नौ बिलियन बनाम 2 डिग्री सेन्टीग्रेड : वर्तमान व भविष्य की चुनौतियाँ


बढ़ती हुई जनसंख्या एवं उपभोग प्राकृतिक संसाधनों व पर्यावरण पर निरंतर दबाव बनाए हुए है। एक ओर जहाँ वर्ष 2050 तक मानव जनसंख्या 9 बिलियन पार कर जाएंगी (चित्र 1) वहीं दूसरी ओर उनके भरण की व्यवस्था के लिये कृषि क्षेत्र का फैलाव भी बढ़ेगा। कृषि चूँकि ग्रीनहाउस गैसों के विनियमन में सबसे शक्तिशाली मानवजनित कारक है, इसके फैलाव से ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में वृद्धि की संभावनाएं भी अधिक हैं। इसका एक पहलू यह भी है कि तापमान वृद्धि एवं जलवायु परिवर्तन के कारण कृषि क्षेत्र की उत्पादकता घट रही है। यह एक धनात्मक फीडबैक की तरह है जहाँ एक समस्या में वृद्धि दूसरे को स्वत: ही बढ़ाती जाती है। ग्रीनहाउस गैसों पर नियंत्रण में असफल होने के कारण वायुमंडलीय तापमान में सामान्य से 0.750C की वृद्धि पहले ही दर्ज की जा चुकी है। वैज्ञानिक साक्ष्यों के अनुसार यदि यह वृद्धि 20C से अधिक होती है तो मानव जाति समेत समूची ग्रहीय प्रणाली को विनाशकारी परिणाम देखने होंगे। बाढ़, सूखा एवं चक्रवाती तूफानों द्वारा होने वाली तबाही में इजाफा इसके संकेत हैं।

Fig-1इन सबके बीच, विश्व का हर सातवाँ व्यक्ति कुपोषित अथवा पर्याप्त भोजन की कमी झेल रहा है। इस प्रकार संपोषित विकास की अवधारणा के मूल क्रियान्वयन के सम्मुख यह एक प्रमुख चुनौती है कि क्या हम पर्यावरण को सुरक्षित रखते हुए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित कर पाएँगे।

प्रस्तुत लेख में इस समस्या के विभिन्न पहलुओं का पुनरावलोकन करते हुए उपलब्ध विकल्पों के निरीक्षण की कोशिश की गई है।

1. कृषि की वर्तमान स्थिति


पृथ्वी की बर्फरहित भूमि का 12 प्रतिशत हिस्सा कृषि के अंतर्गत है, जो लगभग 1.53 बिलियन हेक्टेयर के बराबर है (FAO, 2007), कृषि क्षेत्र का फैलाव लगातार जारी है। मुख्यतौर पर उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में यह फैलाव वनों की कटाई का मुख्य कारण है। हालाँकि वैज्ञानिक पद्धतियों एवं नई तकनीकों के फलस्वरूप पिछले कुछ दशकों में कृषि क्षेत्र का उत्पादन भी बढ़ा है। सन 1985-2005 के बीच कृषि उत्पादन 47 प्रतिशत तक बढ़ गया जबकि कृषि भूमि का फैलाव मात्र 7.1 ही था (FAO, 2005)। अत: इस प्रकार, कृषि क्षेत्र की उत्पादन क्षमता, थॉमस माल्थस के आकलन के विरुद्ध, बढ़ी हुई जनसंख्या का भरण करने में अभी तक सक्षम है। हालाँकि वैज्ञानिक शोध यह भी दर्शाते हैं कि उत्पादकता में बढ़ोत्तरी की दर अब घटने लगी है। फसलों के अलावा पशुपालन कृषि क्षेत्र के एक बड़े हिस्से का उपयोग करता है। चूँकि पशुपालन किसानों की आय को बेहतर बनाता है, कुछ क्षेत्रों में किसान फसलों की बजाय चारे की उपज पर अधिक ध्यान देते हैं। परंतु वैज्ञानिक दृष्टि से कृषि योग्य भूमि का प्रयोग चारा उगाने के लिये करना निराशाजनक है (फोले व अन्य, 2012)।

2. कृषि एवं पर्यावरण


पर्यावरण एवं कृषि निरंतर एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। जैव विविधता, कार्बन भण्डारण, मृदा एवं जल संरक्षण पर कृषि गतिविधियों का सीधा प्रभाव पड़ता है। विश्व के 70 प्रतिशत घास के मैदान 45 प्रतिशत शीतोष्ण पर्णपाती वन एवं 27 प्रतिशत उष्ण कटिबंधीय वन खेतों में परिवर्तित हो चुके हैं (रामाकृट्टी व अन्य, 2008)।

इस प्रकार के भूमि प्रयोग में परिवर्तन के कारण ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में अप्रत्याशित वृद्धि दर्ज की गई है। कृषि के लिये वनों का कटाव, प्रत्येक वर्ष लगभग 1.1X1012 kg कार्बन उत्सर्जन का कारण है।

पारिस्थितिक सेवाओं का आकलन किया जाए तो हम पाएँगे कि वैश्विक स्तर पर उपलब्ध मीठे जल का प्रयोग सिंचाई के लिये होता है। साथ ही उर्वरक एवं दलहनों की खेती ने प्राकृतिक नाइट्रोजन एवं फॉस्फोरस चक्रों को प्रभावित किया है। इन सबके अलावा, मृदा का क्षरण विश्व के अनेक हिस्सों में एक चुनौती के रूप में उभर रहा है। इस कारण मृदा की उत्पादन क्षमता घट रही है जिसके कारण, कृषि भूमि में विस्तार के बावजूद उत्पादन प्रत्याशित दर से नहीं बढ़ रहा है।

पर्यावरणीय घटक भी खेती को सीधे तौर पर प्रभावित करते हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण चावल, गेहूँ एवं मक्का जैसे मुख्य अनाजों के उत्पादन में कमी दर्ज की गई है। बढ़ा हुआ तापमान, वर्षा में अनियमितता एवं तूफानों में बढ़ोत्तरी के कारण उपजाऊ मृदा का तेजी से ह्रास हो रहा है। वायु प्रदूषण जैसे ओजोन भी कृषि की उत्पादकता के समक्ष एक बड़ी चुनौती प्रस्तुत कर रहा है।

3. समाधान एवं विकल्प


Fig-2सतत खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने हेतु विभिन्न घटकों (चित्र 2) के समावेश के साथ-साथ निम्न बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए कृषि क्षेत्र में क्रांति की आवश्यकता है।

(क) कृषि का उत्पादन 2050 तक दोगुना करना।
(ख) कृषि क्षेत्र से ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को 80 प्रतिशत तक कम करना।
(ग) जैव विविधता का संरक्षण।
(घ) सिंचाई के लिये समुचित जल प्रबंधन।
(ड.) कृषि के कारण होने वाले जल प्रदूषण को पूर्णतया रोकना।

उपरोक्त पाँच चुनौतियों को एक साथ पूरा करना प्रथम दृष्टया दुष्कर लगता है, परंतु वैज्ञानिक शोध कुछ विकल्प जरूर पेश करते हैं।

कृषि क्षेत्र के फैलाव को रोकना


चूँकि उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में वनों को परिवर्तित कर हो रही कृषि की उत्पादन क्षमता अधिक नहीं है, अत: उष्ण कटिबंधीय वनों को बचाते हुए, शीतोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में कृषि भूमि के फैलाव को कुछ वैज्ञानिक शोध कार्यों में उचित माना गया है (फोले व अन्य, 2012)। कार्बन भण्डारण एवं वनों के संरक्षण की एवज में किसानों को धन देने के भी सुझाव बेहतर माने गए हैं। बढ़ती हुई ऊर्जा मांग की पूर्ति के लिये कृषि योग्य भूमि का एक हिस्सा ऊर्जा फसलों के लिये प्रयोग किया जा रहा है। यह अपेक्षित है कि यह भूमि खाद्य फसलों की खेती के प्रयोग में लाई जाए।

उत्पादकता में वृद्धि


विश्व की अधिकतर कृषि क्षेत्र उसके उच्चतम उत्पादक क्षमता से बहुत नीचे पाये गये हैं। उपजाऊ भूमि की उत्पादकता बढ़ाने के लिये फसलों में आनुवंशिक बदलाव कर अपेक्षित गुणों को विकसित किया जा सकता है। ऐसे बदलाव उत्पादन क्षमता में शीघ्र वृद्धि करने में सक्षम हैं। कम उपजाऊ मृदा में बेहतर उर्वरकों, उचित कृषि तकनीकों एवं मृदा संरक्षण के तरीकों को अपनाकर बिना कृषि क्षेत्र के फैलाव किये उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है। इस प्रकार कृषि उत्पादन में 58 प्रतिशत तक की वृद्धि लाई जा सकती है।

संसाधनों का कुशल प्रयोग


पर्यावरणीय कुप्रभावों को कम करने के लिये उपलब्ध संसाधनों का दक्ष प्रयोग वांछनीय है ताकि प्रति इकाई उत्पादन पर जल, ऊर्जा, भूमि एवं उर्वरकों की खपत को घटाया जा सके। आवश्यकता से अधिक सिंचाई, जोताई एवं उर्वरकों के प्रयोग से न केवल मृदा पर दुष्प्रभाव पड़ते हैं, अपितु आर्थिक रूप से भी यह लाभकारी सिद्ध नहीं होता।

खाद्य पदार्थों की सुरक्षा एवं उपलब्धता


खाद्य एवं कृषि संघ (FAO) ने यह पाया है कि विश्वभर का लगभग एक तिहाई भोजन केवल उचित भण्डारण एवं आवंटन की कमी के कारण पूर्णतया नष्ट हो जाता है। आज विश्व की लगभग 14 प्रतिशत जनसंख्या कुपोषित है। खाद्य वस्तुओं की कीमत, बाजार पर नियंत्रण एवं अन्तरराष्ट्रीय व्यापारिक नीतियों के चलते भोजन की उपलब्धता के बावजूद उसका न्यायोचित आवंटन एक चुनौती है। इनके अलावा, वैज्ञानिक शोध यह दिखाते हैं कि शाकाहार को प्रसारित कर विश्व के बढ़े हिस्से के लिये भोजन की उपलब्धता बढ़ाई जा सकती है।

उपसंहार


ग्लोबल वार्मिंग एवं खाद्य सुरक्षा परस्पर एक दूसरे से संबंधित हैं। अत: एक चुनौती के समाधान हेतु दूसरे का समुचित प्रबंधन वांछनीय है। यह आवश्यक है कि कृषि के विभिन्न तरीकों का पुनरावलोकन कर सर्वाधिक उत्पादक एवं पर्यावरण को कम से कम क्षति पहुँचाने वाली तकनीकों का प्रयोग किया जाए। साथ ही कृषि के फैलाव को रोकने के लिये किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार एवं अन्तरराष्ट्रीय नीतियों में आशावादी बदलाव वांछनीय है। इसके लिये विश्व-स्तर पर कृषि एवं पर्यावरण शोध से संबंधित तंत्र की आवश्यकता है। तभी हम आने वाले समय में 9 बिलियन से अधिक की जनसंख्या को भोजन उपलब्ध कराने के साथ-साथ पर्यावरणी ह्रास द्वारा उत्पन्न संकटों से भी बचा पाएँगे।

संदर्भ


(1) फोले व अन्य (2012) नेचर 10452, 1-6।
(2) रामाकृट्टी व अन्य (2008) बायोजियोकेमिकल साइकिल्स 22, GB1003।

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