मणिबेली

30 Dec 2014
0 mins read
विस्थापित आदिवासियों, वनवासियों की ओर से लड़ी जाने वाली यह पहली लड़ाई नहीं है, यह शायद पहली लड़ाई है, जिसकी ओर राष्ट्र तथा विश्व का ध्यान गया है। नर्मदा बाँध की योजना जब पूरी हो जाएगी तब कई राज्यों में फैला हुआ एक विस्तृत आदिवासी इलाका जलमग्न हो जाएगा। इसके बारे में, नर्मदा बचाओ आन्दोलन ने एक देशव्यापी चेतना और चर्चा पैदा की है। नर्मदा बाँध की विशाल योजना में जो सर्वप्रथम गाँव डूबने वाला है, वह है महाराष्ट्र का एक छोटा-सा आदिवासी गाँव - मणिबेली। कहा जाता है कि वर्षा के आते ही यह गाँव जलमग्न हो जाएगा। मणिबेली के साथ और कुछ गाँव इसी साल डूबेंगे।

मार्च के महीने से इस गाँव को खाली कराने का सघन प्रयास चल रहा है। सरकार की सशस्त्र पुलिस, ट्रकें, बुल्डोजर आदि वहाँ तैनात हैं। बाँध के समर्थक गैर सरकारी संगठन के कुछ सामाजिक कार्यकर्ता भी कोशिश कर रहे हैं कि यह गाँव जल्द से जल्द खाली हो जाए - वे ग्रामवासियों को बाँध और विस्थापन के समर्थन में समझा रहे हैं।

‘नर्मदा बचाओ आन्दोलन’ के कार्यकर्ता इसके प्रतिरोध में जुटे हुए हैं। उनकी मुख्य नेता मेधा पाटकर वहाँ से हट नहीं रही हैं, उनके साथ गाँव की आधी आबादी अभी भी है। सरकारी दबाव तथा गैर सरकारी संगठन के कार्यकर्ताओं के परामर्श पर आधी आबादी गाँव छोड़ चुकी है। गुजरात सरकार ने जहाँ उसके लिए पुनर्वास का इंतजाम किया है, वहाँ वह चली गई है। शक्ति-परीक्षण की इस घड़ी में आधा गाँव आन्दोलनकारियों के साथ डटा हुआ है।

यह एक असमान युद्ध है। एक तरफ तो मणिबेली के भोले-भाले आदिवासियों के पचास परिवार हैं। दूसरी तरफ बड़े बाँध के खेमे में विश्वबैंक और उसकी विकास नीति है, भारत का राज्यतंत्र है और विश्वबैंक द्वारा निर्देशित विकास पद्धति को अधंविश्वास के तौर पर मानने वाले तमाम बुद्धिजीवियों के समूह हैं, जिनका सम्मिलित उपहास ‘आधुनिक विकास विरोधी’ लोगों की हिम्मत पस्त कर देता है।

फिर भी इस विकास-पद्धति के विरुद्ध तीसरी दुनिया के अंदर एक प्रतिवाद खड़ा हो रहा है। उसकी आवाज तर्कपूर्ण बन रही है। जन आन्दोलन करने वाले कई संगठनों के द्वारा हाल में पारित एक नीति-वक्तव्य का मसविदा कहता हैः

‘बड़े बाँध की अव्यावहारिकता इस रूप में बिल्कुल स्पष्ट है कि (क) बड़ी बाँध योजनाओं से देश का बड़ा हिस्सा हमेशा असिंचित रहेगा, (ख) सिंचाई जैसी बुनियादी सेवा के लिए किसी राष्ट्र को पूरी तरह विदेशी मदद पर आश्रित करना शर्मनाक बात है, (ग) देश की अर्थनीति में जब भी जनता के हित में मौलिक परिवर्तन किए जाएंगे, यह विदेशी मदद बंद हो जाएगी। अपनी सरकारों के लिए इन बाँधों का खर्च वहन करना संभव नहीं है, (घ) इनसे होने वाले घाटे और विस्थापन को राष्ट्र बर्दाश्त नहीं कर सकता। विस्थापितों को मानवीय मुआवजा देना अभी तक संभव नहीं दिख रहा है - यह सरकार के बूते के बाहर की बात है।’

स्वतंत्र भारत में अभी जितनी बड़ी योजनाएं बनी हैं, उनमें से किसी के द्वारा भी आदिवासियों का सामूहिक कल्याण नहीं हुआ है। यह एक क्रूर विडंबना है कि आदिवासियों के इलाके में तब कोई विकास होता है जब उनको उस इलाके से संपूर्ण रूप से हटा दिया जाता है यानी आदिवासियों का विनाश आधुनिक विकास की एक अनिवार्य शर्त है। अरबों रुपए के खर्च से बनी बीसियों योजनाओं की समीक्षा इस सत्य को उजागर करती है।

विस्थापित आदिवासियों, वनवासियों की ओर से लड़ी जाने वाली यह पहली लड़ाई नहीं है, यह शायद पहली लड़ाई है, जिसकी ओर राष्ट्र तथा विश्व का ध्यान गया है। नर्मदा बाँध की योजना जब पूरी हो जाएगी तब कई राज्यों में फैला हुआ एक विस्तृत आदिवासी इलाका जलमग्न हो जाएगा। इसके बारे में, नर्मदा बचाओ आन्दोलन ने एक देशव्यापी चेतना और चर्चा पैदा की है। लेकिन हम नहीं कह सकते हैं कि आदिवासियों की सुरक्षा के लिए कोई देशव्यापी वातावरण पैदा हुआ है। भारत का औसत शिक्षित नागरिक आदिवासियों के विरुद्ध है।

रोजा लुक्सेमबर्ग की इस बात पर अभी तक बुद्धिजीवियों का ध्यान नहीं गया है कि पूंजीवादी व्यवस्था को बनाए रखने के लिए हमेशा एक प्राक-पूंजीवादी दुनिया चाहिए, जिसका शोषण करके ही पूंजीवाद समृद्धि के उत्पादन की प्रक्रिया को जारी रख सकता है। भारत जैसे विकासशील देश में हम इस प्रक्रिया को अपनी आंखों के सामने देख सकते हैं कि देश के एक हिस्से को विकसित करने के लिए अपने ही देश के कुछ अन्य हिस्सों को उसी तरह कुचलना पड़ रहा है, जिस तरह कि साम्राज्यवादी देशों ने उपनिवेशों को कुचला और उनका दोहन किया था। दोहन के लिए उन्हीं इलाकों को चिन्हित किया जाता है, जिनमें आदिवासी या आदिवासी जैसी जातियां रहती हैं। और विकास के लिए उन इलाकों को ही चुना जाता है जिनमें संभ्रांत वर्ग और जातियों के लोग रहते हैं (या आकर रहेंगे)। इस नियम का अपवाद भी ढूंढना मुश्किल है।

आदिवासियों के बारे में एक बात जानना बहुत जरूरी है। राज्यतंत्र और विकासतंत्र के अत्याचार का मुकाबला जिन समूहों को करना पड़ता है, उनमें सबसे कमजोर आदिवासी हैं। हरिजनों जैसा उनको अपमानित नहीं होना पड़ता, फिर भी हरिजनों की तुलना में वे ज्यादा कमजोर हैं। खासकर उनको जब गैर-आदिवासियों के बीच या बाजू में अल्पसंख्या में रहना पड़ता है, वहाँ वे बिल्कुल कमजोर होते हैं। झारखंड आन्दोलन के बाहर कभी भी उनकी प्रतिरोध शक्ति नहीं दिखाई देती। उनके साथ खिलवाड़ करना बहुत आसान है।

राज्यतंत्र और विकासतंत्र के द्वारा उनको हतोत्साहित करने की कोशिश कामयाब हो जाती है, क्योंकि उनकी बुद्धि दृढ़ नहीं होती है। मेधा पाटकर सही हैं या ‘आर्च वाहिनी’ (गुजरात का बाँध समर्थक गैर सरकारी संगठन) सही है, यह जानना उनकी बुद्धि के बाहर है, क्योंकि छल-कपट को वे कम समझ पाते हैं। उनको यह भी भय हो सकता है कि कहीं वे राष्ट्र के विकास या दूसरे लोगों के विकास में बाधा तो नहीं डाल रहे हैं।

इसलिए इस असमान युद्ध में हमारा हृदय आदिवासियों की तरफ जाता है। ‘नर्मदा बचाओ आन्दोलन’ में यह संभावना बनी हुई है कि मणिबेली और आसपास के गाँव के सारे आदिवासी परिवार दबाव से पराजित होकर बाँध विरोधी आन्दोलन से हट जाएं, लेकिन हमारी इच्छा है कि नर्मदा बाँध विरोधियों को अपूर्व शक्ति प्राप्त हो ताकि विश्व बैंक और उसके विकासतंत्र को धक्का लगे।

‘आर्च वाहिनी’ को हम इस बात का श्रेय देते हैं कि उन्होंने विस्थापन के लिए न्यायपूर्ण मुआवजे का आन्दोलन चलाकर पुनर्वास सम्बन्धी कुछ ऐसे नियम बनवाए हैं जो पहले कभी नहीं थे। लेकिन हम जानते हैं कि अधिकांश विस्थापित आदिवासी इन नियमों के लाभ से वंचित रहेंगे। जब वीजी वरगीस जैसे मान्य व प्रतिष्ठित पत्रकार मणिबेली जाते हैं और वहाँ पुलिस के शांतिपूर्ण आचरण की तारीफ करते हैं, उनके बयानों में एक मौलिक खोट रह जाता है, उनके बयान से यह सूचना नहीं मिलती की गुजरात और महाराष्ट्र की सरकारें आदिवासियों को किस तरह पुनर्वास की सुविधा दे रही हैं और उस संबंध में खुद वरगीस संतुष्ट हैं या नहीं। आदिवासियों पर नर्मदा जैसे बाँधों का क्या असर होगा - इस बारे में भी वे मुखर नहीं हैं।

पुलिस की ज्यादतियों के बारे में दो परस्पर विरोधी बयान आ रहे हैं। निर्विवादीय तथ्य यह है कि उस छोटे से गाँव में सैकड़ों सशस्त्र पुलिस, बहुत सारे ट्रक और बुल्डोजर मौजूद हैं। पुलिस का उद्देश्य कुछ भी हो, एक आदिवासी गाँव में पुलिस की इस तरह की उपस्थिति दहशत पैदा करने वाली है और भोले-भाले लोगों के दिमाग को कुचलने वाली है। ‘आर्च वाहिनी’ खुद सामाजिक कार्यकर्ताओं का एक समूह है। उसके लिए यह शोभा नहीं देता है कि सशस्त्र पुलिस और बुल्डोजरों की उपस्थिति में वह ग्रामवासियों के हृदय परिवर्तन की कोशिश करे। उसको चाहिए था कि पहले वह सशस्त्र पुलिस को हटाने की मांग करती। ‘नर्मदा बचाओ आन्दोलन’ भी उनके जैसा एक जन आन्दोलन है - हालांकि दोनों के लक्ष्यों में भिन्नता है। ऐसी स्थिति में ‘आर्च वाहिनी’ के लिए उचित था कि उस स्थल पर न जाए जहाँ एक दूसरा जन-संगठन अपनी आखिरी लड़ाई लड़ रहा है। इतना नकारात्मक समन्वय सारे जन आन्दोलन के बीच होना चाहिए। नहीं तो न्यस्त स्वार्थ समूह, एक जनांदोलन को दूसरे जनांदोलन के विरुद्ध लड़ाएंगे।

मणिबेली एक महान नाटकीय स्थिति में है। इसका माहौल त्रासदीमय है। परिणति की कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती।
Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading