मल प्रबन्धन - स्वच्छ भारत अभियान के लिये चुनौती (Sewage management - Challenge for Swachh Bharat Abhiyan)

इकोसैन शौचालय
इकोसैन शौचालय


पूरे देश में 2 अक्टूबर, 2014 को आरम्भ किये गए स्वच्छ भारत अभियान ने 76 प्रतिशत ग्रामीण घरों और 97 प्रतिशत से अधिक शहरी घरों में शौचालय बनाने में मदद की है, जबकि पहले ग्रामीण क्षेत्रों में 38 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 91 प्रतिशत घरों में शौचालय थे। इन आँकड़ों से ही पता चल जाता है कि अभियान 2 अक्टूबर, 2019 तक खुले में शौच से मुक्त (ओडीएफ) हो जाने का अपना उद्देश्य प्राप्त करने की दिशा में बढ़ रहा है।

भारत सरकार के पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय के अनुसार ओडीएफ का अर्थ है मल अथवा विष्ठा में पाये जाने वाले विषाणुओं या जीवाणुओं का मुँह के रास्ते पहुँचना बन्द होना। ओडीएफ तब माना जाता है, जब

(अ) वातावरण अथवा गाँव में विष्ठा नहीं दिखती है।
(आ) प्रत्येक घर तथा सार्वजनिक/सामुदायिक संस्था में विष्ठा के निस्तारण के लिये सुरक्षित तकनीक का प्रयोग होता है। सुरक्षित तकनीक के विकल्प का अर्थ है:

क- भूमि, भूजल तथा सतह पर पाया जाने वाला जल प्रदूषित नहीं होना।
ख- मक्खियों अथवा पशुओं का विष्ठा तक नहीं पहुँच पाना।
ग- ताजी विष्ठा हटाने की नौबत नहीं आना।
घ- बदबू और घृणाजनक स्थितियों से मुक्ति मिलना।

पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय ने बन रहे शौचालयों की वास्तविक संख्या की निगरानी करने के लिये प्लेटफॉर्म तैयार किया है, लेकिन मंत्रालय की निगरानी व्यवस्था में शौचालय के प्रकार का पता नहीं लगाया जा सकता, जो बहुत महत्त्वपूर्ण सूचक है। एकदम जमीनी-स्तर पर पहुँचना और अभियान के तहत बनाए जा रहे शौचालयों की निगरानी करना आवश्यक है।

जमीनी-स्तर पर ग्रामीण स्वच्छता की बदलती स्थिति को समझने के लिये भारतीय गुणवत्ता परिषद ने पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय के निर्देश पर एक सर्वेक्षण ‘स्वच्छ सर्वेक्षण - ग्रामीण’ कराया। सर्वेक्षण के अनुसार लगभग जिन ग्रामीण घरों में शौचालय हैं, उनमें से 91 प्रतिशत उनका प्रयोग कर रहे हैं। इससे मिशन की सफलता का पता चलता है।

जो परिवार शौचालय होने के बाद भी उनका प्रयोग नहीं कर रहे हैं, उनसे इसका कारण जानने का प्रयास भी सर्वेक्षण ने किया। सर्वेक्षण के आँकड़े बताते हैं कि खुले में शौच करने की पुरानी आदत तो शौचालयों के प्रयोग की राह में बड़ी बाधा है ही, 31.97 प्रतिशत घर शौचालयों के निर्माणाधीन होने, सीट टूटी होने और गड्ढे या टैंक भर जाने के कारण उनका प्रयोग नहीं करते।

शौचालय इस्तेमाल नहीं करने के अन्य कारण हैं- पानी की किल्लत (10.33 प्रतिशत), शौचालय में बैठने की स्थिति नहीं होना (3.25 प्रतिशत), बदबू आना (1.41 प्रतिशत), शौचालय में अंधेरा होना (1.11 प्रतिशत) और ताजी हवा नहीं आना (0.91 प्रतिशत)। इससे अभियान के लिये तकनीकी चुनौती खड़ी होती है।

गड्ढे लबालब भर जाने, शौचालय में अन्धेरा होने, हवा की आवाजाही नहीं होने, बदबू आने और पानी नहीं होने जैसे कारणों से कुछ लाभार्थी शौचालयों का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं। हो सकता है कि जिन शौचालयों का प्रयोग किया जा रहा है, इन्हीं कारणों से आगे चलकर उनका प्रयोग नहीं किया जाये। अभियान के लिये यह चुनौती है। जो लाभार्थी शौचालय जैसी सुविधाओं के निर्माण के लिये सरकार से वित्तीय सहायता ले चुके हैं, उन्हें दोबारा वित्तीय सहायता नहीं मिल सकेगी, जिससे अभियान के तहत खुले में शौच से मुक्ति का उद्देश्य अधूरा रह सकता है। शौचालयों की घटिया गुणवत्ता पिछले स्वच्छता कार्यक्रमों की असफलता का एक कारण रही है और इस अभियान में वही नहीं दोहराया जाना चाहिए।

विष्ठा की गाद या मलबे का प्रबन्धन स्वच्छता सुविधाओं से जुड़ा अहम पहलू है। विष्ठा के मलबे में फ्लश किया हुआ पानी, सफाई करने वाली सामग्री और विष्ठा होती है, जो शौचालय के पास स्थित टैंक आदि में रहती है। लेकिन पानी के साथ फ्लश वाले शौचालय या शौच बहाने के लिये अधिक पानी की जरूरत वाले शौचालय विष्ठा के मलबे का प्रबन्धन करने में चुनौती खड़ी कर रहे हैं।

अधिकतर शहरों और गाँवों में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट का अभी तक इन्तजार हो रहा है। ऐसी स्थितियों में प्रत्येक शौचालय में ही विष्ठा के मलबे का शोधन जरूरी हो जाता है। अभियान के तहत यह नई चुनौती है। देश भर में जनसंख्या बहुत सघन होने और प्रत्येक घर में सीवेज कनेक्शन नहीं होने के कारण शौचालय के पास ही ट्रीटमेंट का संयंत्र बनना या विकेंद्रीकृत कचरा प्रबन्धन की सुविधा होना आवश्यक है।

पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय दो टैंकों या गड्ढों वाले शौचालयों को लोकप्रिय बनाने के लिये कई जागरुकता कार्यक्रम चलाता आया है। किन्तु स्वच्छ सर्वेक्षण की रिपोर्ट बताती है कि जिन घरों का सर्वेक्षण किया गया, उनमें से 40.87 प्रतिशत में केवल एक टैंक वाले शौचालय हैं, 31.93 प्रतिशत में सेप्टिक टैंक वाले शौचालय और 23.89 प्रतिशत घरों में दो टैंक वाले शौचालय हैं।

एक टैंक वाले शौचालय में केवल एक गड्ढा होता है, जिसमें मल, मूत्र और सफाई के लिये इस्तेमाल किया गया पानी इकट्ठा होता रहता है। अगर पानी का इस्तेमाल बहुत कम हो तो यह शौचालय भरने में बहुत समय लेता है। लेकिन भारत में पानी शौचालयों का अभिन्न अंग होता है, ऐसे में यदि गड्ढे से पानी आर-पार जा सकता है और भूजल का स्तर काफी ऊँचा हो तो विष्ठा के मलबे से रिसकर पानी भूजल में मिल जाएगा। दोनों ही स्थितियाँ शौचालयों के सतत इस्तेमाल और भूजल को प्रदूषित होने से बचाने की राह में चुनौती हैं। साथ ही गड्ढा भर जाने पर उसे खाली करना दूसरी चुनौती होती है। इसके अलावा गड्ढा पूरा भरने और खाली होने के बीच की अवधि में लाभार्थी को वर्तमान शौचालय का विकल्प ढूँढना पड़ेगा।

जिन गाँवों में आबादी की सघनता बीचोंबीच में होती है, वहाँ शौचालय खाली करना दूर-दूर बने घरों वाले गाँव की तुलना में अधिक कठिन होता है। लेकिन शहरों में अधिकर सेप्टिक टैंक घरों के नीचे बनाए जाते हैं, जहाँ टैंक साफ करने वाला वाहन पहुँच ही नहीं सकता। चूँकि अधिकतर स्थानीय निकायों के पास सेप्टिक टैंक खाली करने की पर्याप्त सुविधा नहीं है, इसलिये निजी क्षेत्र की भूमिका शुरू हो जाती है, जिसे सेप्टिक टैंक साफ ही नहीं करना चाहिए बल्कि विष्ठा के मलबे को सुरक्षित तरीके से निपटाना भी चाहिए।

सेप्टिक टैंकों से जुड़ी कुछ अन्य समस्याएँ भी हैं। भारतीय मानक ब्यूरो के निर्देश के अनुसार 2,000 लीटर से अधिक क्षमता वाले सेप्टिक टैंक के लिये कम-से-कम दो चैम्बर होने चाहिए, जिनके बीच में दीवार हो। लेकिन गाँवों और शहरों में इन मानकों का पालन नहीं किया जा रहा है, जिसके कारण एक ही चैम्बर वाले टैंक बनाए जाते हैं, जिनके पाइप से मलबा निकलता रहता है। ऐसे मलबे से कभी-कभार पेयजल भी दूषित हो जाता है। ऐसे सेप्टिक टैंकों को समय-समय पर साफ करने और कचरे का शोधन करने के लिये स्थानीय निकायों द्वारा कोई वैज्ञानिक प्रणाली विकसित किया जाना बहुत जरूरी है।

खुले इलाके या खुली, नाली में विष्ठा बहाना भी ग्रामीण और शहरी इलाकों में बड़ी समस्या है। सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट का इस्तेमाल बहुत कम नगर निगम कर रहे हैं। ये प्लांट तब तक आर्थिक रूप से व्यावहारिक भी नहीं हैं, जब तक बारिश का पानी, सतह पर इकट्ठा पानी और बेकार पानी अलग-अलग नहीं किया जा सकता क्योंकि विष्ठा के मलबे में अतिरिक्त पानी मिल जाने से सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट पर ज्यादा बोझ पड़ जाता है। इसीलिये देश को ऐसी प्रौद्योगिकी अपनानी चाहिए, जिनमें शौचालय आदि में पानी की जरूरत ही नहीं पड़े या कम पड़े।

सुशील सैम्युअल के ‘सेप्टेजः केरलाज लूमिंग सेनिटेशन चैलेंज’ लेख में बताया गया है कि केरल में प्रत्येक घर में शौचालय उपलब्ध कराने के बाद समुदाय के सामने सेप्टिक टैंक को बार-बार साफ करने और उससे निकले मलबे के सुरक्षित निस्तारण की दूसरी चुनौती खड़ी हो गई है। उन्होंने बताया कि टैंक खाली करने से जुड़ी अधिकतर गतिविधियाँ रात 10 बजे से सुबह 5 बजे के बीच ही निपटाई जाती हैं और उससे निकला मलबा खुले में डाल दिया जाता है क्योंकि सुरक्षित निपटारे की कोई प्रणाली ही नहीं है।

शौचालयों में पानी के अधिक इस्तेमाल से दुर्लभ जन संसाधनों का नुकसान ही नहीं होता है बल्कि कम्पोस्टिंग की प्रक्रिया में भी देर होती है। स्वच्छता के क्षेत्र में श्री बिंदेश्वर पाठक द्वारा स्थापित प्रसिद्ध संस्था सुलभ फाउंडेशन ने 25 से 28 डिग्री ढलान वाली शौचालय की सीट बनाई है, जिसमें मल बहाने के लिये केवल एक से 1.5 लीटर पानी की जरूरत होती है। इससे पानी बचाने और कम्पोस्टिंग की प्रक्रिया तेज करने में मदद मिलती है।

सेप्टिक टैंक वाले शौचालयों के लिये दूसरा विकल्प ईकोसैन शौचालय है, जो बेहद सस्ता है, जिसमें पानी की जरूरत नहीं होती और जो पानी की कमी वाले इलाकों के लिये भी उचित है तथा गाँवों में ऊँचे भूजलस्तर वाले क्षेत्रों के लिये भी। शौचालय का बुनियादी सिद्धान्त विष्ठा में से पोषक तत्व पुनः प्राप्त करना और उन्हें कृषि कार्यों में इस्तेमाल करना है।

प्रयोग के बाद हर बार विष्ठा को मिट्टी अथवा राख से ढँक देना चाहिए और शौचालय का इस्तेमाल नहीं होने पर टैंक को ढक्कन से ढँक देना चाहिए। ईकोसैन शौचालय में जब गड्ढा भर जाता है तो उसे सीलबन्द कर दिया जाता है। चैम्बर में इकट्ठी विष्ठा को छह से नौ महीने के लिये छोड़ दिया जाता है ताकि यह सड़कर कम्पोस्ट में बदल जाये। चैम्बर से निकले कम्पोस्ट का इस्तेमाल खेतों में खाद के रूप में किया जाता है। कम्पोस्ट बनने की अवधि में शौचालय के लिये दूसरे गड्ढे का इस्तेमाल किया जा सकता है।

सौर ऊर्जा से स्वयं ही साफ होने वाले शौचालय हाल के वर्षों में तैयार की गई नई प्रौद्योगिकी है। इन स्वचालित, छोटे आकार वाले स्टेनलेस स्टील के शौचालयों की डिजाइन इस तरह तैयार की गई है कि जहाँ भी बिजली और विष्ठा के मलबे के शोधन की सुविधा नहीं है, वहाँ इन्हें लगाया जा सकता है। स्वचालित शौचालय होने के कारण ये इस्तेमाल के बाद हर बार सेंसर की मदद से पानी की कम-से-कम मात्रा प्रयोग कर खुद ही साफ हो जाते हैं।

आमतौर पर विष्ठा बहाने के लिये हर बार 1.5 लीटर पानी का इस्तेमाल होता है, जबकि सामान्य शौचालयों में 8-10 लीटर पानी लगता है। 10 बार इस्तेमाल के बाद इसका फर्श भी स्वयं ही धुल जाता है। बत्ती अपने-आप जलती है और उसके लिये बिजली इसमें लगे सोलर पैनल से ली जाती है। हवा के बगैर ही जैव अपघटन के जरिए कचरे के ट्रीटमेंट की व्यवस्था भी है।

कम-से-कम ऊर्जा में काम करने वाले इस शौचालय में सबसे अच्छी बात यह है कि एक बुनियादी ढाँचे पर पूरा शौचालय फिट किया जा सकता है। ऐसी प्रौद्योगिकी ग्रामीण और शहरी दोनों इलाकों के लिये सर्वोत्तम है। झुग्गियों के लिये भी हमें ऐसी तकनीक चाहिए, जिसमें विष्ठा का ट्रीटमेंट स्वयं ही हो जाये।

जहाँ विष्ठा के मलबे के ट्रीटमेंट की प्रभावी प्रक्रिया उपलब्ध नहीं है, वहाँ बायो-डाइजेस्टर शौचालय भी बहुत उपयोगी होते हैं। बायो-डाइजेस्टर शौचालय आरम्भ में रक्षा अनुसन्धान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) की ग्वालियर स्थित प्रयोगशाला ने सशस्त्र बलों के लिये ऊँचाई वाले इलाकों में लगाने के उद्देश्य से बनाए थे। इन्हें बनाने का मकसद यह था कि विष्ठा को हाथ से नहीं उठाना पड़े और उसका सुरक्षित निस्तारण भी हो जाये।

पहले शौचालयों के गहरे गड्ढों से मल निकालने के लिये कर्मचारी नियुक्त किये जाते थे और उस मल को ऊर्जा का इस्तेमाल कर जला दिया जाता था क्योंकि कम तापमान पर कचरे का प्राकृतिक जैव अपघटन नहीं होता। ऊँचाई पर इसी तरह के शौचालय बनाए जाते हैं, जिनमें 240 वॉट का सोलर पैनल भी होता है ताकि कचरे को निपटाने के लिये जरूरी ऊर्जा तैयार हो सके। इन शौचालयों को ऐसे तैयार किया गया है कि ये मानव मल को गैस और खाद में बदल देते हैं। बायो-डाइजेस्टर शौचालयों में इस्तेमाल होने वाले सूक्ष्म जीवाणु मानव विष्ठा को इस्तेमाल लायक पानी और गैप में तब्दील कर देते हैं।


देश को विकेंद्रीकृत ट्रीटमेंट संयंत्र की बहुत अधिक आवश्यकता है। इनसे निजी क्षेत्र के प्रतिभागियों को अधिक मौके मिलेंगे, रोजगार की दर बढ़ेगी, वातावरण स्वच्छ और सुरक्षित होगा। स्थानीय निकायों को बढ़ती हुई जनसंख्या की चुनौतियों से निपटने और विष्ठा मलबे के निपटारे अर्थात टैंक खाली करने से लेकर ट्रीटमेंट संयंत्र तक ले जाने की प्रभावी व्यवस्था मुहैया कराने में सक्षम बनाना आवश्यक है।बायो-डाइजेस्टर शौचालयों में बायो-डायजेस्टर टैंक लगे होते हैं, जिनमें हवा के बगैर ही पाचन की क्रिया होती है। इन टैंकों से बनी मीथेन गैस का इस्तेमाल गैस के चूल्हे जलाने और बिजली बनाने में किया जाता है, जबकि बचे हुए पदार्थ को बागवानी और खेती में खाद के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है।

चूँकि ऐसे शौचालयों के साथ किसी भौगोलिक क्षेत्र या तापमान की बन्दिश नहीं होती, इसलिये इन्हें कहीं भी लगाया जा सकता है और इन्हें सीवर नेटवर्क से जोड़ने की जरूरत भी नहीं होती। श्रीनगर के हाउसबोट और भारतीय रेल में लगे ऐसे शौचालय काफी सफल साबित हुए हैं। ऊँचे भूजल-स्तर वाले इलाकों में भी उपयुक्त होने के कारण लक्षद्वीप में भी बड़ी तादाद में ऐसे शौचालय बनाए गए हैं।

बायो-डाइजेस्टर शौचालय बनाने का खर्च स्वच्छ भारत अभियान के तहत बन रहे शौचालयों के लिये मिल रही वित्तीय सहायता से अधिक होता है, लेकिन अगर सेप्टिक टैंक से मलबा इकट्ठा करने और ट्रीटमेंट प्लांट तक ले जाने या सीवर प्रणाली लगाने में आने वाला खर्च अथवा सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाने के लिये जमीन की कीमत और उसे चलाने पर आने वाला खर्च देखा जाये तो ये शौचालय आर्थिक रूप से फायदेमन्द लग सकते हैं। बड़े स्तर पर निर्माण किया जाये, जागरुकता फैलाई जाये और आम आदमी के बीच माँग पैदा की जाये तो बायो-डाइजेस्टर शौचालयों की लागत भी घटाई जा सकती है।

ऊपर बताए गए स्वच्छता के मॉडल ऐसे इलाकों के लिये सबसे कारगर हैं, जहाँ सीवेज व्यवस्था नहीं है। मलबे के निपटारे की केन्द्रीकृत व्यवस्था के बजाय विकेन्द्रीकृत व्यवस्था बनाने के लिये यह एकदम सही समय है। साथ ही यह भी देखा गया है कि केन्द्रीकृत व्यवस्था में खर्च भी अधिक होता है और कई मंत्रालयों तथा विभागों का दखल भी होता है।

देश को विकेन्द्रीकृत ट्रीटमेंट संयंत्र की बहुत अधिक आवश्यकता है। इनसे निजी क्षेत्र के प्रतिभागियों को अधिक मौके मिलेंगे, रोजगार की दर बढ़ेगी, वातावरण स्वच्छ और सुरक्षित होगा। स्थानीय निकायों को बढ़ती हुई जनसंख्या की चुनौतियों से निपटने और विष्ठा मलबे के निपटारे अर्थात टैंक खाली करने से लेकर ट्रीटमेंट संयंत्र तक ले जाने की प्रभावी व्यवस्था मुहैया कराने में सक्षम बनाना आवश्यक है। यदि शौचालयों का सही नमूना चुना जाता है और स्थानीय निकायों को विष्ठा के मलबे की समस्या से निपटने में सक्षम बनाया जाता है तो स्वच्छता की बेहतर सुविधा प्रदान करने के पूरे फायदे उठाए जा सकते हैं।

 

 

लेखक परिचय


पद्मकांत झा, योगेश कुमार सिंह

(पद्म कांत झा नीति आयोग में उप सलाहकार (पेयजल एवं स्वच्छता) हैं; योगेश कुमार सिंह नीति आयोग में यंग प्रोफेशनल (ग्रामीण विकास) से हैं।)
ईमेल : jha.pk@gov.in;
singh.yogeshkr@gmail.com

 

 

 

 

 

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