मुद्दे, चुनौतियाँ और उपाय

देश का लगभग 4.6 करोड़ हेक्टेयर इलाका बाढ़ सम्भावित क्षेत्र हैं। लेकिन जिन क्षेत्रों में बाढ़ सुरक्षा के लिए ढाँचागत उपाय किए जा चुके हैं उनका क्षेत्र करीब 1.9 करोड़ हेक्टेयर है। ढाँचागत उपायों के साथ ही गैर ढाँचागत उपायों पर भी ध्यान देना होगा। 175 बाढ़ पूर्वानुमान केन्द्रों के तन्त्र का रखरखाव भी किया जा रहा है जिसके जरिए भरोसेमन्द बाढ़-पूर्व चेतावनी मिल जाती है और पहले ही बाढ़ के कारण होने वाले नुकसान को कम करने के उपाय कर लिए जाते हैं।

पानी हमारे जिन्दा रहने के लिए एक महत्वपूर्ण आवश्यकता ही नहींं, बल्कि राष्ट्र के आर्थिक विकास का एक साधन भी है। जल एक नवीकरणीय संसाधन है। इसका प्रकृति में सुरक्षित भण्डार सीमित है, अतः हमें इसके सतत् विकास और कुशल प्रबन्धन की योजना तैयार करनी है ताकि बढ़ती जनसंख्या, विस्तारित हो रहे उद्योगों और तेजी से शहरीकरण के कारण बढ़ती जरूरतें पूरी की जा सकें और जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न चुनौतियों का सामना करने के लिए हम अपने आप को बेहतर ढंग से तैयार कर सकें।

उपलब्ध और उपयोग लायक जल


देश में हर साल लगभग 1,170 मिलीमीटर वर्षा होने का अनुमान लगाया गया है। इसे अगर देश में होने वाली कुल बर्फबारी और ग्लेशियरों से मिलने वाले जल की मात्रा के साथ मिला लें, तो यह लगभग 4,000 अरब घनमीटर बैठती है। लेकिन अगर वाष्पीकरण के जरिए नष्ट होने वाले पानी का भी हिसाब लगाएँ, तो देश में कुल 1,869 अरब घनमीटर पानी होने का अनुमान है। यह उपलब्ध सारा जल भौगोलिक और अन्य कारणों से काम में नहीं आ पाता और ऐसा अनुमान है कि इसमें से सिर्फ लगभग 1,123 अरब घनमीटर पानी ही काम लायक होता है।

इस मात्रा का 690 अरब घनमीटर जल सतही और 433 अरब घनमीटर फिर से भरपाई किया हुआ पानी होता है। जल की इस उपलब्धता में भी देश और काल की विभिन्नता के कारण अन्तर आता है।

जल संसाधन विकास की सम्भावनाएँ और उपलब्धियाँ


देश में जल संसाधनों का विकास आमतौर पर सिंचाई सुविधाओं के सृजन, स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराने, उद्योगों की पानी की जरूरतें पूरी करने और पर्यावरण सम्बन्धी मुद्दे सुलझाने के आसपास घूमता है।

सिंचाई विकास


वर्तमान स्थिति के अनुसार इस समय कुल जितनी जमीन पर खेती की जा रही है उसका 44 प्रतिशत यानी लगभग 6.2 करोड़ हेक्टेयर भूमि सिंचित है। यह स्थिति तब है जब अनुमानों के अनुसार 14 करोड़ हेक्टेयर जमीन की सिंचाई की व्यवस्था की जा सकती है। इस कुल सिंचित भूमि में से 7.6 करोड़ हेक्टेयरकी सिंचाई सतही जल और लगभग 6.4 करोड़ हेक्टेयर की सिंचाई भूजल साधनों से की जा सकती है। 1951 में योजनाबद्ध विकास शुरू होने से पहले 2.26 करोड़ हेक्टेयर जमीन की सिंचाई की व्यवस्था की जा चुकी थी।

लेकिन इस समय शेष सिंचाई सम्भावित क्षेत्रों को यह सुविधा देने के लिए सोच-समझकर योजना बनाने की जरूरत है और इसके लिए बेहतर जल प्रबन्धन व्यवहारों का इस्तेमाल करना होगा। यह एक बड़ी चुनौती है। इस तथ्य को देखते हुए यह बात और भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि जल संसाधनों के विकास के आसान और सर्वश्रेष्ठ विकल्पों का इस्तेमाल किया जा चुका है और अब जो नयी जल संसाधन परियोजनाएँ शुरू की जा रही है उनमें जल सम्बन्धी और भौगोलिक सीमाएँ बाधक बनेंगी। तथापि कोई न कोई ऐसा रास्ता निकालना है जिससे कि देश के फालतू पानी का उपयोग किया जा सके और इसके लिए नदियों को जोड़ना और भूजल की कृत्रिम तरीके से भरपाई करना जरूरी होगा।

उम्मीद की जाती है कि इनमें से पहले कदम के जरिए 3.5 करोड़ हेक्टेयर जमीन की अतिरिक्त सिंचाई सुविधाएँ सृजित की जा सकेंगी, जबकि बाद वाले उपाय के द्वारा करीब 36 अरब घनमीटर पानी उपलब्ध कराया जा सकता है।

पेयजल आपूर्ति


भारत के शहरी क्षेत्रों में 1990 में करीब 90 प्रतिशत लोगों और वर्ष 2000 में 93 प्रतिशत लोगों को सुरक्षित पेयजल उपलब्ध था। वर्ष 2008 तक इस स्थिति में सुधार हुआ और यह सुविधा करीब 96 प्रतिशत लोगों को उपलब्ध हो गई। ग्रामीण भारत में भी 1990 में जहाँ सिर्फ 58 प्रतिशत लोगों को सुरक्षित पेयजल उपलब्ध था, वहीं 2008 में यह संख्या बढ़कर 73 प्रतिशत तक आ गई।

इसी तरह से विश्व स्वास्थ्य संगठन के संयुक्त मानिटरिंग कार्यक्रम और संयुक्त राष्ट्र बाल विकास कोषकी रिपोर्टों के अनुसार भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में 1990 तक जहाँ सिर्फ 7 प्रतिशत इलाके में सुधरी स्वच्छता व्यवस्था उपलब्ध थी, वहीं यह 2008 में बढ़कर लगभग 21 प्रतिशत तक आ गई। शहरी इलाकों में 1990 तक 49 प्रतिशत क्षेत्रों में सफाई व्यवस्था थी वहीं वर्ष 2008 में यह सुविधा 54 प्रतिशत लोगों को उपलब्ध हो गई।

उक्त आँकड़ों से जाहिर है कि इस दिशा में अभी बहुत कुछ करना बाकी है, खासतौर से संयुक्त राष्ट्र के सहस्राब्दि विकास लक्ष्य के आलोक में, जिसमें वर्ष 2013 तक सभी ग्रामीण इलाकों में स्वच्छता व्यवस्था पहुँचा देने कालक्ष्य रखा गया है।

पनबिजली विकास


देश के लगभग 15 प्रतिशत ब्लाॅकों/तालुकों/मण्डलों में इस समय भूजल का जरूरत से अधिक दोहन हो रहा है। एक और चुनौती सतही जल के अत्यधिक इस्तेमाल से जुड़ी हुई है जिसके परिणामस्वरूप सिंचाई की नालियाँ समस्याग्रस्त हो रही हैं और अनेक इलाकों में जलभराव की स्थिति पैदा हो गई है।

अनुमान लगाया गया है कि भारत में 1,50,000 मेगावाट पनबिजली पैदा किए जाने की सम्भावित क्षमता है। लेकिन अभी तक इसकी सिर्फ 21 प्रतिशत क्षमता का विकास किया जा सका है और दस प्रतिशत अतिरिक्त क्षमता विकसित करने पर काम चल रहा है। विकास की धीमी गति के कारणों में सम्भावित स्थलों की दुर्गम स्थिति, पुनर्वास, पर्यावरण और वन सम्बन्धी मुद्दे तथा अन्तरराज्यीय समस्याएँ शामिल हैं। इसके अलावा इन परियोजनाओं को चालू करने में लम्बा समय लगता है।

भौगोलिक समस्याएँ भी महत्वपूर्ण मुद्दा है जिस पर ध्यान देने की जरूरत है ताकि पर्यावरण हितैषी और ऊर्जा का यह नवीकरणीय रूप विकसित किया जा सके। अपेक्षाकृत ढंग से देखा जाए तो पनबिजलीघर संचालन में किफायती होते हैं और कम से कम अनुरक्षण लागत के जरिए इनसे अधिकाधिक लाभ उठाया जा सकता है।

बाढ़ प्रबन्धन बोर्ड


अनुमान लगाया गया है कि देश का लगभग 4.6 करोड़ हेक्टेयर इलाका बाढ़ सम्भावित क्षेत्र हैं। लेकिन जिन क्षेत्रों में बाढ़ सुरक्षा के लिए ढाँचागत उपाय किए जा चुके हैं उनका क्षेत्र करीब 1.9 करोड़ हेक्टेयर है। ढाँचागत उपायों के साथ ही गैर ढाँचागत उपायों पर भी ध्यान देना होगा। 175 बाढ़ पूर्वानुमान केन्द्रों के तन्त्र का रखरखाव भी किया जा रहा है जिसके जरिए भरोसेमन्द बाढ़-पूर्व चेतावनी मिल जाती है और पहले ही बाढ़ के कारण होने वाले नुकसान को कम करने के उपाय कर लिए जाते हैं। मैदानी भागों में बाढ़ सम्भावना के अनुसार क्षेत्रवार वर्गीकरण सहित अनेक गैर ढाँचागत उपायों की भी गुंजाइश है और इसके अनुसार काम होना चाहिए।

भविष्य में जल आवश्यकताओं का अनुमान


समन्वित जल संसाधन विकास के राष्ट्रीय आयोग ने अनुमान लगाया है कि देश में 83 प्रतिशत पानी का इस्तेमाल सिंचाई के लिए और बाकी मात्रा का उपयोग घरेलू, औद्योगिक और अन्य प्रयोजनों के लिए किया जाता है।

इस आयोग ने अनुमान लगाया है कि वर्ष 2050 तक यह माँग बहुत बढ़ जाएगी। अनुमानों के अनुसार यह 1,180 अरब घनमीटर तक पहुँच सकती है। अगर हम पहले से मान लें कि सतही पानी और भूजल व्यवस्थाओं के प्रबन्धन में कुशलता आएगी और खेती और अन्य क्षेत्रों में पानी का इस्तेमाल बेहतर ढंग से होने लगेगा, तो भी सिंचाई के लिए पानी की जरूरत बढ़ जाएगी।

अनुमान लगाया है कि कुल जितनी जरूरत होगी उसका वर्तमान के 83 प्रतिशत की तुलना में वर्ष 2050 में 69प्रतिशत भाग सिंचाई पर ख़र्च होगा। देश के जल क्षेत्र को बढ़ती आबादी, घटती गुणवत्ता और भूजल के अत्यधिक दोहन के चलते अनेक चुनौतियों का भी सामना करना पड़ रहा है जिसके कारण देश के अनेक क्षेत्रों में भूजल का स्तर गिरता जा रहा है और जो सुविधाएँ सृजित की चुकी हैं उनके जरिए इष्टतम से कम उपयोग हो पा रहा है।

1991 में जहाँ प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता 5,177 घनमीटर होने का अनुमान था, वहीं आबादी बढ़ जाने, तेजी से शहरीकरण और औद्योगीकरण के कारण अब यह घटकर लगभग 1,650 घनमीटर तक पहुँच गया है। अनियोजित विकास और भूजल के विनियमन के लिए समुचित कानूनों के अभाव के चलते भूजल का जरूरतसे ज्यादा दोहन हो रहा है जिसके कारण देश के अनेक भागों में भूजल भण्डारों में कमी आ रही है।
देश के लगभग 15 प्रतिशत ब्लाॅकों/तालुकों/मण्डलों में इस समय भूजल का जरूरत से अधिक दोहन हो रहा है। एक और चुनौती सतही जल के अत्यधिक इस्तेमाल से जुड़ी हुई है जिसके परिणामस्वरूप सिंचाई की नालियाँ समस्याग्रस्त हो रही हैं और अनेक इलाकों में जलभराव की स्थिति पैदा हो गई है।

नदियों में प्रदूषण बढ़ गया है और यह भी सर्वविदित है कि भूजल की गुणवत्ता ख़राब हुई है। प्रदूषण का एक प्रमुख कारण शहरी क्षेत्रों की जल-मल निकासी समस्या है। साथ ही, उद्योगों से निकलने वाले रसायनों प्रदूषित पानी भी इस समस्या को बढ़ा रहा है। प्रदूषण का एक और बड़ा कारण कृषिकर्म में रसायनों, उर्वरकों और कीटनाशकों का अत्यधिक इस्तेमाल भी है।

इसके अलावा हमारे देश में इस समय जो दो प्रमुख समस्याएँ मौजूद हैं उनमें से एक का केन्द्रबिन्दु पानी है। ये समस्याएँ हैं- जलवायु परिवर्तन और खाद्य सुरक्षा। जलवायु परिवर्तन से पैदा समस्याओं पर तुरन्त ध्यान देने की जरूरत है। इसी तरह से इन दोनों चुनौतियों में पानी की समस्या भी प्रमुख है। हालांकि अभी तक जलवायु परिवर्तन के कारण जल संसाधनों पर पड़ने वाले प्रभाव का मात्रात्मक अध्ययन नहींं किया गया है, लेकिन अनेक रिपोर्टों से संकेत मिलता है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के कारण देश और काल की शर्तों के अधीन अनेक क्षेत्रों में, खासतौर से बाढ़ और सूखा प्रभावित क्षेत्रों में यह समस्या और उग्र रूप धारण कर सकती है।

इसीलिये पर्याप्त और भरोसमन्द आँकड़ों और सूचनाओं के आधार पर अनुसन्धान और अध्ययन करने की तुरन्त जरूरत है ताकि मात्रात्मक रूप में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का अनुमान लगाया जा सके और इसके निवारण के उपाय किए जा सकें।

जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्रवाई योजना प्रधानमन्त्री ने जून 2008 में शुरू की थी। इस कार्रवाई योजना के अन्तर्गत आठ राष्ट्रीय मिशन गठित किए गए हैं जिनमें राष्ट्रीय जल मिशन भी एक है। इसका उद्देश्य जल संरक्षण, बर्बादी को कम से कम स्तर पर लाना और राज्यों में समता आधारित वितरण सुनिश्चित करना है।

इसके लिए समन्वित जल संसाधन विकास और प्रबन्धन तकनीकें अपनाई जाएँगी। राष्ट्रीय जल मिशन ने जो पाँच लक्ष्य तय किए हैं वे निम्नलिखित हैं:

1. सार्वजनिक रूप से व्यापक आँकड़ा आधार और जल संसाधनों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का आकलन।
2. जल संरक्षण और संवर्धन की राज्य और नागरिकों की योजना को प्रोत्साहित करना।
3. जिन क्षेत्रों में अत्यधिक दोहन हो चुका है उन पर और ऐसी आंशका वाले क्षेत्रों पर अधिक ध्यान देना।
4. जल उपयोग कुशलता में 20 प्रतिशत वृद्धि करना।
5. बेसिन स्तर के समन्वित जल संसाधन प्रबन्धन को प्रोत्साहित करना।

जल संसाधन मन्त्रालय ने एक वेब समर्थ जल संसाधन सूचना तन्त्र के विकास की शुरुआत की है। इसके लिए अन्तरिक्ष विभाग के राष्ट्रीय दूरसंवेदी केन्द्र का सहयोग लिया जा रहा है। इसमें कुछ संवेदनशील और वर्गीकृत सूचनाओं को छोड़कर शेष आँकड़े सार्वजनिक रूप से उपलब्ध करा दिए जाएँगे। इस व्यवस्था को 11वीं योजना के अन्त तक पूरी तरह से संचालन योग्य बना दिया जाएगा। इससे सभी हितधारकों को आँकड़े आसानी से मिल सकेंगे और इनका बेहतर ढंग से नियोजन और विनियमन किया जा सकेगा।

जल संसाधन मन्त्रालय ने जल संसाधनों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का आकलन करने के लिए अध्ययन शुरू किए हैं। इस उद्देश्य से मन्त्रालय के सर्वोच्च संगठनों- केन्द्रीय जल आयोग, केन्द्रीय भूजल बोर्ड, राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान और ब्रह्मपुत्र बोर्ड ने घनिष्ठ सहयोग करते हुए काम शुरू किया है और ये इस मामले में प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों के साथ मिलकर काम कर रहे हैं। एक महत्वपूर्ण लक्ष्य यह है कि जल उपयोग की कुशलता में 20 प्रतिशत वृद्धि की जाए।

जल संसाधन विकास के महत्वपूर्ण उपाय


जल संसाधन मन्त्रालय सिंचाई भागीदारी प्रबन्धन को बढ़ावा देता है और इसने जल उपभोक्ता संघ गठित करने के लिए काम किया है। अब तक लगभग 57,000 ऐसे संघ गठित किए जा चुके हैं। जरूरत है कि इन्हें संचालन योग्य और प्रभावशाली बनाया जाए। भागीदारी सिंचाई प्रबन्धन के लिए विधेयक का मसौदा तैयार कर लिया गया है और इसे विधानसभाओं द्वारा पास कराए जाने के लिए राज्यों को भेज दिया गया है। स विषय में राज्यों के साथ बराबर सम्पर्क किया जा रहा है।

सतत् विकास और जनकल्याण के लिए कुशल प्रबन्धन के उद्देश्य सिर्फ राज्यों के बीच बेहतर सहयोग और समझदारी के जरिए पूरे किए जा सकते हैं। इस तथ्य को देखते हुए यह बात और भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि संविधान के अनुसार जल आपूर्ति, सिंचाई और नहरें, नाली व्यवस्था, जल भण्डारण, राज्य सरकारों के कार्य क्षेत्र में आते हैं।

इस दिशा में केन्द्र सरकार की एक महत्वपूर्ण भूमिका यह है कि इन राज्य सरकारों में अधिकतम तालमेल सुनिश्चित किया जाए और सहमति के जरिए अन्तरराज्यीय नदियों के मुद्दे सुलझाकर राज्य सरकारों द्वारा सहयोग सुनिश्चित किया जाए।

जल संसाधनों के विकास की गति तेज करने के उद्देश्य से जल सम्बन्धी मुद्दों पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है। इस उद्देश्य से जल संसाधन मन्त्रालय कई महत्वपूर्ण कार्यक्रम और योजनाएँ कार्यन्वित कर रहा है जिनमें त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम, कमान एरिया विकास कार्यक्रम एवं जल संसाधन कार्यक्रम, बाढ़ प्रबन्धन कार्यक्रम, जल निकायों आदि के पुनरुद्धार, नवीकरण और मरम्मत की योजनाएँ शामिल हैं। कुएँ खोदकर भूजल की भरपाई करने की एक योजना भी शुरू की गई है।

भौगोलिक विभिन्नता से उत्पन्न होने वाली समस्याओं को सुलझाने के उद्देश्य से हमें जल संसाधनों के विभिन्न उपाय करने होंगे और इसके लिए जलाशयों, भूजल भण्डारों और परम्परागत जल निकायों के द्वारा जल संरक्षण के विभिन्न उपाय करने होंगे। भौगोलिक विभिन्नताओं की समस्या सुलझाने के लिए हमें अनेक उपाय करने होंगे। इसके लिए जिन क्षेत्रों में पानी अधिक है वहाँ से उसे कमी वाले क्षेत्रों की तरपफ भेजना शामिल है।

भारत सरकार ने इस सम्बन्ध में सम्भाव्यता रिपोर्टें और विस्तृत परियोजना रिपोर्टें तैयार करने का काम शुरू किया है। इसके लिए राष्ट्रीय योजनाओं के तहत् चिन्हित परियोजनाएँ पहले हाथ में ली गई हैं। इनमें से एक योजना है देश की नदियों को आपस में जोड़ने की, जिसका उद्देश्य है कमी वाले क्षेत्रों तक अतिरिक्त पानी पहुँचाना। जल संसाधन मन्त्रालय ने वर्षा जल संग्रहण के प्रोत्साहन की भी योजनाएँ बनाई है। इनके जरिए भूजल की भरपाई की जाएगी और केन्द्रीय भूजल बोर्ड लोगों के सामने उदाहरण के रूप में पेश करने के लिएयोजनाएँ ला सकेगा।

उन्नत प्रबन्धन


बेहतर प्रबन्धन व्यवहारों को अपनाकर और समुचित विनियमन, बजटिंग और जल उपयोग की लेखा परीक्षा अन्य वे महत्वपूर्ण उपाय हैं जिनके जरिए जल उपयोग कुशलता बढ़ाई जा सकती है। सृजित सुविधाओं के अपेक्षाकृत ख़राब अनुरक्षण के कारणों में एक यह है कि इस काम के लिए समुचित बजट नहींं मिल पाता।

इस उद्देश्य से और सिंचाई सुविधाओं की निरन्तरता बनाए रखने के लिए वित्तीय सहायता जरूरी है। तेरहवें वित्त आयोग ने इस समस्या पर ध्यान दिया है और वर्ष 2011-12 से 2014-15 तक चार वर्षों के लिए 5,000करोड़ रुपये का विशेष जल प्रबन्धन अनुदान स्वीकृत किया है। यह विनियामक प्राधिकरण की स्थापना के अधीन है और राज्यों द्वारा जल की भरपाई के उद्देश्य पूरा करने में सहायक होगा।

सृजित सुविधाओं का कम इस्तेमाल


सृजित सुविधाओं का कम इस्तेमाल हो पाना एक और चुनौती है। सृजित सुविधाओं की 85 प्रतिशत क्षमता का ही इस्तेमाल किया जा सका है। यह अन्तर लगातार बढ़ता रहा है। जिन कारणों से सृजित सुविधाओं की पूरी क्षमता का इस्तेमाल नहीं हो पाता उनमें (क) समुचित संचालन और अनुरक्षण की कमी, (ख) अधूरी वितरण व्यवस्था, (ग) कमान एरिया विकास योजना का पूरा न हो पाना, (घ) मूल डिजाइन में बाद में किए गए परिवर्तन और (घ) सिंचित भूमि का इस्तेमाल अन्य उद्देश्यों के लिए किया जाना शामिल है। स्पष्ट है कि बेहतर हार्डवेयर के रूप में तन्त्र सुधार के आधुनिक साधन और साॅफ्टवेयर के रूप में बेहतर प्रबन्धन इस मामले में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

जल उपयोग के लिए सृजित सुविधाओं में सुधार


भारत में सिंचाई व्यवस्था की वर्तमान कुशलता का स्तर अपेक्षाकृत काफी कम है और इसे सुधारने की पर्याप्त गुंजाइश है। समन्वित जल संसाधन विकास के राष्ट्रीय आयोग ने अनुमान लगाया है कि भारत में सतही पानी से सिंचाई कुशलता वर्तमान 35 से 40 प्रतिशत के स्तर से बढ़ाकर 60 प्रतिशत के स्तर पर लाई जा सकती है।

इसी तरह भूजल से सिंचाई की कुशलता वर्तमान 65 प्रतिशत से बढ़ाकर 75 प्रतिशत के आसपास की जा सकती है। कुशलता में इस प्रकार से सृजित सिंचाई सुविधाओं में सुधार करके वृद्धि की जा सकती है। इसके लिए समुचित संचालन और अनुरक्षण, विस्तार, नवीकरण और परियोजनाओं के आधुनिकीकरण तथा जल निकायों की मरम्मत, नवीकरण और पुनरुद्धार के उपाय करने होंगे। नमी संरक्षण व लघु सिंचाई के उपाय भी करने पड़ेंगे।

साथ-ही-साथ, यह भी जरूरी होगा कि वित्तीय निरन्तरता सुनिश्चित की जाए और इसके लिए सिंचाई दरें संशोधित की जाएँ तथा जल उपभोक्ता संघ आदि के गठन को बढ़ावा देकर भागीदारी प्रबन्धन का रास्ता अपनाया जाए। यह भी महत्वपूर्ण होगा कि सर्वश्रेष्ठ प्रौद्योगिकी और व्यवहार किसानों को सिखाए जाएँ ताकि पानी की प्रत्येक बूँद से अधिक फसल का नारा सार्थक किया जा सके।

जल संसाधन मन्त्रालय इस उद्देश्य से एक कृषक भागीदारी कार्रवाई अनुसन्धान कार्यक्रम कृषि विश्वविद्यालयों और अनुसन्धान संस्थानों के जरिए चला रहा है जिसके द्वारा खेती को लाभप्रद और ज्यादा उत्पादक बनानेवाली उपलब्ध प्रौद्योगिकी प्रदर्शित की जा रही है। अन्तरिम रिपोर्टों से संकेत मिलता है कि किसानों से इन कार्यक्रमों का बहुत माकूल जवाब मिल रहा है और इन कार्यक्रमों के जरिए पैदावार बढ़ाने और सिंचाई के पानी में बचत करने में सहायता मिली है।

बड़ी जल सुविधाओं की कुशलता में सुधार के उपायों के अतिरिक्त जल प्रसंस्करण के अन्य उपायों पर भी जोर देना जरूरी है। इन उपायों में पानी का पुनः उपयोग, वर्षा जल संग्रहण और भूजल की भरपाई तथा जल सम्भरणविकास शामिल हैं।

भागीदारी प्रबन्धन


भागीदारी प्रबन्धन भी बहुत महत्वपूर्ण है। जल संसाधन मन्त्रालय सिंचाई भागीदारी प्रबन्धन को बढ़ावा देता है और इसने जल उपभोक्ता संघ गठित करने के लिए काम किया है। अब तक लगभग 57,000 ऐसे संघ गठित किए जा चुके हैं। जरूरत है कि इन्हें संचालन योग्य और प्रभावशाली बनाया जाए। भागीदारी सिंचाई प्रबन्धन के लिए विधेयक का मसौदा तैयार कर लिया गया है और इसे विधानसभाओं द्वारा पास कराए जाने के लिए राज्यों को भेज दिया गया है। स विषय में राज्यों के साथ बराबर सम्पर्क किया जा रहा है।

निष्कर्ष


निरन्तरता को बराबर ध्यान में रखते हुए उपलब्ध जल संसाधनों के इष्टतम् उपयोग के जरूरी उपाय करने की तुरन्त आवश्यकता है। इसके लिए जरूरी है कि जल संसाधनों का निरन्तर विकास और कुशल प्रबन्धन सुनिश्चित किया जाए। उपलब्ध जल संसाधनों के समन्वित और व्यापक विकास के जरूरी उपाय किए जाने के अलावा जल प्रबन्धन नीतियाँ बनाना भी जरूरी है ताकि देश में सही ढंग से समन्वित विकास किया जा सके और समाज के हर सदस्य को इसके लाभ मिल सकें।

इसके लिए स्थानीय जल संसाधन सम्बन्धी बुनियादी सुविधा उपलब्ध कराए जाने की जरूरत है। इसके लिए समाज के सभी वर्गों को सहयोग करना होगा और जल क्षेत्र के सामने मौजूद चुनौतियों से जूझने में सहयोग करना पड़ेगा। नागरिकों को जल क्षेत्र के साथ हाथ मिलाना होगा चाहे वे केन्द्रीय सरकार के हों अथवा राज्य सरकारों के, या फिर पंचायती राज निकायों, स्थानीय निकायों, औद्योगिक घरानों अथवा अन्य किसी वर्ग से सम्बन्धित हों। घरेलू इस्तेमाल के लिए स्वच्छ जल की माँग पूरी करने, सिंचाई के लिए सतत् विकासशील मूल सुविधाएँ तैयार करने और विभिन्न उद्योगों में इस्तेमाल के लिए पर्याप्त जल आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए सभी को आगे आना होगा। ऐसा करते हुए जरूरी होगा कि पर्यावरण सम्बन्धी मुद्दों को भी ध्यान में रखा जाए।

लेखक भारत सरकार के जल संसाधन मन्त्रालय के सचिव हैं।
ई-मेलः un.panjiar@nic.in, secy-mowr@nic.in

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