मंदी को रोकेगी खेती

12 Sep 2015
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कृषि उत्पादन राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के विकास पर काफी हद तक असर डालता है और निर्माण के पैमाने व गति को प्रत्यक्ष रूप से निर्धारित करता है। जब भी फसल खराब हुई है तो उसके तत्काल बाद हल्के और भारी औद्योगिक उत्पादन में भारी कमी आई है। उसके बाद जब कृषि की हालत सुधरी तो औद्योगिक उत्पादन दोबारा बढ़ना शुरू हो गया।

वैश्विक अर्थव्यवस्था की सुस्ती का मुकाबला करने के लिए प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने भारतीय उद्यमियों से कुछ जोखिम उठाकर भी निवेश बढ़ाने की अपील की है। वैश्विक अर्थव्यवस्था में उथल-पुथल और चीन में आई मंदी को लेकर उद्यमियों, बैंकरों और सरकार की एक बैठक में उद्यमियों ने सरकार से ब्याज दर कम करने, कारोबार को आसान करने के लिए सरकार से और कदम उठाने की मांग की है। उद्यमियों ने कृषि क्षेत्र में निवेश बढ़ाने के साथ-साथ इसको आधुनिक बनाने पर जोर दिया।

सिंचाई पर भी ध्यान देने की बात कही गयी है। सरकार इन मुद्दों पर विचार करके अपने फैसलों की घोषणा आगामी कुछ दिनों में कर सकती है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि कृषि आज भी हमारी अर्थव्यवस्था का मूलाधार है। देश के किसान उसकी आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा है। इसलिए देश के राजनीतिक और इसके आर्थिक विकास के लिए कृषि की स्थिति हमेशा महत्त्वपूर्ण रही है। यह आधुनिकीकरण के दौरान भी महत्त्वपूर्ण रहेगी। कृषि हमारी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की नींव है। यह सवा अरब लोगों का पेट भरती है, हल्के उद्योग के लिए कच्चे माल की जरूरतों की 70 फीसदी आपूर्ति, औद्योगिक उत्पादों के लिए बाजार प्रदान करती है और निर्माण के लिए धन जमा करती है।

पिछले 30 से भी ज्यादा सालों के दौरान यह बार-बार देखा गया है कि कृषि उत्पादन राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के विकास पर काफी हद तक असर डालता है और निर्माण के पैमाने व गति को प्रत्यक्ष रूप से निर्धारित करता है। जब भी फसल खराब हुई है तो उसके तत्काल बाद हल्के और भारी औद्योगिक उत्पादन में भारी कमी आई है। उसके बाद जब कृषि की हालत सुधरी तो औद्योगिक उत्पादन दोबारा बढ़ना शुरू हो गया।

यदि हम कृषि के विकास और आधुनिकीकरण के लिए बड़े पैमाने पर कोशिश नहीं करते हैं तो समूची अर्थव्यवस्था के आधुनिकीकरण को भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है और यह नाकामयाब भी हो सकता है। कृषि के विकास को प्राथमिकता देने का मतलब यह है कि राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में सबसे पहले खेती-बाड़ी को प्रमुखता देनी चाहिए और फिर हल्के उद्योग तथा उसके बाद भारी उद्योग पर जोर देना चाहिए। जिस खेती पर देश की करोड़ों जिंदगियाँ गुजर-बसर कर रही हैं, उसका हाल भी अच्छा नहीं है। खेती की भूमि की उर्वरता और क्षरण को लेकर कई अध्ययन हुए हैं। पर पहली बार अहमदाबाद के स्पेस एप्लिकेशन सेंटर ने 17 अन्य एजेंसियों की मदद से पूरे देश की कृषि भूमि की दशा का ब्यौरा पेश किया है।

इसके अनुसार, देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का चौथाई हिस्सा रेगिस्तान में तब्दील हो गया है। कुल 32 फीसदी भूमि की गुणवत्ता घटी है। वहीं देश की 69 फीसदी जमीन शुष्क क्षेत्र में शुमार की गई है। जमीन की गुणवत्ता को जल्द ही खराब होने से बचाने का बड़ा अभियान शुरू नहीं किया गया तो देश की आबादी के बड़े हिस्से के लिए न सिर्फ आजीविका का संकट गहरा जाएगा, बल्कि जैव-विविधता का जबरदस्त नुकसान होगा। जमीन की गुणवत्ता कई तरह से खराब हो रही है। अब तक राजस्थान और कुछ हद तक गुजरात को रेगिस्तान के लिए जाना जाता है। मगर यह अध्ययन बताता है कि रेगिस्तान की प्रक्रिया बर्फीली वादियों और जंगलों के लिए मशहूर जम्मू-कश्मीर तक में चल रही है। राजस्थान का 21.77 फीसदी, जम्मू-कश्मीर का 12.79 फीसदी और गुजरात का 12.72 फीसदी क्षेत्र रेगिस्तान बन चुका है।

भारत का पश्चिमी और उत्तरी इलाका इससे सबसे ज्यादा प्रभावित है। इसको तुरन्त थामे जाने की जरूरत है। रेगिस्तानीकरण, भूमि कटाव और क्षरण का सबसे बड़ा कारण है, भूजल के स्तर में कमी आना। भूजल के अंधाधुंध दोहन, जमीन के कटाव और 1999 के बाद से मानसून के अनियमित होने से देश की जमीन का खासा हिस्सा बंजर भूमि में तब्दील हो गया है। दूसरा बड़ा कारण यह है कि वनस्पति का क्षेत्र सिकुड़ रहा है। जंगल विकास परियोजनाओं और अवैध कटाई की भेंट चढ़ रहे हैं। इसके अलावा चराई, एक ही तरह की फसल लेना जैसी वजहें मौजूद हैं। पहले भूमि में खेती ही एकमात्र उत्पादक कार्य था। मगर अब खनन, उद्योग, ऊर्जा उत्पादन, शहरीकरण आदि तेजी से जमीन लील रहे हैं।

जो जमीन बची है, उस पर अन्न की पैदावार बढ़ाने का दबाव है। जमीन के टिकाऊपन का ख्याल किए बगैर उसमें रासायनिक उर्वरक और कीटनाशकों को झोंक दिया जाता है। पंजाब और हरियाणा जैसे हरित क्रान्ति वाले इलाकों में खेतों में नहर का पानी जरूरत से ज्यादा छोड़े जाने से जमीन के क्षारीकरण की प्रक्रिया तेज हो गई है। इस समस्या के पूरे विस्तार में जाने और अलग-अलग राज्यों या क्षेत्रों में कारणों के समुचित अध्ययन पर आधारित कार्रवाई योजनाएँ बनाने की जरूरत है। हमारा देश आज और आगे भी गेहूँ और चावल का प्रमुख उत्पादक और उपभोक्ता बना रहेगा। इसलिए उनके उत्पादन को बढ़ाने के लिए कदम उठाने पड़ेंगे। गेहूँ के पैदावार के क्षेत्र को और अधिक व्यापक बनाने के उद्देश्य से पूर्वी उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल और पूर्व के राज्यों में अधिक मात्रा में गेहूँ की पैदावार करनी होगी।

संकर चावल की विधि को अपनाकर, पारम्परिक क्षेत्रों में चावल का उत्पादन और अधिक बढ़ाना होगा। मध्य भारत में मोटे अनाज के उत्पादन में वृद्धि करके अन्य उत्पादों की पैदावार को भी बढ़ाना होगा, ताकि वे आंशिक रूप से गेहूँ और चावल की जरूरत को कम कर सकें। अनाज की प्रौद्योगिकी को और अधिक विकसित करके इस क्षेत्र को इतना अधिक महत्त्वपूर्ण बनाना होगा, ताकि वह लगातार तेजी से बढ़ती हुई मांग के अलावा, निर्यात योग्य मोटा अनाज भी उत्पादित कर सके। मध्य भारत को सब्जियों और फलों का उत्पादन केन्द्र बनाया जाए और साथ ही यह कोशिश भी की जाए कि ये कम कीमत पर लोगों को उपलब्ध हो सकें। इससे गेहूँ और चावल की खपत पर भी असर पड़ेगा और ऐसा ही प्रयास, जाड़ों के दिनों में, बड़े पैमाने पर हिंद-गंगा क्षेत्र में किया जाना चाहिए।

आलू और शकरकंदी जैसी गांठदार फसलों को और ज्यादा उगाया जाए और उन्हें कम कीमत मुहैया कराया जाए। इस बात पर ज्यादा जोर देने की जरूरत है। देश में दालों की कमी है, मगर प्रोटीन की नहीं। अगर हर व्यक्ति 50 ग्राम का औसत भी रखा जाए तो सवा अरब आबादी वाले देश के लोगों को 22 मिलियन टन प्रोटीन की जरूरत होगी। 11 मिलियन टन उच्च कोटि की जरूरत दूध, अंडों, मछलियों और माँस आदि पूरी कर देंगे और 25 मिलियन टन आनाजों, दालों, तिलहन, फलों, सब्जियों और अन्य स्रोतों से पूरी हो सकेगी। लेकिन, लोगों की खाने की आदतों को ध्यान में रखते हुए, दालों की मांग को उच्च वरीयता देकर पूरा करना पड़ेगा। चूँकि सब्जियों और फलों की खपत भविष्य में बढ़ेगी, इसलिए हर क्षेत्र में कृषि के उपयुक्त जलवायु की आवश्यकताओं और आर्थिक दृष्टि से उचित लाभ को ध्यान में रखते हुए सही विकल्प का चुनाव करना पड़ेगा।

इस उद्देश्य को पूरा करने में कोल्ड स्टोरेज और परिहवन की व्यवस्थाएँ भी महत्त्वपूर्ण होंगी। यूपीए सरकार ने अपने शासनकाल में मनरेगा जैसी लोक लुभावन योजना शुरू की, जिससे खेतिहर मजदूरों का संकट पैदा हो गया और हमारी खेती भी प्रभावित हुई। उधर मनरेगा भारी भ्रष्टाचार का माध्यम बन गई। जिन्हें काम मिला उनकी भी आर्थिक दशा में कोई स्थाई सुधार नहीं हो सका। हमारे संघीय ढाँचे में कृषि राज्य का विषय है और अधिसंख्य राज्य सरकारों ने इस दिशा में पर्याप्त ध्यान नहीं दिया है।

पैदावार और प्रौद्योगिकी का वर्तमान स्तर समूचे तौर पर अभी तक काफी पिछड़ा हुआ है और विकास भी विषम ढँग से हुआ है। खेती में आज भी ज्यादातर कामकाज हाथों से किया जाता है या पशुओं से कराया जाता है। यह स्थिति कदम दर कदम बदली जा सकती है। इससे पता चलता है कि भारत के आधुनिकीकरण का तकनीकी ढाँचा बहुपरतीय होना चाहिए। राष्ट्र के पुनरुद्धार के लिए सिर्फ राजनीतिक स्वतंत्रता पर निर्भर रहना काफी नहीं है। हमें अपनी पूरी सहमति के साथ अर्थव्यवस्था का विकास करना चाहिए। अपने उद्योग, कृषि और राष्ट्रीय प्रतिरक्षा को आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी से लैस करना चाहिए।

लेखक हिन्दी विश्वकोश के सहायक सम्पादक रह चुके हैं, ईमेल - nirankarsi@gmail.com

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