मनरेगा का मूल्य

3 May 2013
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मनरेगा पर सीएजी की रिपोर्ट आने के बाद से इस महायोजना पर एक बार फिर देश भर में बहस तेज हो गई है। बहस का मुद्दा यह भी है कि अगर इस योजना में कुछ सालों में ग्रामीण भारत की तस्वीर बदलने की संभावना तलाशी जा रही थी तो फिर चूक कहां हो रही है? क्या इन सात सालों में मनरेगा ने भ्रष्टाचार को गांव और गलियों तक पहुंचा दिया है? कुछ ऐसे ही सवालों पर यह फोकस

इस योजना को आधार कार्ड और प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण योजना से जोड़ा जा रहा है इसलिए आशंका यह भी पैदा हो रही है कि कहीं यह रोज़गार की बजाय मूलतः भ्रष्टाचार और अराजकता का कार्यक्रम बनकर न रह जाए। इसे एक विडंबना ही कहेंगे कि जिस योजना को संप्रग सरकार अपना यूएसपी मानती है, जिसे रोज़गार गारंटी और ग्रामीण क्षेत्रों विशेषकर महिलाओं-दलितों को रोज़गार और उसके माध्यम से उनको आर्थिक रूप से सक्षम बनाने का संसार का सबसे अनोखा कार्यक्रम कहकर प्रचारित किया जाता है, सरकार प्रति वर्ष दो फरवरी को पूरे तामझाम से जिसकी वार्षिकी मनाती है, वह हमेशा भ्रष्टाचार और ख़ामियों को लेकर चर्चा में आता है। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार, गारंटी योजना (मनरेगा) इस समय महालेखा नियंत्रक एवं लेखा परीक्षक या सीएजी की अंकेक्षण रिपोर्ट को लेकर सुर्खियों में है। सीएजी ने अप्रैल, 2007 से मार्च, 2012 की अवधि के बीच 28 राज्यों और चार संघ शासित प्रदेशों की 3848 ग्राम पंचायतों में मनरेगा को जांच करने के बाद रिपोर्ट प्रस्तुत की है। अगर इस रिपोर्ट को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया जाए तो मनरेगा नियमों-प्रावधानों के पालन से परे भ्रष्टाचार और मनमानेपन की योजना बनती जा रही है। हालांकि इसमें भ्रष्टाचार के जिन बिंदुओं क चिह्नित किया गया है, उन सबको हम भ्रष्टाचार नहीं मान सकते। स्थानीय परिस्थितियां बिल्कुल वैसी नहीं हो सकतीं, जैसी हमने शीर्ष से कल्पना कर ली हो। फिर भी सीएजी रिपोर्ट ने अब तक आई शिकायतों पर काफी हद तक औपचारिक मुहर लगा दी है। अब चूंकि इस योजना को आधार कार्ड और प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण योजना से जोड़ा जा रहा है इसलिए आशंका यह भी पैदा हो रही है कि कहीं यह रोज़गार की बजाय मूलतः भ्रष्टाचार और अराजकता का कार्यक्रम बनकर न रह जाए।

इसे एक विडंबना ही कहेंगे कि जिस योजना को संप्रग सरकार अपना यूएसपी मानती है, जिसे रोज़गार गारंटी और ग्रामीण क्षेत्रों विशेषकर महिलाओं-दलितों को रोज़गार और उसके माध्यम से उनको आर्थिक रूप से सक्षम बनाने का संसार का सबसे अनोखा कार्यक्रम कहकर प्रचारित किया जाता है, सरकार प्रति वर्ष दो फरवरी को पूरे तामझाम से जिसकी वार्षिकी मनाती है, वह हमेशा भ्रष्टाचार और ख़ामियों को लेकर चर्चा में आता है। वैसे संयुक्त राष्ट्र तक इस कार्यक्रम की प्रशंसा कर चुका है। ग्राणीण विकास मंत्रालय का 36 प्रतिशत बजट मनरेगा पर खर्च होता है। वास्तव में आवंटित राशि और योजना की दृष्टि से यह अब तक की सबसे महत्वाकांक्षी योजना है।

वैसे इस योजना की कोई उपलब्धि ही नहीं है, ऐसा कहना गलत होगा। सात वर्षों में मनरेगा में कुल 2 लाख 5 हजार 500 करोड़ रुपया आवंटित हुआ, जो अपने आप में रिकॉर्ड है। इसमें से एक लाख 30 हजार करोड़ रुपया रोज़गार पर खर्च होने का दावा किया गया है। आंकड़ों पर विश्वास करें तो 8 करोड़ लोगों तक इसका फायदा पहुंचा तथा 5 करोड़ से अधिक परिवारों को रोज़गार प्राप्त हुआ। रोज़गार कार्ड मिलने वालों की संख्या रही 12 करोड़ 54 लाख। इन्हें औसत 65 से 115 रुपये के बीच दैनिक मजदूरी मिली। ये आंकड़े किसी को भी चमत्कृत कर सकते हैं। आंकड़ों का आकर्षक पक्ष यह भी है कि इसमें 47 फीसद महिलाओं की भागीदारी और 80 फीसद से अधिक धन उनके खाते में जाना है।

जाहिर है, आम परिवारों में पुरुषों पर निर्भर महिलाएं अपने हाथों आए धन के कारण कई प्रकार के आर्थिक फैसले कर रही हैं और इस नाते मनरेगा का योगदान अद्भुत माना जाएगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अनुसार मनरेगा के कारण करीब 4 करोड़ खाते बैंकों में तथा इससे ज्यादा डाकघरों में खोले गए। साफ है कि इन खातों का उपयोग केवल मनरेगा मजदूरी के लिए नहीं, अन्य योजनाओं का धन सीधे खातेदारों तक पहुंचाने की योजनाओं में भी उपयोगी होगा।

हालांकि इन आंकड़ों के दूसरे पहलू भी हैं। मसलन, ग्रामीण विकास मंत्रालय की रिपोर्ट से ही पता चलता है कि 2012 में दिसंबर तक कुल 4 करोड़ 19 लाख रोज़गार मांगने वाले परिवारों में से केवल 13.65 प्रतिशत परिवारों को ही 100 दिन काम मिला। इस तरह 2012-13 के 9 महीनों में 100 दिन काम पाने वालों की संख्या केवल 3.29 प्रतिशत रही। 2011-12 में भी केवल 7 प्रतिशत परिवारों को ही 100 दिन काम मिला था। 2009-10 में प्रत्येक परिवार को औसतन 54 दिन रोज़गार मिला, जो 2011-12 में 43 दिन और 2012-13 में दिसंबर तक 34 दिन रह गया। पिछले तीन सालों में रोज़गार सृजन में 25 फीसद की कमी आई है। इस बीच कुछ राज्यों कर्नाटक, राजस्थान, असम, गुजरात, बिहार और मध्य प्रदेश में रोज़गार सृजन में 70 प्रतिशत से ज्यादा गिरावट देखी गई है। हालांकि महाराष्ट्र, तमिलनाडु, केरल, हरियाणा, छत्तीसगढ़ और जम्मू-कश्मीर में इस मामले में वृद्धि भी देखी गई है।

अगर दलितों की बात करें तो पछले तीन सालों में इनके रोज़गार में 46 फीसद की कमी आई है। आदिवासियों के रोज़गार में 35 प्रतिशत और महिलाओं को मिलने वाले रोज़गार में 25 प्रतिशत की कमी आई है। ऐसा क्यों हुआ इसकी एक वजह यह भी बताई जाती है कि इस दौरान लाभार्थी वर्ग की आर्थिक-सामाजिक स्थिति बेहतर हुई है, पर तर्क को स्वीकार करना कठिन है।

कैग की रिपोर्ट को शामिल कर लें तो तस्वीर और चिंताजनक हो जाएगी। इसके अनुसार, श्रम दिवसों की संख्या में लगातार कमी आई है। 2009-10 में 283.59 करोड़ श्रम दिवस के मुकाबले 2011-12 में केवल 216.34 करोड़ श्रम दिवस सृजित होने का ही रिकार्ड है। मनरेगा में 2010-11 में ग्रामीण रोज़गार 54 दिन से घटकर 43 हो गया। इसका एक अर्थ यह भी है कि इस योजना को लेकर दिलचस्पी घट रही है। बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान में कई बार स्थानीय परिस्थितियों के कारण राशि का उपयोग नहीं होता है। देश के सर्वाधिक गरीब राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र जहां देश के 46 प्रतिशत गरीब रहते हैं। सीएजी के अनुसार क्रियान्वयन इन राज्यों में कमजोर है जिसका प्रमाण यह है कि इनमें मनरेगा की धनराशि महज 20 प्रतिशत खर्च हुई। उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ में गरीब बढ़ने का अर्थ यही है कि गरीबी घटाने में यह योजना कामयाब नहीं हुई है।

अब प्रश्न है कि अगर इसे आधार कार्ड और नकद हस्तांतरण योजना से जोड़ दिया जाए तो क्या स्थितियाँ बदल जाएंगी? ऐसा तो सोचना ही गलत है। आधार कार्ड स्वयं ही एक सफेद हाथी जैसी योजना है। भारत में प्रत्येक वर्ष यदि एक ऑस्ट्रेलिया पैदा हो जाता है तो इतने लोगों को आधार कार्ड पहुंचाना कतई संभव नहीं है। इसमें आप नकद हस्तांतरण सभी को नहीं कर सकते। फिर यदि नकद हस्तांतरण निश्चित हो गया और समयचक्र के अनुसार उसे संबंधित व्यक्ति के खाते में पहुँचना ही है तो फिर यह भी होगा कि जो व्यक्ति काम नहीं करेगा उसके खाते में भी राशि हस्तांतरित हो जाएगी। पता नहीं सरकार और इस योजना के समर्थक यह क्यों नहीं समझ रहे कि आधार कार्ड, फिर हर जगह बैंक शाखाओं की स्थापना और उसके संचालन पर अनावश्यक कितनी राशि व्यय होगी।

हालांकि इस दावे में सच्चाई है कि मनरेगा धीरे-धीरे ग्रामीण विकास, महिला सशक्तिकरण, अनुसूचित जाति-जनजाति उत्थान के महत्वपूर्ण लक्ष्य को पाने के साथ कृषि के विकास और गाँवों में आधारभूत संरचना को मजबूत करने में भी भूमिका निभा रहा है। इसके अलावा रोज़गार न मिलने के कारण पलायन करने वालों की संख्या में कमी इसका एक महत्वपूर्ण फलक है। जबसे इसे खेती के साथ जोड़ने की पहल ग्रामीण विकास मंत्रालय ने की तब से छोटे किसानों को सरकारी मजदूरी पर कुछ मज़दूर मिलने लगे हैं। किन मनरेगा का बसे बड़ा रोज़गार के नाम पर अनुत्पादक और अनावश्यक कार्य किया जाना रहा है, जो अपने-आप में भ्रष्टाचार है। गाँवों में सामुदायिक संपत्ति के सृजन, सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराने, भूमि विकसित करने आदि के लिए इनके उपयोग से मनरेगा का संस्कार बदल सकता है। मनरेगा ने दो ऐसी बुराइयों को बढ़ाया है जिनका नुकसान हमें लंबे समय तक झेलना पड़ेगा। इस योजना के कारण कृषि मज़दूरों की कमी की मार चारों ओर पड़ी है। दूसरे, इसने परिश्रमी वर्ग के अंदर बिना काम या काम की महज औपचारिकता पूरी कर मजदूरी पाने का अभ्यास पैदा किया है। यहीं से ऐसे लोगों के भ्रष्ट होने का आधार भी बना है।

सरकार भी कबूलती है कमियाँ


ग्रामीण विकास मंत्रालय की पुस्तिका में यह स्वीकार किया गया है कि मनरेगा का वास्तविक उद्देश्य अभी व्यापक स्तर पर पूरा होना शेष है और ग्रामीण क्षेत्र में बड़े बदलाव के उपकरण के तौर पर इसकी संभावनाएं भी अभी साकार होनी बाकी है। सरकार का मानना है कि इसे दूर करने के लिए गाँवों में डाकघरों और बैंकों को अपनी पहुंच बढ़ानी होगी। केंद्री ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने इसमें धोखाधड़ी, राशि के दुरुपयोग और भ्रष्टाचार की बात को स्वीकार किया है।

योजना की संरचना और प्रक्रिया के दोषों तथा व्यापक भ्रष्टाचार को अनेक अंकेक्षणों, रिपोर्टों में सामने लाया गया है। इनमें मज़दूरों को भुगतान में विलंब होना, कम भुगतान होने के साथ इस योजना के तहत जो परिसंपत्तियां निर्मित हो रही हैं उनकी गुणवत्ता पर पूरा ध्यान नहीं दिए जाने की शिकायतें शामिल हैं।

बकौल सीएजी रिपोर्ट


मनरेगा पर सीएजी की रिपोर्ट से इस महायोजना को लेकर कई सारी आशंकाओं-शिकायतों की पुष्टि तो हुई ही, इसके क्रियान्वयन को लेकर आ रही कठिनाइयाँ भी सामने आई हैं।

1. 47,687 से अधिक मामलों में न लाभार्थियों को रोज़गार मिला और न बेरोज़गारी भत्ता ही।
2. 23 राज्यों में लाभार्थियों को रोज़गार दिया गया लेकिन मजदूरी नहीं, कहीं मजदूरी मिली भी तो काफी देर से।
3.मनरेगा के तहत किए गए अनेक काम पांच वर्षों में भी आधे-अधूरे हैं। जो निर्माण कार्य हुए उनकी गुणवत्ता भी खराब है।
4.मनरेगा के तहत आवंटित धन का 60 प्रतिशत मजदूरी और 40 प्रतिशत निर्माण सामग्री पर खर्च के अनुपात का पालन नहीं हो रहा है।
5.केंद्र के स्तर पर निधियों के आवंटन में भी कई स्तरों पर ख़ामियाँ हैं।
6.2011 में जारी 1960,45 करोड़ रुपये का पूरा हिसाब नहीं मिला है।
7. 25 राज्यों और संघ शासित प्रदेशों में 2,252.43 करोड़ रुपये के 1,02,100 ऐसे कार्य कराए गए जिनकी कभी मंजूरी ही नहीं ली गई थी।
8.उत्तर प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र, पंजाब और राजस्थान ने सात साल गुज़र जाने पर भी मनरेगा की नियमावली नहीं बनाई है।
9.उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, समेत नौ राज्यों ने ग्राम रोज़गार सहायक नहीं रखे हैं।
10.उत्तर प्रदेश के 7,66,569 और बिहार के 6,836 दस्तावेज़ अपूर्ण मिले।
11.मनरेगा से ग़रीबों का मोह भंग हो रहा है। श्रम दिवसों की संख्या घट रही है।
12.वर्ष 2009-10 में 283.59 करोड़ श्रम दिवस के मुकाबले 2011-12 में 216.34 करोड़ श्रम दिवस ही रह गया।

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