मुश्किल दौर में बाघ

8 Feb 2015
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बाघ या शेर जैसे वन्य जीवों को बचाने की किसी भी योजना में उस आदिवासी समाज का जिक्र कहीं नहीं होता, जो मुख्य रूप से वनों पर ही निर्भर हैं। जबकि वन्य जीवों को बचाने के लिए उन्हें वनों से बाहर पुनर्स्थापित करने की बात हमेशा कही जाती है। अब हमें एक ऐसी योजना विकसित करनी होगी। जिसमें वनों पर निर्भर आदिवासी समाज और वन्य जीव दोनों के बारे में सोचा जाए। इससे आदिवासी समाज वन्य जीवों को बचाने के लिए स्वयं आगे आएगा। देश में बाघों की संख्या में तीस फीसद वृद्धि हुई है। अभी हाल में केन्द्र सरकार द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार देश में बाघों की संख्या बढ़ कर दो हजार दो सौ छब्बीस हो गई है। 2010 में हुई बाघों की गिनती की तुलना में यह तीस फीसद ज्यादा है। हालांकि केन्द्र सरकार द्वारा जारी इस रिपोर्ट के आधार पर कोई भ्रम पाल लेना तर्कसंगत नहीं होगा।

यह सही है कि पिछले कुछ वर्षों में बाघ बढ़े हैं, लेकिन बाघों पर अभी विभिन्न तौर-तरीकों से खतरा मँडरा रहा है। 2014 में बाघों की आपसी लड़ाई, बीमारी और दूसरे कारणों से भारत में कुल मिला कर चौंसठ बाघों की मौत हुई थी। बाघों की मौत का यह आँकड़ा 2013 की तुलना में एक अधिक है।

राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण के आधिकारिक आँकड़े बताते हैं कि 2014 में एक जनवरी से 29 दिसम्बर तक चौंसठ बाघ मरे हैं, जबकि 2013 में मरने वाले बाघों की संख्या तिरसठ थी। दरअसल, देश में बाघों पर मँडराते खतरे के लिए अनियन्त्रित शिकार, बीमारी और मानव-वन्य जीव संघर्ष जैसे कारक मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं। वनों का नष्ट होना भी बाघों की मौत का कारण बन रहा है।

गौरतलब है कि ग्यारह बाघ अभयारण्यों में वन क्षेत्र तेजी के साथ कम हुआ है। आश्चर्यजनक यह है कि पिछले कुछ सालों में ही देश के सात सौ अट्ठाइस वर्ग किलोमीटर भू-भाग से वन समाप्त हो चुके हैं।

हमारे देश का वन क्षेत्र कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का लगभग बीस फीसद है। इसमें अगर अन्य वृक्षों को भी शामिल कर लिया जाए तो यह लगभग तेईस फीसद बैठता है। वैज्ञानिकों के अनुसार अण्डमान-निकोबार में सुनामी जैसी आपदाएँ, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में बाँधों का निर्माण, उत्तर भारत में खेती की जमीन में वृद्धि और वृक्षों का व्यावसायिक इस्तेमाल होने के कारण हमारे देश में तेजी से जंगलों का क्षरण हो रहा है।

दरअसल, जब बाघ का प्राकृतिक निवास जंगल नष्ट होने लगता है तो वह अपने प्राकृतिक ठिकाने से बाहर निकल आता है और आसपास स्थित खेतों और गाँवों में घरेलू पशुओं और लोगों पर हमला बोलता है। इस तरह की घटनाओं के कारण बाघों के विरुद्ध गाँव वालों का गुस्सा भी बढ़ता है और यह बाघों की हत्याओं के रूप में सामने आता है। यह मानव-वन्य जीव संघर्ष ही विभिन्न तौर-तरीकों से हमारे पारिस्थितिकी तन्त्र पर गहरा प्रभाव डालता है। इसके अतिरिक्त बाघ की खाल प्राप्त करने के लिए अनेक तस्कर इनकी हत्याएँ भी करते हैं।

पिछली शताब्दी के प्रारम्भ में हमारे देश में बाघों की संख्या लगभग चालीस हजार थी, लेकिन 1972 में हुई गणना में बाघों की संख्या मात्र एक हजार आठ सौ सत्ताइस रह गई। 1969 में इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजरवेशन ऑफ नेचर एण्ड नेचुरल रिसोर्स (आइयूसीएन) की एक सभा में वन्य जीवन पर मँडराते खतरे के मद्देनजर अनेक कदम उठाए गए। इसके बाद 1970 में बाघों के शिकार पर राष्ट्रीय प्रतिबन्ध लगाया गया और 1972 में वन्य जीव संरक्षण अधिनियम लागू हुआ।

इसी समय बाघों के संरक्षण के लिए विचार किया गया और 1973 में प्रोजेक्ट टाइगर के रूप में यह योजना सामने आई। इस तरह बाघों के संरक्षण के लिए अनेक बाघ संरक्षित क्षेत्र बनाए गए। इन संरक्षित क्षेत्रों को कोर क्षेत्र और बफर क्षेत्रों में बाँटा गया। कोर क्षेत्र में सभी प्रकार की मानव गतिविधियाँ प्रतिबन्धित होती हैं, जबकि बफर क्षेत्र विद्यार्थियों, शोधार्थियों और प्रकृति-प्रेमी लोगों के लिए इस शर्त के साथ खुला होता है कि इनके प्रवेश से वन्य जीवन को कोई नुकसान न पहुँचे।

बफर क्षेत्र को बहुउद्देशीय क्षेत्र के रूप में प्रयोग करने की इजाजत भी दी गई। प्रोजेक्ट टाइगर योजना के माध्यम से जहाँ एक ओर बाघों के प्राकृतिक वास की स्थिति में काफी सुधार हुआ। वहीं दूसरी ओर बाघों की संख्या में भी वृद्धि हुई। इस योजना के महत्व का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसके लागू होेने के शुरुआती दौर में ही बाघों की संख्या पहले की अपेक्षा दोगुनी हो गई।

बाघ संरक्षित क्षेत्रों में विकसित की गई बेतार संचार प्रणाली और पेट्रोल कैम्प के द्वारा बाघों के शिकार पर कुछ हद तक प्रतिबन्ध लगाया गया। इस योजना के अन्तर्गत संरक्षित क्षेत्र, खासकर कोर क्षेत्र से बस्तियों को हटाकर अन्य जगहों पर बसाया गया। कुछ जगहों जैसे पेरियार और कार्बेट नेशनल पार्क पर प्रोजेक्ट टाइगर योजना काफी सफल हुई। लेकिन अनेक जगहों पर यह योजना अधिक सफल नहीं हो पाई।

सरिस्का और रणथम्भौर अभयारण्यों में बड़ी संख्या में बाघों के गायब होने की घटनाएँ सामने आईं।

दरअसल, इस दौर में बुद्धिजीवियों ने पर्यावरण एवं वन्य जीव संरक्षण जैसे मुद्दों को वातानुकूलित कक्षों में बहस संस्कृति का हिस्सा बना दिया है। आज इन मुद्दों पर केवल फैशन के तौर पर ही बात होती है। वन्य जीवन को बचाने की इच्छाशक्ति न तो हमारे राजनेताओं में दिखाई देती है और न ही आम जनता में।

बाघ या शेर जैसे वन्य जीवों को बचाने की किसी भी योजना में उस आदिवासी समाज का जिक्र कहीं नहीं होता, जो मुख्य रूप से वनों पर ही निर्भर हैं। जबकि वन्य जीवों को बचाने के लिए उन्हें वनों से बाहर पुनर्स्थापित करने की बात हमेशा कही जाती है। अब हमें एक ऐसी योजना विकसित करनी होगी। जिसमें वनों पर निर्भर आदिवासी समाज और वन्य जीव दोनों के बारे में सोचा जाए। इससे आदिवासी समाज वन्य जीवों को बचाने के लिए स्वयं आगे आएगा।

अनेक जगहों पर संरक्षित क्षेत्रों में रह रहे आदिवासी संरक्षित क्षेत्रों से बाहर आने के लिए राजी हुए हैं, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि उन्हें उचित मुआवजा नहीं मिल रहा है। इस तरह से वन्य जीव और आदिवासी दोनों ही अपने प्राकृतिक आवास के लिए तरस रहे हैं। कुछ समय पूर्व पर्यावरणविदों की ओर से इस तरह के सुझाव आए थे कि वन्य जीवन पर आधारित पर्यटन से होने वाली आय को संरक्षित क्षेत्र की जनता में बाँटा जाना चाहिए।

इससे जहाँ एक ओर उन्हें रोजगार मिलेगा, वहीं दूसरी ओर वे जानवरों की रक्षा के लिए भी आगे आएँगे। आज जरूरत इस बात की है कि हम बाघों को बचाने के लिए तर्कसंगत और गम्भीर नीतियाँ बनाएँ, नहीं तो वन्य जीवन पर मँडराता यह खतरा हमारे अस्तित्व के लिए भी संकट का कारण बन जाएगा।

ईमेल : rohitkaushikmzm@gmail.com

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