल हो जाती है। नतीजे में उसकी गुणवत्ता, उत्पादकता और विस्तार में लगातार कमी होती जा रही है। वैज्ञानिकों के मुताबिक देश भर में मिट्टी की उत्पादकता करीब आधी यानि 50 फीसदी रह गई है। इसे कैसे वापस लाया जाये?

रासायनिक उर्वरकों से बंजर होती जमीनरासायनिक उर्वरकों से बंजर होती जमीन (फोटो साभार - डब्ल्यूएचओ)“बंजर भूमि का देश अपनी आजादी कैसे बचा पाएगा?” यह सवाल महाराष्ट्र, यवतमाल के एक किसान सुभाष शर्मा पूछ रहे हैं। शर्माजी पुराने जैविक किसान हैं, कई वर्षों के अनुभव से उन्होंने मिट्टी का महत्त्व जाना-समझा है।

अन्न सुरक्षा तथा सुरक्षित अन्न के लिये मिट्टी की उर्वरा शक्ति बनाए रखना देश का प्रथम कर्तव्य बनता है, किन्तु आधुनिक कृषि व्यवस्था रसायन पर ही जोर देती है, मिट्टी के स्वास्थ्य को पर्याप्त महत्त्व नहीं दिया जाता, यह चिन्ता का विषय है। ‘वैश्विक अन्न तथा कृषि संगठन’ (एफएओ) भी इस विषय को लेकर चिन्तित है। वर्ष 2015 में ‘अन्तरराष्ट्रीय मृदा वर्ष’ मनाने का आवाह्न उन्होंने किया था। बाद में अपेक्षित कार्य नहीं होने के कारण इसे 2024 तक बढ़ाकर ‘अन्तरराष्ट्रीय मृदा दशक’ घोषित किया गया। तीन साल बीत गए, भारत में केवल ‘मृदा स्वास्थ्य कार्ड’ छोड़कर अब भी इस दिशा में कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं हुआ है।

अन्न सुरक्षा ही नहीं, जल संवर्धन भी मिट्टी के साथ जुड़ा है। खेतों में कंटूर बंडिंग द्वारा मृदा के साथ-साथ वर्षाजल संवर्धन भी अपने-आप सधेगा। हवा-पानी-मिट्टी जीवन के मूलाधार हैं, उनकी हिफाजत करना सभी का फर्ज है। किन्तु अति आधुनिक तकनीक के इस जमाने में मूलभूत बातों को नजरअन्दाज किया जाता है।

आज हमारा देश मरुभूमि बनने जा रहा है। कुल 32 करोड़ 87 लाख हेक्टेयर भूमि में से 9 करोड़ 64 लाख हेक्टेयर भूमि अत्यन्त बुरी अवस्था में है। मिट्टी की उपजाऊ परत वर्षाजल के साथ बह जाना इस बदहाली का प्रमुख कारण है। भारत में हर साल 53 करोड़ 34 लाख टन मिट्टी इसी तरह बह जाती है। हरित आवरण (पेड़-पौधे) नष्ट होना, खेतों की गहरी जुताई, जमीन में जैविक पदार्थों की कमी, कृषि रसायनों का बेहिसाब इस्तेमाल आदि कारणों से भूक्षरण होता है।

खेतों में कंटूर बंडिंग से मिट्टी तथा बारिश का प्रभावी ढंग से संवर्धन किया जा सकता है। कंटूर बुआई से भूमि में नमी बनी रहती है, जिससे फसल का विकास अच्छी तरह होता है।

कंटूर बुआई से उपज में बढ़ोत्तरी होती है, यह विदर्भ के किसानों का यह प्रत्यक्ष अनुभव है। कंटूर बुआई का तंत्र लोकप्रिय बनाने हेतु किसानों के खेतों पर ही प्रत्यक्ष आयोजन जरूरी है। किसान प्रत्यक्ष देखकर ही सीखेगा, भरोसा करेगा। इससे उसकी आय में पहले ही साल बढ़ोत्तरी तो होगी ही, साथ-साथ भूजल भी बढ़ेगा।

फसलों के जैविक अवशेष जमीन का भोजन है। उन्हें जलाना, खेत के बाहर कर देना एकदम गलत है। जैविक पदार्थों के बिना जमीन बंजर बनती है। मनुष्य के शरीर में जो स्थान खून का है वही जमीन में जैविक पदार्थ का मानना होगा। जैविक पदार्थ मिट्टी के कणों को बाँध कर रखते हैं जिस से भूक्षरण रुकता है।

मिट्टी बनाने तथा बचाने में वृक्षों की भूमिका अहम है। वृक्षों की पत्तियों द्वारा जमीन को विपुल मात्रा में जैविक पदार्थ प्राप्त होते हैं। वृक्षों के कारण बारिश की सीधी मार जमीन पर नहीं पड़ती। कुछ बारिश पत्तियों पर ही रुक जाती है, हवा के हलके झोंकों के साथ बूँद-बूँद नीचे आकर भूजल में परिवर्तित होती है। वृक्ष के नीचे केचुएँ अधिक सक्रिय होते हैं। वे जमीन की सछिद्रता बढ़ाते हैं। इस कारण वर्षा अधिक मात्रा में भूजल में परिवर्तित होती है।

वृक्ष जमीन से जितना लेते हैं उससे कई गुना ज्यादा जमीन को जैविक पदार्थों के रूप में लौटाते है। वृक्ष की जड़ें जमीन में गहरी जाकर खनिज पदार्थ लेती हैं। यह पदार्थ अन्त में पत्तियों के रूप में मिट्टी के ऊपरी स्तर को समृद्ध बनाते हैं। वृक्ष हमें भोजन, पानी, समृद्ध भूमि तथा सही पर्यावरण प्रदान करते हैं।

खेतों में कंटूर बंडिंग तथा बुआई का प्रशिक्षण, जैविक पदार्थों का व्यवस्थापन सिखाना जरूरी है। पढ़े-लिखे लोग भी जैविक पदार्थों के महत्त्व को नहीं समझते, उन्हें जला देते हैं। इससे दोहरी हानि होती है। जैविक पदार्थ तो नष्ट होते ही हैं, हवा में जहरीली कार्बनिक गैसों की बढ़ोत्तरी भी होती है। जैविक पदार्थों का सही व्यस्थापन अगर होता है तो कृषि क्षेत्र में पर्यावरण-हितैषी क्रान्ति हो सकती है। जैविक पदार्थ के लिये जन-जागरण आवश्यक है। जैविक सामग्री से बढ़िया खाद बनती है, ऐसी सामग्री आग के हवाले करना सिवा पागलपन के और कुछ नहीं।

जैविक प्राकृतिक कृषि पद्धति पर्यावरण स्नेही है, मिट्टी की उर्वरा शक्ति बनाए रखना इसकी विशेषता है। अतः इस कृषि पद्धति का विस्तार तेजी से होना जरूरी है। इससे बढ़ती गर्मी, वायु प्रदूषण तथा पर्यावरण की अन्य समस्याएँ सुलझाने में भी मदद होगी।

खाद्य फसलों के कारण कई बार जमीन का शोषण होता है, किन्तु पेड़ जमीन को वापस समृद्ध बनाते हैं। अतः वृक्षों से खाद्य प्राप्त करना उचित है। भले ही यह पूरी तरह सम्भव न हो सके, यथा-सम्भव इस दिशा में हमें प्रयास करने होंगे। महुआ, चिरौंजी, भिलावा, कौठ, सीताफल, रामफल, ताड़, काजू, कटहल, चिकू, खिरणी, आँवला, आम, सहजन, अगस्ती, कचनार, इमली, लिसोडा, सिंदी आदि वृक्ष हमें भोजन प्रदान करते हैं। कंद उगाना आसान है। उन पर कीड़े तथा बीमारियों का प्रकोप कम-से-कम होता है। वे जमीन को अधिक जैविक पदार्थ लौटाते हैं।

ऊसर, बंजर भूमि को सुजलाम-सुफलाम बनाने के प्रयास कई जगह सफल हुए हैं। महाराष्ट्र के रालेगण सिद्धि, हिवरे बाजार तो मशहूर हैं ही। विदर्भ के वर्धा जिले का काकडदरा गाँव, एक समय जंगल काटकर लकड़ी बेचने वाला, महुआ से शराब बनाकर बेचने वाला, कर्ज में डूबा गाँव था जो आज पेड़ लगाकर जंगल हरा-भरा कर रहा है। अपनी पथरीली जमीन को उन्होंने कंटूर बंडिंग द्वारा उपजाऊ बनाया है। उस जमीन से वे पर्याप्त दाना-पानी पाते हैं। एक जमाने में गाँव में पेयजल की भारी किल्लत रहती थी। एक बार आग लगने पर पूरा गाँव भस्म हो गया था। घास-फूस के मकान थे, आग बुझाने पानी कहाँ से लाते? किन्तु आज सामूहिक श्रमकार्य द्वारा गाँव की शक्ल बदल गई। इस पराक्रम में महिलाओं का विशेष योगदान है।

मधुकर खडसे नामक इंजीनियर के मार्गदर्शन में 1980 के दशक में मृदा तथा जल संवर्धन कार्य काकडदरा में शुरू हुआ था। ग्रामसभा में सर्वसम्मति से निर्णय लेने की उनकी पद्धति शुरू से ही रही थी, सम्पूर्ण क्षेत्र में कंटूर बंडिंग तथा पत्थर के बाँध बनाए गए। इससे भूजल बढ़ा, खेती की उपज भी लक्षणीय बढ़ी।

सामूहिक श्रम से कुआँ खोदा गया, मिट्टी का तालाब भी गाँव वालों ने अपने श्रम से बनाया। आज सीमित मात्रा में क्यों न हो, कुछ जमीन में सिंचाई भी हो रही है। यह गाँव अपने श्रम के बल पर विकास कर रहा है। श्रमशक्ति के द्वारा ही उन्होंने ‘पानी फाउंडेशन’ के ‘वाटर कप प्रतियोगिता-2017’ का प्रथम पुरस्कार पाया है। गाँव के अनपढ़, श्रमजीवी अपनी समझ के अनुसार काम कर रहे हैं। कुछ कमी तो होगी ही, लेकिन धीरे-धीरे उनकी पूर्ति हो सकती है। उनकी एकता बने रहना जरूरी है, बाहरी तत्व गाँव में दखल न दे तो वह टिक सकती है।

काकडदरा कभी अकाल तथा अभावग्रस्त गाँव था, आज वह इज्जत की रोटी खा रहा है। उनका समाज के प्रति सहयोग का भाव भी जागृत है। किल्लारी भूकंपग्रस्तों के लिये उन्होंने अपने श्रमदान के पैसे राहत कोष के लिये भेजे थे। आत्मनिर्भर काकडदरा गाँव एक नमूना है, अन्य गाँव उसी दिशा में चल पड़ें तो परावलम्बी भारत की तस्वीर बदल जाएगी।

श्री वसंत फुटाणे पिछले 30 वर्षों से जैविक कृषि, देशी बीज संवर्धन, ग्राम निर्माण आदि कार्यों से जुड़े हैं।

TAGS

soil conservation, decreasing soil fertility, low agricultural produce, barren land, organic fertilizers, food and agriculture organisation, international soil year, international soil decade, soil health card, contour bunding, soil erosion, toxic carbonic gases, porosity of soil, paani foundation.

 

 

 

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading