मल-मूत्र सफाई

22 May 2010
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प्रभाते मलदर्शनम्


मल-मूत्र की सफाई कई दृष्टियों से बहुत जरूरी है। काँलरा-टाइफॉइड आदि भयानक रोगों के जंतुओं का फैलाव आदमी के मैले द्वारा होता है। दूसरे, हजारों बरसों से जोती जानेवाली जमीन को सजीव खाद की जरूरत है। तीसरे, इस सफाई की ओर हमारी उपेक्षा ही नहीं, उसके प्रति हमारे मन में घृणा भी है। इसलिए इस सफाई को हमने अपनाया, इसके प्रति यदि घृणा की भावना मिट गयी तो अन्य सफाई करने की प्रवृत्ति सहज ही उत्पन्न हो जायेगी। सबसे महत्व की बात यह है कि इसमें क्रांति के बीज छिपे हुए हैं। मल-सफाई के अत्यन्त उपयोगी काम को हमने हलका समझा और इस कार्य को करने वाले मेहतरों को (मेहतर शब्द क्या महत्तर-अधिक बड़ा-से हुआ होगा?) हलका और अछूत मानकर हमने समाज में ऊँच-नीच का, विषमता का एक ऐसा सिलसिला जारी कर दिया है, जिसने सारे समाज-शरीर को खोखला बना दिया है। यह ऊँच-नीचता, विषमता मिटाने की शक्ति स्वेच्छापूर्वक किये जानेवाले भंगी-काम में है। इसीलिए उसमें क्रांति के बीज निहित हैं। क्रान्ति क्या है? समानता, सपाट करना (लेवलिंग) ही क्रांति है। आर्थिक, सामाजिक आदि क्रान्तियों का तात्पर्य यह है कि उन-उन क्षेत्रों में स्थित विषमता को मिटाकर समानता लाना। अंग्रेज विजयी, हम विजित, वे मालिक, हम गुलाम, इस विषमता को मिटाकर हम दोनों समान हैं, ऐसी राजकीय क्रांति की मंजिल हमने तय की है। एक ओर अमीरी की टेकड़ियाँ और दूसरी ओर गरीबी की खाइयाँ, ऐसी विषमता को मिटाकर आर्थिक क्रान्ति की मंजिल हमें तय करनी है और इसके लिए खादी ग्रामोद्योग को बढ़ावा देना है। सवर्ण उच्च और भंगी नीच, बाबूगिरी ऊँची, मेहनत करना और भंगी का काम करना हलका, इस तरह की विषमता मिटाकर समाज के समस्त उपयोगी काम एक-से एक ऊँचे हैं। इतनी ही नहीं, जो बाहर से अस्वच्छ दिखने वाले समाजोपयोगी काम करते हैं, उनको अधिक ऊँचा मानें, ऐसे पवित्र विचारों को प्रस्थापित कर सामाजिक क्रान्ति एवं सामाजिक समभाव की मंजिल हमें तय करनी है। आध्यात्मिक वृत्तिवाले आदमी को देह की तुच्छता का भान मैले से हो सकता है। इस तरह मल-सफाई वैराग्य एवं नम्रता का साधन भी हो सकती है। रामकृष्ण परमहंस सरीखे महासाधकों ने इस दृष्टि से मल-सफाई का कार्य किया भी था। इसके सिवा ग्राम-सेवा की शुरुआत के नाते भी मल-सफाई का महत्व है। ये सब भाव विनोबाजी के बनाये सूत्र को थोड़ा बढ़ाकर “अरोग्य-ऐश्वर्य-वैराग्य-साम्यभाव-प्रदायकं प्रभाते मलदर्शनम्” इन थोडे शब्दों में कह सकते हैं। अर्थात् सुबह मैले का दर्शन करने से याने उसकी ठीक ढंग से सफाई करने से अरोग्य, सम्पत्ति, नम्रता और समाज में समभाव प्राप्त होता है।

सफाई जीवन और सभ्यता का अनिवार्य अंग होने के कारण मल-मूत्र व्यवस्था के सम्बन्ध में आदमी शुरू से ही जाग्रत रहता आया होगा। फिर भी इसकी व्यवस्था या नियम लिखित रूप में बहुत नहीं मिलते हैं, कुछ ही मिलते हैं। जो मिलते हैं, उन पर एक निगाह डाल लें।

शौचादि के प्राचीन रिवाज


दुनिया के प्राचीन समाजों में से यहूदियों में ऐसा आदेश है कि शौच जाते समय खुरपी या ऐसा ही कोई औजार लेते जायँ और मैले को ढँक दिया करें। पानी में पेशाब न करें, शौच न करें और न थूकें, ऐसा उल्लेख मनुस्मृति में है। ‘भंगी’ के लिए संस्कृत भाषा में कोई शब्द नहीं है। इस पर से लगता है कि पाखाना, भंगी, इस ढंग की कोई व्यवस्था यहाँ नहीं रही होगी। बस्ती के बाहर लोग जाते थे और जोते हुए खेतों में टट्टी फिरकर उसे मिट्टी से ढंक देते थे, ऐसी अभ्यासकों की राय है। हिन्दुस्तान की बहुत सी भाषाओं में पाखाना जाने के लिए ‘जंगल जाना’, ‘बाहर जाना’, ‘दूर जाना’ आदि अर्थपूर्ण शब्द हैं। इनसे शौच-व्यवस्था की कल्पना की जा सकती है। हिन्दुस्तान में पाखाना, भंगी आदि की प्रथा मुसलमानों ने शुरू की, ऐसा माना जाता है। लड़ाई में हारे हुए व्यक्तियों से जबरदस्ती यह काम करवाकर उनकी मान-हानि करने का और साथ ही उन्हें जीवनदान देने का, दोहरा हेतु पूरा पड़ता था। गोंदिया से लेकर गोवा तक के मराठी भाषी प्रदेश में एक भी ऐसा भंगी नहीं है कि जिसकी मातृभाषा मराठी हो। गोंदिया-नागपुर की तरफ हिंदी बंबई की तरफ गुजराती और कोल्हापुर की तरफ कन्नड़ भाषा-भाषी भंगी हैं। इस पर से भंगी-वर्ग की उत्पत्ति के बारे में ऊपर के अनुमान को बल मिलता है।

पाश्चात्य लोगों ने पिछले सौ-डेढ़ सौ बरसों में इस सम्बन्ध में काफी महत्वपूर्ण कार्य किया है। सौ-डेढ़ सौ वर्ष पहले इंग्लैंड की हालत आज के हिन्दुस्तान के देहातों जैसी ही थी। लेकिन हाथ में उठाया हुआ काम, अधूरा न छोडने के पुरुषार्थियों के बाने अनुसार, उन लोगों ने इस बारे में एक व्यवस्था कायम की है। और यह व्यवस्था दुनिया के सुधरे हुए और सुधरते हुए लोगों में फैल रही है। सेप्टिक टैंक, फ्लश, पिट प्रिव्ही शौचकूप आदि उसके नमूने हैं।

हर आदमी अपना भंगी बने


मानव-समाज ने अब तक इस बारे में जो मार्गक्रमण किया है, उसे ध्यान में रखते हुए हम आगे बढ़ने की कोशिश करें। खुरपी का तरीका बहुत ही अच्छा है और उसका प्रचार भी खूब होना चाहिए। फिर भी बड़े-बड़े शहरों में निवास, बूढ़े, बच्चे, बीमार, बारिश, अंधकार आदि बातों पर विचार करें, तो खुरपी से सवाल पूरा हल नहीं होता। भंगियों से करायी जानेवाली चालू शौच-व्यवस्था तो इतनी त्याज्य है कि उसको तो हम दिमाग में से भी निकाले दें। मानव-समाज आज तक उसे कैसे सहन करता रहा और अब भी उसे कैसे सहन कर रहा है, इसी का आश्चर्य है। इसके खिलाफ तो बगावत होनी ही चाहिए। गंदगी से मर जायेंगे, लेकिन इस ढंग की मल-सफाई हम नहीं सहन करेंगे, ऐसा लोगों को, और भूख से मरना पसन्द करेंगे, लेकिन चालू ढंग का भंगी का काम नहीं करेंगे, ऐसा भंगियों को निश्चय करने का समय कभी का आ चुका है। असल में हर एक आदमी अपना भंगी हो, यह आदर्श है। कम-से-कम जिस तरह हर कुटुम्ब अपना रसोई आदि स्वयं कर लेता है, वैसे ही अपना भंगी-काम भी स्वयं करे। लेकिन दूसरों से और अत्यंत गंदे तरीके से वह हो, उसके बदले में कुछ रुपये, वेतन के तौर पर दें-मानो की हम बड़ी मेहरबानी कर रहे हैं- और ऊपर से जनम से अछूतपन का भत्ता या पेंशन दी जाय, इसे क्या कहें? इससे समाज में शांति कैसे रह सकती है?

मैले का महत्व


पश्चिमी लोगों के तरीकों में ये दोष नहीं हैं, लेकिन उसमें उड़ाऊपन का दोष है। सोनखाद जैसी अपने हाथ की खाद व्यर्थ गँवाना अबुद्धि और दुर्दैव का लक्षण है। दूसरों को लूटने की या स्वयं को मिली हुई सुविधाओं से दूसरों को वंचित रखने की सहूलियत जब तक रहेगी, तब तक यह उड़ाऊपन चल सकता है। इंग्लैंड आदि देश उन तरीकों को चला सकते हैं, क्योंकि राज्यसत्ता या व्यापारसत्ता से वे औरों की चला सकते हैं, क्योंकि राज्यसत्ता या व्यापारसत्ता से वे औरों की अपेक्षा समृद्ध रह सके हैं। लेकिन वहाँ पर भी मैले का खाद के तौर पर कैसे उपयोग किया जा सकता है, इस तरफ लोगों का ध्यान जा रहा है। शिक्षा के लिए विलायत में गयी हुई एक बहन अपना अनुभव लिखती है कि वहाँ के देहात के एक घर में शौच के लिए गयी थी। पाखाने में घास आदि के टुकड़े रके हुए थे और मैले को उस चूरे से ढाँकने की सूचना वहाँ लगी हुई थी। टट्टी फिरकर आने के बाद उस घर की एक सात साल की लड़की उनसे पूछने लगी कि ‘आपने मैले को घास से ठीक ढंग से ढँका है न? नहीं तो मक्खियाँ होंगी और खाद भी ठीक नहीं बनेगी।’ अमेरिका में उड़ाऊपन का तरीका चल सकता है, उसका एक कारण यह है कि इंग्लैंड जैसा वह भी और देशों को और शायद इंग्लैंड को भी, लूट सकता है। दूसरा कारण यह है कि वहाँ जमीन की विपुलता है और चार-पाँच सौ साल से ही वह जोती जा रही है। और कृत्रिम-निर्जीव खाद काफी मात्रा में वहाँ उपलब्ध है, इसलिए सजीव खाद की अभी उतनी आवश्यकता वहाँ नहीं महसूस होती। लेकिन हिन्दुस्तान जैसे देश में, जहाँ की जमीन कम-से-कम दस हजार साल से जोती जा रही है, जहाँ फी आदमी मुश्किल से एक-डेढ़ एकड़ जमीन है, वहाँ मैले को व्यर्थ गँवाना नहीं पुसा सकता। चीन में मैला व्यर्थ नहीं गँवाया जाता। इस बात का किंग जैसे लेखक ने गौरवपूर्वक उल्लेख किया है और उससे अमेरिका को सबक सीखने की सलाह दी है। उसने अपनी पुस्तक का “चालीस सदियों के किसान अर्थात् चीन, जापान और कोरिया की स्थायी खेती” नाम रखकर स्थायी याने टिकाऊ खेती के लिए सोनखाद की आवश्यकता बतायी है।

मैले को व्यर्थ गँवाना नहीं पुसा सकता। इतना ही नहीं, वह ठीक भी नहीं। उसमें मनुष्य का मनोविकास नहीं है। जहाँ आदमी में एक भी चीज व्यर्थ गँवाने की आदत पड़ी कि एक-एक करके सारा जीवन व्यर्थ गँवाने तक उसकी आदत बढ़ जाती है। आज हिन्दुस्तान में यही हो रहा है। एक ओर हम दुनिया में गरीब-से-गरीब होते हुए भी अमीरों जैसा बर्ताव रखते हैं। नीबू, संतरे, केले खाकर छिलके इधर-उधर फेंक देते हैं। आम खाकर गुठली फेंक देते हैं। भात सफेद दीखे, इसलिए ऊपर की भूसी निकाल देते हैं। भात का एक-एक दाना अलग-अलग दीखे, इसलिए माँड़ निकाल देते हैं। दूसरी ओर दुनिया के धनी देश इन चीजों का सदुपयोग करने का चिन्ता रखते हैं। बच्चों में वैसी आदत डालते और शिक्षा देते हैं। विनोबाजी हमेशा कहते हैं कि सद्गुण या दुर्गुण सकुटुम्ब सपरिवार ही कहीं आते-जाते हैं। उसके अऩसार आधा गँवाने की यह हमारी बुरी आदत केवल बाहरी या छोटी-छोटी चीजों तक ही सीमित नहीं रहती। पुरषों को ऊँचा और स्त्रियों को नीचा मानकर स्त्रियों की शक्ति को हम व्यर्थ गँवाते हैं। लड़का हुआ, तो आनन्द और लड़की हुई, तो खेद प्रकट करते हैं। बैल का उपयोग करते हैं और गाय की ओर दुर्लक्ष्य। भैंस का दूध-घी चाहिए, किन्तु भैंसे को मार डालते हैं, मरने देते हैं शिक्षितों का मान और अनपढ़ों का अपमान करते हैं। यह सब बदलना है तो कोई उपयोगी चीज बेकदरी से व्यर्थ गँवाने की आदत और वृत्ति छोड़नी होगी।

सारांश, पुराने या चालू तरीकों में से कोई भी तरीका उसी रूप में हम अपना नहीं सकते। फ्लश या सेप्टिक टैंक जैसे पाखाने हमें नहीं चाहिए, उन तरीकों के गुण याने साफ-सुथरापन चाहिए। हमारे गरीब देश को सुलभ साधन ही पुसा सकते हैं। याने छोटे सींगवाली, अच्छा दूध देनेवाली और कम कीमत वाली गाय हमें चाहिए।

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