नदी जोड़ योजना: बेजोड़ या अव्यावहारिक गठजोड़

28 Mar 2012
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सच्चाई यह है कि जब एक नदी में बाढ़ आई हुई होती है तो दूसरी नदी में भी पानी अधिक ही रहता है। इसी तरह नदियों के पानी को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने के लिए बड़े पैमाने पर भंडारण क्षमताओं की आवश्यकता होती है। भारी भरकम जलाशयों का निर्माण करने का पर्यावरण पर किस तरह असर पड़ सकता है, इसका जिक्र नदियों को जोड़ने संबंधी योजना में नहीं किया गया है। अनेक सिंचाई परियोजनाओं को इसलिए रोक दिया गया क्योंकि उनके कारण होने वाले नुकसान की भरपाई कर पाना संभव नहीं था।

सर्वोच्च न्यायालय ने हाल में केंद्र सरकार को नदियों को जोड़ने की योजना के बारे में निर्देश दिया है। न्यायालय के निर्देश एकदम सीधे और साफ हैं। उनके मुताबिक सरकार को इस मसले पर मंत्रियों और अन्य प्रतिनिधियों की उच्चस्तरीय समिति का गठन करना होगा। यह समिति हर दो महीने में कम से कम एक बैठक करेगी, किसी भी सदस्य की अनुपस्थिति में बैठक को रद्द नहीं किया जाएगा। इसके अलावा समिति साल में दो बार केंद्रीय मंत्रिमंडल को इस बारे में उठाए गए कदमों के बारे में रिपोर्ट सौंपेगी। न्यायालय के मुताबिक इसी आधार पर मंत्रिमंडल देश के हित में फैसले लेगा। सर्वोच्च अदालत का यह भी कहना है कि मंत्रिमंडल यह फैसला जल्द से जल्द लेगा और यथासंभव यह मामला मंत्रिमंडल के विचारार्थ पेश किए जाने के 30 दिन के भीतर निपटाया जाएगा। बहरहाल, सबसे पहले आइए इस बात पर नजर डालते हैं कि दरअसल नदियों को जोड़ने का मतलब क्या है और इस अदालती निर्देश के क्या असर होंगे? हकीकत यह है कि नदियों को आपस में जोड़ने या एक नदी का पानी दूसरी नदी में पहुंचाने का विचार कोई नया विचार नहीं है और छोटे पैमाने पर ही सही, इसे आजमाया जाता रहा है।

दरअसल हर सिंचाई परियोजना में एक स्तर पर पानी का स्थानांतरण किया जाता है। सवाल यह उठता है कि नदियों को जोड़ने की इस योजना का तात्पर्य क्या है? 'नदियों को जोड़ने' का विचार सबसे पहले 1972 में सिंचाई इंजीनियर के एल राव ने दिया था। उन्होंने विशालकाय गंगा-कावेरी नहर के निर्माण की पेशकश रखी थी। इसके तहत पटना के निकट गंगा के बढ़े हुए पानी को एक दूसरी धारा में मोडऩा था। इस तरह साल में करीब 150 दिनों तक गंगा के बाढ़ के पानी को 2,640 किलोमीटर की यात्रा तय करके एक नहर के जरिए सुदूर दक्षिण की कावेरी नदी में पहुंचना था। इस प्रस्ताव ने जोर पकड़ा। राज्य को गंगा का अतिरिक्त पानी तमिलनाडु में पानी की कमी से जूझ रहे इलाकों तक पहुंचाने का विचार काफी आकर्षक लगा। बाद में दिनशॉ जे दस्तूर ने एक अलग सुझाव दिया। यह विचार था हिमालय के जलविभाजक क्षेत्र से छोटी-छोटी नहरों के जरिए पश्चिमी घाट तक पानी मुहैया कराना।

लंबी दूरी की सिंचाई परियोजनाओं के विचार के आगमन के बाद पानी से जुड़ी नौकरशाही बड़े पैमाने पर पनपी। सन् 1982 में राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी का गठन किया गया। इस संस्था का काम था, प्रायद्वीप की नदियों और उसके बाद हिमालय से निकलने वाली नदियों को जोड़ने संबंधी परियोजनाओं का पहले अध्ययन करना और बाद में उन पर अमल करना। इस विचार के पीछे भी वही वजह थी। देश के कुछ हिस्सों में बाढ़ जबकि अन्य क्षेत्रों में सूखे की स्थिति होना। अगर नदियों को जोड़ दिया जाए तो सभी संतुष्ट हो जाएंगे। लेकिन एजेंसी के प्रस्तावों को सरकारों ने एक के बाद एक देखा जरूर लेकिन उन पर किसी तरह का अमल नहीं किया गया। इसके बाद वर्ष 2000 की शुरुआत में सर्वोच्च न्यायालय और सरकार ने दोबारा इस पर नजर डाली। सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को आदेश दिया कि वह इस परियोजना पर अमल का काम तेज करे।

न्यायालय ने इस काम को पूरा करने के लिए वर्ष 2016 तक की मियाद तय की। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार ने तत्काल नदियों को जोड़ने के लिए कार्यदल गठित करने की घोषणा की और तत्कालीन पर्यावरण एवं ऊर्जा मंत्री सुरेश प्रभु को इसकी जिम्मदारी सौंपी। कार्य को 2 वर्ष के भीतर 30 नदियों को जोड़ने का काम करना था। इसके लिए करीब 1,000 किमी लंबी नहरें तैयार की जानी थीं। यह काम भी शुरू नहीं हो सका। इसके बाद नई सरकार सत्ता में आई। इस विचार ने लुभाया जरूर लेकिन समझदारी का तकाजा कुछ और था। पाया गया कि नदियों को आपस में जोड़ने का काम तकनीकी रूप से अव्यावहारिक और महंगा है। अब सर्वोच्च न्यायलय ने एक बार फिर सरकार को आदेश दिया है कि इस काम को पूरा किया जाए। लेकिन एक सवाल जो अब भी बरकरार है वह यह कि सरकार की कई सिंचाई परियोजनाएं अधूरी पड़ी हैं।

ऐसी हालत में इस परियोजना से हासिल क्या होगा? एक बात और मान ली गई है कि नदियों की घाटियों में भारी मात्रा में अधिशेष जल मौजूद है। यह धारणा सही नहीं है। सच्चाई यह है कि अधिकांश नदी घाटियां इन दिनों भरपूर इस्तेमाल में हैं और अधिकांश इलाकों में ऐसे पानी का लंबे समय से इस्तेमाल करने वाले ग्रामीणों-किसानों और नए औद्योगिक तथा शहरी नागरिकों के बीच तनाव बढ़ रहा है। महानदी बेसिन जो गोदावरी नदी से जुड़ा है, इस गलत आकलन का सटीक उदाहरण है। इस बेसिन में बहुत कम ऐसा पानी बचा हुआ है जिसे इस्तेमाल में लाया जा सकता है। नए उपभोक्ता उस पानी की मांग कर रहे हैं जो दरअसल है ही नहीं। दूसरी बात, बाढ़ के पानी को नहरों के जरिए दूसरी जगह इस्तेमाल में लाने का विचार भी उतना ही गलतियों से भरपूर है। सच्चाई यह है कि जब एक नदी में बाढ़ आई हुई होती है तो दूसरी नदी में भी पानी अधिक ही रहता है।

इसी तरह नदियों के पानी को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने के लिए बड़े पैमाने पर भंडारण क्षमताओं की आवश्यकता होती है। भारी भरकम जलाशयों का निर्माण करने का पर्यावरण पर किस तरह असर पड़ सकता है, इसका जिक्र नदियों को जोड़ने संबंधी योजना में नहीं किया गया है। अनेक सिंचाई परियोजनाओं को इसलिए रोक दिया गया क्योंकि उनके कारण होने वाले नुकसान की भरपाई कर पाना संभव नहीं था। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ऐसी परियोजनाओं के कारण विस्थापित होने वाले लोगों के पुनर्वास के काम में सरकार का प्रदर्शन बेहद निराश करने वाला रहा है। यह आकलन बिलकुल सही है कि सिंचाई परियोजनाओं में निवेश करना भारत के लिए फायदेमंद साबित होगा लेकिन यह बात भी उतनी ही सच है कि देश के सामने मौजूदा चुनौती यह सुनिश्चित करना है कि पहले से बन चुकी और परिचालित हो रही सिंचाई परियोजनाओं पर काम चलता रहे। 12वीं पंचवर्षीय योजना के कार्य समूह ने स्पष्ट कहा है कि पहली प्राथमिकता सिंचाई की संभावित क्षमता और उसके इस्तेमाल के बीच के अंतर को कम करना है। वर्तमान में यह अंतर 18 फीसदी है।

नदियों को जोड़ने का विचार लुभाता है क्योंकि यह बहुत बड़ी परियोजना है। लेकिन यह एक विचलन के सिवा कुछ नहीं है। ऐसा विचलन जिसमें हमारा कीमती समय और पैसा लगेगा। असल काम है सभी को स्वच्छ जल मुहैया कराना और संसाधनों का किफायती ढंग से इस्तेमाल करना। हमें इस पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

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