मरुधरा में जल संचयन के तरीके : कलात्मक बावड़ियाँ (Methods of Water Harvesting in Murudhara: Artistic Stepwells-Bawris)


वापी या बावड़ियों का निर्माण कालान्तर में शासकीय दायित्व भी बनता गया। ऐसा राजपूताने की पूर्व रियासतों के रिकॉर्ड में भी अंकित है। इसके अतिरिक्त मन्दिर के भवनों में तथा ऐसे जलस्रोतों की दीवारों पर प्राप्त शिलालेख एवं ताम्रपत्रों से भी इनके निर्माण की जानकारी मिलती है।

माटी-बहुल प्रदेश राजपूताना (अब राजस्थान) का जलवायु आरम्भ से ही विषम रहा है। इतना विषम कि प्रदेश के पूर्वी एवं पश्चिमी भागों में वर्षा का जबर्दस्त असंतुलन रहा है। पूर्वी भाग में वर्षा सामान्य रूप में जनजीवन की आवश्यकताओं के अनुरूप रहीं तो पश्चिमी भाग अपर्याप्त वर्षा या बरसों तक वर्षा के लिये तरसता भी रहा। भूगर्भ जल भी यहाँ बड़ी गहराई पर मिलता था। युगों तक चले असन्तुलन ने जन सामान्य को अगले मौसम तक के जल संरक्षण के लिये बाध्य किया। इसी बाध्यता के चलते सागर, सर, टाँका, जोहड़, नाड़ी, खदीन एवं बावड़ी जैसे साधन खोजे और अपनाए गए। आरंभ में संसाधन एकल रूप से और आगे चलकर इनका निर्माण सामूहिक दायित्व तथा धार्मिक आस्था से भी जुड़ते हुए शासकीय दायित्व भी बनता गया। इसमें सन्देह नहीं कि जल के उपयोग का अधिकार प्रत्येक जन सामान्य को है। अतः ग्राम और नगर संरचनाओं में इनका निर्माण अपरिहार्य हो चला।

पहले धार्मिक-आस्था पर विचार करें तो जल संरक्षण के साधनों का निर्माण भी पुण्य या यजनीय कार्य माना गया है। धर्मग्रन्थ शतपथ ब्राह्मण का सूत्र है ‘‘यज्ञौ वै विष्णुः’’ अर्थात यज्ञ या कोई भी यजनीय (पुण्य) कार्य करवाना ही विष्णु यानी परमात्मा है। सराय, शिक्षण, संस्थाएँ तथा जलाशय या जलस्रोत का निर्माण यजनीय कार्य है। इसके आधार पर ही मारवाड़ की लोक भाषा में अनुश्रुति है:-

‘‘दस कूप समौ वापी, दस वापी समो ह्रद।
दस ह्रद समो पूत, दस पूत समो द्रुम।।’’


दस कुओं के निर्माण के बराबर एक बावड़ी, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब, दस तालाब के बराबर एक पुत्र, तो दस पुत्रों के बराबर पुण्य कार्य एक वृक्ष लगाना है।

वापी या बावड़ियों का निर्माण कालान्तर में शासकीय दायित्व भी बनता गया। ऐसा राजपूताने की पूर्व रियासतों के रिकॉर्ड में भी अंकित है। इसके अतिरिक्त मन्दिर के भवनों में तथा ऐसे जलस्रोतों की दीवारों पर प्राप्त शिलालेख एवं ताम्रपत्रों से भी इनके निर्माण की जानकारी मिलती है।

पुरातत्व विभाग की जानकारी के अनुसार राजकीय संग्रहालय उदयपुर में बारहवीं शताब्दी ईस्वी के शिलालेख हैं। जिनमें जनता द्वारा राहगीरों की सुविधा और विश्राम के लिये निर्माण का उल्लेख है।

आमेर (जयपुर) के संग्रहालय में संरक्षित शिलालेख कहता है:-

‘‘वापी कूँड तड़ागादि मंडित विषय बरे।
ढूंढनाम्नि विख्याते के संभ्रते सुजनैर्जने।’’


आशय है, कभी ढूँढार (जयपुर रियासत) की राजधानी रही अम्बावती नगरी बावड़ियों, कुओं, टाँकों और रमणीय उद्यानों से परिपूर्ण है।

मध्य युग में रियासती शासकों में एक परम्परा का निर्वाह किया जाने लगा। राजमाता (शासक महाराजा की माता) को अपनी जागीर की आय से कम से कम एक बावड़ी का तो निर्माण कराना ही पड़ता था। महाराणा जयसिंह, उदयपुर के शासक ने अपनी पुत्री को इच्छानुसार उदयपुर और चित्तौड़ के मध्य प्रति पाँच कोस (15 किलोमीटर) पर एक बावड़ी का निर्माण कराया। इनमें से कुछेक आज भी उपयोग में हैं।

जयपुर-दिल्ली, जयपुर आगरा एवं अजमेर के तत्कालीन राजमार्गों पर कई बावड़ियों का शृंखला में निर्माण मुगल शासकों द्वारा भी कराया गया। व्यापारिक सुविधा के लिये स्थानीय सामन्तों, जागीरदारों व व्यापारियों द्वारा भी जलकूप एवं वापियों का निर्माण जनहित में होता रहा। इसमें सन्देह नहीं कि सर्वाधिक मात्रा में राजपूताने में ही कलात्मक बावड़ियों का निर्माण हुआ। आज भी पुरावशेष के रूप में इनका सौन्दर्य विद्यमान है। जल संरक्षण के अन्य साधन तो विलुप्त भी होते रहे। कुएँ एवं बावड़ियों के निर्माण से पूर्व भूगर्भ में उपलब्ध निकटतम जलस्तर का पता लगाना भी आवश्यक होता था। इस कार्य को तत्कालीन कुछ विशेषज्ञ माटी को सूंघ कर एवं वहाँ की उगी हुई वनस्पती की प्रजाति के आधार पर ही कर देते थे।

कलात्मक शैली की श्रेष्ठ बावड़ियों की गणना में आती हैं:- टोंक जिले के टोड़रायसिंह कस्बे में हाडी रानी की 365 पौड़ियों वाली बावड़ी जो 400 से 500 वर्ष पुरानी है।

भाँडारेज (दौसा जिला) में 150 सीढ़ियों वाली बड़ी बावड़ी महाभारत कालीन मानी जाती है। महाभारत कालीन राजा भद्रसेन के समय भद्रावती नाम से विख्यात कस्बा आज का भाँडारेज है।

नीमराणा (अलवर) में 1700 ईस्वी में नौ मंजिली 170 सीढ़ियों वाली बावड़ी का निर्माण हुआ जो आज भी हैरिटेज होटल के पास स्थित है। जनश्रुति है कि नीमराणा कभी चौहान राजवंश का पैतृक कस्बा था।

हाड़ौती का बून्दी जिला और शहर कलात्मक बावड़ियों के निर्माण में अग्रणी रहा है। स्थानीय जनता एवं राजघारानों के प्रयास से 20 बावड़ियों का निर्माण हुआ था। जिनमें प्रमुख हैं नवल सागर, सिसोदिया जी की बावड़ी, सुखी बावड़ी, मनोहरजी की बावड़ी तथा रामजी की बावड़ी।

पूर्व अलवर रियासत के निकुम्भ चौहान शासकों की राजधानी रहे अभानेरी की बावड़ी कलात्मकता में अपना सानी नहीं रखती, गुप्त साम्राज्य (11वीं शताब्दी में) द्वारा हर्षद माता मन्दिर में बनवाई गई। चाँद बावड़ी में तत्कालीन मूर्तियाँ और पुरावशेष विद्यमान हैं।

आमेर (जयपुर) में मिर्जा राजा जयसिंह के समय की बावड़ी पन्ना मीणा का कुण्ड भी कलात्मकता में कम नहीं कहा जाता है कि सतसई-फेम कवि बिहारी लाल यहीं बैठकर काव्यरचना किया करते थे। आमेर दिल्ली मार्ग पर मांजी की बावड़ी भी अति प्राचीन है जो अब उपयोगशील नहीं है।

इनके अतिरक्ति उल्लेखनीय है मण्डोर (पूर्व राजधानी जोधपुर) में राावण की चँवरी। उत्कीर्ण शिलालेख के अनुसार 712 ईस्वी में माध पुत्र चाणक्य द्वारा इसका निर्माण हुआ था। बीकानेर की शिव-बाड़ी बावड़ी एवं कीतासर जोहड़ भी अति प्राचीन हैं जो लाल पत्थर से निर्मित हैं। पाली जिले के नाडोल कस्बे की बावड़ियों का उल्लेख ‘‘एनल्स एंड एण्टीक्विटीज ऑफ राजपूताना’’ में इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने भी किया है, ये हैं:- चुनाका बावड़ी, रूपावाब, कन्तन-बाव, मूंगबाव, सूरज-कुण्ड एवं दाव-वॉव। इन सभी का निर्माण ईसा की दसवीं शताब्दी तक का है।

चित्तौड़गढ़ में खातन की बावड़ी, भीमताल-कुण्ड, सूर्य-कुण्ड, हाथी-कुण्ड तथा सेनापति तालाब मेवाड़ राज्य की स्थापना समय से सम्बद्ध हैं।

उदयपुर जिले और शहर में प्राकृतिक झीलों की तो भरमार है ही, त्रिमुखी बावड़ी, धऊजी की बावड़ी, सुन्दर वास की बावड़ी, पंथरी की बावड़ी तथा तोरण बावड़ी भी दर्शनीय हैं।

राजस्थान सरकार के पर्यटन विभाग की सूची अनुसार राज्य के सभी जिलों में कलात्मक बावड़ियाँ एवं जोहड़ संख्या में 113 हैं। कभी न कभी इन का उपयोग जन सामान्य के लिये जलस्रोत एवं कृषि कार्य के लिये होता था।

लेखक परिचय


ईश्वर दयाल माथुर
25/47, कावेरी पथ, मानसरोवर, जयपुर-302020

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