नारे से आगे ना बढ़ पाएगा स्वच्छता अभियान

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स्वच्छता दिवस, 02 अक्टूबर 2015 पर विशेष


अगस्त महीना समाप्त हुआ था और सितम्बर लगा ही था कि दिल्ली व उससे सटे जिलों में डेंगू की खबरें आने लगीं, फिर डेंगू का डंक पूरे देश में फैलने लगा। हालात जब बिगड़ने लगे तो कई राज्यों के मुख्यमंत्री, नेता, नगर निगम प्रधान रेडियो व अन्य संचार माध्यमों से ज्ञान बाँटने लगे कि किस तरह यदि डेंगू हो जाये तो सरकार उनके साथ है।

ग़ौरतलब है कि इस साल देश के बड़े हिस्से में बारिश कम हुई है, इसके बावजूद डेंगू फैला। यह भी सब जानते हैं कि डेंगू मच्छरों के कारण फैलता है और मच्छरों की उत्पादन स्थली गन्दगी व रुका हुआ पानी है। एक साल पहले महात्मा गाँधी के जन्म दिवस दो अक्टूबर पर प्रधानमंत्री ने एक पहल की थी, उन्होंने आम लोगों से अपील की थी- निहायत एक सामाजिक पहल, अनिवार्य पहल और देश की छवि दुनिया में सुधारने की ऐसी पहल जिसमें एक आम आदमी भी भारत-निर्माण में अपनी सहभागिता बगैर किसी जमा-पूँजी खर्च किये दे सकता था- स्वच्छ भारत अभियान।

पूरे देश में झाड़ू लेकर सड़कों पर आने की मुहिम सी छिड़ गई - नेता, अफसर, गैरसरकारी संगठन, स्कूल, हर जगह सफाई अभियान की ऐसी धूम रही कि बाजार में झाड़ुओं के दाम आसमान पर पहुँच गए। यह बात प्रधानमंत्री जानते हैं कि हमारा देश केवल साफ सफाई ना होने के कारण उत्पन्न संकटों से हर साल 54 अरब डालर का नुकसान सहता है। इसमें बीमारियाँ, व्यापारिक व अन्य किस्म के घाटे शामिल हैं।

यदि भारत में लोग कूड़े का प्रबन्धन व सफाई सीख लें तो औसतन हर साल प्रति व्यक्ति 1321 रु. का लाभ होना तय है। लेकिन जैसे-जैसे दिन आगे बढ़े, आम लोगों से लेकर शीर्ष नेता तक वे वादे, शपथ और उत्साह हवा हो गए।

कुछ महीनों पहले ही दिल्ली में नगर निगम के सफाई कर्मचारी हड़ताल पर चले गए थे और दिल्ली में 13 दिनों तक गली-सड़कों पर कूड़ों का अम्बार रहा था। आन्दोलनकारियों ने बदबूदार कूड़ा मुख्य मार्गों पर डाल दिया था। सभी दल एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप में व्यस्त थे और आम लोग कूड़े के ढेर में फँसकर गिर रहे थे, बीमार हो रहे थे।

उन गम्भीर हालातों में वे नेता, जो अक्तूबर के बाद महज फोटो खिंचवाने के लिये खुद कूड़ा डलवा कर झाड़ू लगा रहे थे, ना तो इस गन्दगी को साफ करने आगे आये और ना ही समस्या के समाधान पर गम्भीर दिखे। जब हड़ताल समाप्त हो गई तो एक बार फिर टीवी कैमरों को बुलाकर झाड़ू लगाने की अभिनय किया गया। देश, मुहल्ला साफ रहे, यह दिल से तो कोई चाहता नहीं था, बस उससे राजनीतिक लाभ की सम्भावनाओं के फेर में हाथ में झाड़ू थाम ली गई थी।

‘‘मैं गन्दगी को दूर करके भारत माता की सेवा करुँगा। मैं शपथ लेता हूँ कि मैं स्वयं स्वच्छता के प्रति सजग रहूँगा और उसके लिये समय दूँगा। हर वर्ष सौ घंटे यानी हर सप्ताह दो घंटे श्रमदान करके स्वच्छता के इस संकल्प को चरितार्थ करुँगा। मैं न गन्दगी करुँगा, न किसी और को करने दूँगा। सबसे पहले मैं स्वयं से, मेरे परिवार से, मेरे मोहल्ले से, मेरे गाँव से और मेरे कार्यस्थल से शुरुआत करुँगा। मैं यह मानता हूँ कि दुनिया के जो भी देश स्वच्छ दिखते हैं उसका कारण यह है कि वहाँ के नागरिक गन्दगी नहीं करते और न ही होने देते हैं। इस विचार के साथ मैं गाँव-गाँव और गली-गली स्वच्छ भारत मिशन का प्रचार करुँगा। मैं आज जो शपथ ले रहा हूँ वह अन्य सौ व्यक्तियों से भी करवाऊँगा, ताकि वे भी मेरी तरह सफाई के लिये सौ घंटे प्रयास करें। मुझे मालूम है कि सफाई की तरफ बढ़ाया गया एक कदम पूरे भारत को स्वच्छ बनाने में मदद करेगा। जय हिन्द।’’

यह शपथ दो अक्टूबर को पूरे देश में सभी कार्यालयों, स्कूलों, जलसों में गूँजी थी। उस समय लगा था कि आने वाले एक साल में देश इतना स्वच्छ होगा कि हमारे स्वास्थ्य जैसे बजट का इस्तेमाल अन्य महत्त्वपूर्ण समस्याओं के निदान पर होगा। लेकिन अब साफ दिख रहा है कि हम भारतीय केवल उत्साह, उन्माद और अतिरेक में नारे तो लगाते हैं। लेकिन जब व्यावहारिकता की बात आती है तो हमारे सामने दिल्ली के कूड़े के ढेर जैसे हालात होते हैं जहाँ गन्दगी से ज्यादा सियासत प्रबल होती है।

भारत के केवल ग्रामीण ही नहीं बल्कि शहरी क्षेत्र में शौचालयों का अभाव है। यहाँ सार्वजनिक शौचालय भी पर्याप्त संख्या में नही हैं, जिसकी वजह से हमारे शहरों में भी एक बड़ी आबादी खुले में शौच करने को मजबूर है। इसी तरह से देश में करीब 40 प्रतिशत लोगों को स्वच्छ पीने योग्य पानी उपलब्ध नहीं है। यही नहीं दिल्ली सहित लगभग सभी नगरों से साल-दर-साल कूड़े का ढेर बढ़ता जा रहा है जबकि उसके निष्पादन के प्रयास बेहद कम हैं। हर नगर कूड़े के ढलाव से पट रहा है और उससे बदबू, भूजल प्रदूषण, ज़मीन का नुकसान जैसे कभी ठीक ना होने वाले विकार भी उत्पन्न हो रहे हैं। भारत में स्वच्छता का नारा काफी पुराना है। सन् 1999 में भी संपूर्ण स्वच्छता अभियान चलाया गया था लेकिन अभी भी देश की एक बड़ी आबादी का जीवन गन्दगी के बीच ही गुजर रहा है। 2011 की जनगणना के अनुसार राष्ट्रीय स्वच्छता कवरेज 46.9 प्रतिशत है जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह औसत केवल 30.7 प्रतिशत है। अभी भी देश की 62 करोड़ 20 लाख की आबादी (राष्ट्रीय औसत 53.1 प्रतिशत) खुले में शौच करने को मजबूर हैं।

राज्यों की बात करें तो मध्य प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में शौचालय के उपयोग की दर 13.6 प्रतिशत, राजस्थान में 20 प्रतिशत, बिहार में 18.6 प्रतिशत और उत्तर प्रदेश में 22 प्रतिशत है। भारत के केवल ग्रामीण ही नहीं बल्कि शहरी क्षेत्र में शौचालयों का अभाव है। यहाँ सार्वजनिक शौचालय भी पर्याप्त संख्या में नही हैं, जिसकी वजह से हमारे शहरों में भी एक बड़ी आबादी खुले में शौच करने को मजबूर है।

इसी तरह से देश में करीब 40 प्रतिशत लोगों को स्वच्छ पीने योग्य पानी उपलब्ध नहीं है। यही नहीं दिल्ली सहित लगभग सभी नगरों से साल-दर-साल कूड़े का ढेर बढ़ता जा रहा है जबकि उसके निष्पादन के प्रयास बेहद कम हैं। हर नगर कूड़े के ढलाव से पट रहा है और उससे बदबू, भूजल प्रदूषण, ज़मीन का नुकसान जैसे कभी ठीक ना होने वाले विकार भी उत्पन्न हो रहे हैं।

पिछले एक साल के दौरान दिल्ली हो या कहीं दूरस्थ नगरपालिका, कई जगह सफाईकर्मी हड़ताल पर गए और उन्होंने विरोधस्वरूप कूड़ा, सड़कों पर उड़ेला। जिन जगहों पर राजनेताओं ने अपने फोटों खिंचवाए थे, उनमें से अधिकांश पूर्ववत गन्दगी से बजबजा रहे हैं। लगता है कि कूड़ा हमारी राजनीति व सोच का स्थायी हिस्सा हो गया है।

दिल्ली से चिपके गाज़ियाबाद में एक निगम पार्षद व एक महिला दरोगा का आपसी झगड़ा हुआ व पार्षद के समर्थन में सफाई कर्मचारियों ने दरोगा के घर के बारह रेहड़ी भर कर बदबूदार कूड़ा डाल दिया। प्रधानमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र, जहाँ मिनी सचिवालय, क्योटो शहर का सपना और सत्ता के सभी तंत्र सक्रिय हैं, शहर में कूड़े व गन्दगी का अलम यथावत है।

अभी एक प्रख्यात अन्तरराष्ट्रीय समाचार संस्था ने अपनी वेबसाइट पर शहर के दस प्रमुख स्थानों पर कूड़े के अम्बार के फोटो दिये हैं।, जिनमें बबुआ पांडे घाट, बीएचईएल, पांडे हवेली, रवीन्द्रपुरी एक्सटेंशन जैसे प्रमुख स्थान कई टन कूड़े से बजबजाते दिख रहे हैं।

शायद यह भारत की रीति ही है कि हम नारों के साथ आवाज तो जोर से लगाते हैं लेकिन उनके ज़मीनी धरातल पर लाने में ‘किन्तु-परन्तु’ उगलने लगते हैं। कहा गया कि भारत को आजादी अहिंसा से मिली, लेकिन जैसे ही आजादी मिली, दुनिया के सबसे बड़े नरसंहारों में से एक विभाजन के दौरान घटित हो गया और बाद में अहिंसा का पुजारी हिंसा के द्वारा ही गौलोक गया।

‘यहाँ शराब नहीं बेची जाती है’ या ‘देखो गधा मूत रहा है’ से लेकर ‘दूरदृष्टि- पक्का इरादा’, ‘अनुशासन ही देश को महान बनाता है’ या फिर छुआछूत, आतंकवाद, साम्प्रदायिक सौहार्द्र या पर्यावरण या फिर ‘बेटी बचाओ’- सभी पर अच्छे सेमीनार होते हैं, नारे व पोस्ट गढ़े जाते हैं, रैली व जलसे होते हैं, लेकिन उनकी असलियत दीवाली पर हुई हरकतों पर उजागर होती है।

हर इंसान चाहता है कि देश मे बहुत से शहीद भगत सिंह पैदा हों, लेकिन उनके घर तो अम्बानी या धोनी ही आएँ, पड़ोस में ही भगत सिंह जन्मे, जिसके घर हम कुछ आँसु बहाने, नारे लगाने या स्मारक बनाने जा सकें। जब तक खुद दीप बनकर जलने की क्षमता विकसित नहीं होगी, तब तक दीया-बाती के बल पर अन्धेरा जाने से रहा।

प्रधानमंत्री का एक विचार आम लोगों को देना व उसके क्रियान्वयन के लिये शुरुआत करना है, उसे आगे बढ़ाना आम लोगों व तंत्र की ज़िम्मेदारी है। विडम्बना है कि पूरा साल बीतने के बाद भी आम लोग दिल व दिमाग से इस महत्त्वपूर्ण अभियान से जुड़ नहीं पाये और यह नारे या रस्म अदायगी से ज्यादा आगे बढ़ नहीं पाया। अब तो लगता है कि सामुदायिक व स्कूली स्तर पर इस बात के लिये नारे गढ़ने होंगे कि नारों को नारे ना रहने दो, उन्हें ‘नर-नारी’ का धर्म बना दो।

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