मनरेगा में लूट चिंताजनक

26 Apr 2013
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बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में गरीब बढ़ने का अर्थ यही है कि गरीबी घटाने में यह योजना कामयाब नहीं हुई है। यानी कोई योजना शत-प्रतिशत उसी रूप में ज़मीन पर नहीं उतर सकती जिस रूप में शीर्ष पर कल्पना की जाती है। साथ ही जब हमारे समाज का प्रभावी तबका भ्रष्टाचार को आम व्यवहार मानकर आचरण करता तो भ्रष्टाचार मुक्त कोई योजना रह ही नहीं सकती। किंतु कुल मिलाकर अगर मूल लक्ष्य में ही योजना सफल नहीं है, भयावह भ्रष्टाचार का शिकार है तथा परिश्रम करने वाले वर्ग को भ्रष्ट और कामचोर बना रहा है तो फिर ऐसी योजना पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। पहली बार ऐसा है जब केंद्र सरकार नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) के आकलन पर कोई विरोधी या नकारात्मक टिप्पणी नहीं कर रही है। पिछले कुछ सालों के अंदर कैग की रिपोर्टों पर केंद्र सरकार की प्रतिक्रियाओं को याद कीजिए तो पहली नजर में यह आश्चर्यजनक लगेगा। चाहे 2जी हो, या कोयला ब्लॉक आबंटन या और मामले, सरकार के मंत्रियों एवं कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ताओं ने हमेशा कैग के आकलन को निराधार ठहराया और धीरे-धीरे तो उसे अविश्वसनीय या संदिग्ध बनाने की भी कोशिशें हुईं। लेकिन मनरेगा पर उसके आकलन को सरकार ने एकबारगी खारिज करने की बजाय सकारात्मक प्रतिक्रिया दी। ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने कहा है कि ऑडिट रिपोर्ट में काफी अच्छी बातें हैं और कैग ने कुछ गड़बड़ियाँ गिनाई हैं उनका संज्ञान लेकर सुधार की कोशिश की जाएगी। तो क्या माना जाए कि सरकार ने एक से एक भ्रष्टाचार के आरोपों को देखते और विपक्ष के हमलों का ध्यान रखते हुए कैग के साथ नया मोर्चा खोलने से परहेज किया है? या वाकई कैग ने जो कहा है वह कटु सत्य है जिसके ज्यादातर अंशों को स्वीकार करने के अलावा सरकार के सामने कोई विकल्प नहीं था?

वास्तव में कैग का निष्कर्ष इस बार आकलन की बजाय ज्यादातर स्वयं सरकारी रिपोर्टों की गहरी छानबीन, धन के आबंटन और उनके उपयोगों की अलग-अलग राज्यों से आए दस्तावेज़ों, उनमें भ्रष्टाचार और धांधली की स्थानीय शिकायतों, उन पर हुई कार्रवाई, रोज़गार रजिस्टर, जॉब कार्ड, मस्टर रॉल आदि पर आधारित है। इसमें मीन-मेख निकालने की गुंजाइश बेहद कम है। यह आडिट रिपोर्ट अप्रैल, 2007 से मार्च, 2012 की अवधि की है जिसे 28 राज्यों और चार संघ शासित प्रदेशों की 3848 ग्राम पंचायतों में मनरेगा की जांच करने के बाद प्रस्तुत किया गया है। इसलिए इसे कपोल कल्पित कहना संभव ही नहीं।

वर्तमान बजट के अनुसार 33,000 करोड़ रुपए की इस वार्षिक योजना पर कैग रिपोर्ट के कुछ बिंदुओं पर नजर दौड़ाइए। संक्षेप में हम ऐसे दस बिंदुओं का उल्लेख कर सकते हैं। एक, 47 हजार 687 से अधिक मामलों में लाभार्थियों को न रोज़गार मिला और न बेरोज़गारी भत्ता। दो, 3 राज्यों में लाभार्थियों को रोज़गार दिया गया लेकिन मजदूरी नहीं। तीन, कहीं मजदूरी मिली भी तो काफी देर से। चार, मनरेगा के तहत किए गए काम पांच वर्षों में भी आधे-अधूरे रहे हैं। पांच, निर्माण कार्य की गुणवत्ता भी अत्यंत खराब रही। छह, मनरेगा के तहत आबंटित धन का 60 प्रतिशत मजदूरी और 40 प्रतिशत निर्माण सामग्री पर खर्च करने के नियम का पालन नहीं हुआ। सात, केंद्र के स्तर पर निधियों के आबंटन में भी ख़ामियाँ पाई गईं। आठ, वर्ष 2011 में जारी हुए 1960.45 करोड़ रुपए का हिसाब ही नहीं मिला। नौ, निगरानी के काम में भी जमकर ढिलाई बरती गई। दस, भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में केंद्र ने कार्रवाई नहीं की, बल्कि उल्टे भ्रष्टाचार करने वालों को बचाया गया। इसका दसवां बिंदू सबसे ज्यादा चिंताजनक एवं इस योजना पर ही प्रश्न खड़ा करने वाला है।

केंद्र सरकार की ऐसी योजना जिसका लक्ष्य समाज के निर्धनतम तबके को वर्ष में कम से कम 100 दिन रोज़गार देना है, या रोज़गार न मिलने पर उनको बेरोज़गारी भत्ते के रूप में इतनी राशि देनी है ताकि उनके न्यूनतम जीवनयापन में सहायता मिल सके। जिसे कांग्रेस एवं यूपीए आज़ादी के बाद ग़रीबों को रोज़गार अधिकार का ऐतिहासिक कदम बताकर प्रचारित करता है तो इस ढंग की धांधली पर किसका हृदय नहीं फटेगा। स्वयं कैग कह रहा है कि भ्रष्टाचार से संबंधित जिन 85 मामलों की फाइलें उसने मांगी, उनमें से उसे जांच के लिए सिर्फ 21 दी गईं। जाहिर है, शेष 64 फाइलें मिलती तो खजाने के धन का वारा-न्यारा होने के और प्रमाण मिलते। इसी तरह 25 राज्यों और संघ शासित प्रदेशों में 2,252.43 करोड़ रुपए के 1,02,100 ऐसे कार्य कराए गए जिनकी कभी मंजूरी नहीं ली गई या उनका मनरेगा में प्रावधान नहीं था। इन कामों में कच्ची सड़क, सीमेंट कंक्रीट की सड़क, मवेशियों के लिए चबूतरे का निर्माण शामिल हैं। उत्तर प्रदेश में वनीकरण, बाढ़ सफाई, रामगंगा कमान और सिंचाई विभाग के पूरक बजट में मनरेगा के धन का इस्तेमाल किया गया। यह हो सकता है, क्योंकि स्थानीय स्तर की तात्कालिक आवश्यकता योजना के प्रावधानों से अलग होते हैं।

लूट मची है मनरेगा के कामों मेंलूट मची है मनरेगा के कामों मेंसात राज्यों में 4.33 लाख जॉब कार्ड बगैर तस्वीरों के मिलना चिंता की बात है, पर इसे शत-प्रतिशत भ्रष्टाचार नहीं मानना चाहिए। इसी प्रकार मंत्रालय द्वारा मांग से भी अधिक अनुदान जारी करना या पूरा खर्च न होने पर भी आगे की राशि जारी करने के दूसरे पहलू हैं। केंद्र ने राज्यों की मांग पर 2010-11 में धन जारी करने संबंधी शर्तों में ढील दी जिसके तहत ऐसा हुआ है। कैग नियमों के आइने में इन सबकी आलोचना कर सकता है, और इनमें भ्रष्टाचार की गुंजाइश है, पर यदि आप नियमों में ढिलाई नहीं बरतते, तथा काम पूरा होने पर ही धन जारी करेंगे तो कार्य और रोज़गार का चक्र रुक जाएगा। कई बार स्थानीय परिस्थितियों के कारण राशि का उपयोग नहीं होता। मसलन, बिहार, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में आबंटित धनराशि का सिर्फ बीस फीसदी ही उपयोग हुआ।

अब यदि इसके मूल उद्देश्य गरीबी कम करने के पैमाने पर विचार करें तो तस्वीर निराशाजनक ही है। देश के सर्वाधिक गरीब राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र, जहां देश के 46 प्रतिशत गरीब रहते हैं, में अगर योजना का क्रियान्वयन कमजोर है और इनमें मनरेगा की धनराशि अत्यंत कम केवल 20 प्रतिशत खर्च हुई तो इसके कारण क्या हो सकते हैं इसका गहराई से विचार करना चाहिए। ध्यान रखने की बात है कि मनरेगा में 2010-11 में ग्रामीण रोज़गार 54 दिन से घटकर 43 हो गया। 2009-10 में 283.59 करोड़ व्यक्ति दिवस रोज़गार सृजित हुआ था जबकि 2011-12 में यह 216.34 करोड़ व्यक्ति दिवस हुआ।

इसका अर्थ है कि इस योजना के प्रति रुचि घट रही है। बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में गरीब बढ़ने का अर्थ यही है कि गरीबी घटाने में यह योजना कामयाब नहीं हुई है। यानी कोई योजना शत-प्रतिशत उसी रूप में ज़मीन पर नहीं उतर सकती जिस रूप में शीर्ष पर कल्पना की जाती है। साथ ही जब हमारे समाज का प्रभावी तबका भ्रष्टाचार को आम व्यवहार मानकर आचरण करता तो भ्रष्टाचार मुक्त कोई योजना रह ही नहीं सकती। किंतु कुल मिलाकर अगर मूल लक्ष्य में ही योजना सफल नहीं है, भयावह भ्रष्टाचार का शिकार है तथा परिश्रम करने वाले वर्ग को भ्रष्ट और कामचोर बना रहा है तो फिर ऐसी योजना पर पुनर्विचार की आवश्यकता है।

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