नदी जोड़ योजना की मृगमरीचिका

कुदरत ने नदियों को नहीं जोड़ा है मगर पानी को जरूर इसने जल चक्र के जरिये जोड़ रखा है। सम्पूर्णता की नीति एक संतुलित जल-चक्र का तकाजा है ताकि वन क्षेत्र का विस्तार हो, मिट्टी का कटाव रुके, भूजल-स्तर में वृद्धि हो, गाद भरने की प्रक्रिया थमे और मौजूदा तालाबों, झीलों और जलाशयों का भली-भांति रखरखाव हो। कृषि नीति और जन वितरण प्रणाली इस तरह की हो कि उसका क्षेत्र विशेष पर आधारित आहार वैविध्य से तालमेल बैठ सके।

भारत की नदियों को जोड़ने की जो बात दुबारा सिर उठा रही है वह कुछ के लिए विस्मयकारी है तो दूसरे के लिए स्वप्निल।पूर्वराष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के द्वारा पेश और मुख्य न्यायाधीश बीएन कृपाल द्वारा अग्रसारित इस विचार की उदारता की ओर सुखाड़ और बाढ़ से जूझ रहे लोगों का ध्यान जाएगा।

नदी का तंत्र क्या है, अंतर-बेसिन स्थानांतरण से क्या निकलेगा, बड़ी-बड़ी नदी घाटी और अंतर-बेसिन परियोजनाओं की राजनीति एवं अर्थनीति क्या है, जो ये सारी बातें जानता है उसे पता है कि इस परियोजना में पानी कम, पानी का भ्रम ज्यादा है।

प्रायः इस विशाल परियोजना को देश की सबसे बड़ी अदालत की मंजूरी हासिल है, हालांकि इस पर न तो आम-बहस की गुंजाइश बनने दी गई और न ही संबंधित लोगों, जन संगठनों या स्वतंत्र विशेषज्ञों के लिए कोई उपाय का ही प्रावधान उपलब्ध है। आम जनता को बचपन से ही यह घुट्टी पिलाई जाती रही है कि इस अदालत के ‘फैसले’ को सर्वमान्य, संवैधानिक और ‘वैध’ मान लिया जाए। एक बार अवश्यंभावी कृत्य मान लिए जाने के बाद वैसे भी किसी किस्म का लोकतांत्रिक पुनरीक्षण या वैज्ञानिक आकलन व्यर्थ ही साबित होता है।

नदियों के प्रवाह में मानवीय हस्तक्षेप से उठने वाली राजनीति को हमने पीढ़ियों से एक प्रशासनिक इकाई से दूसरी प्रशासनिक इकाई तक देखा है। कावेरी नदी से ढेर सारा पानी बह जाने के बावजूद सारी नदियों को जोड़ने के भव्य स्वप्न को कोई गंभीरता से नहीं ले सकता। मगर ऐसा जब राज्य और न्यायपालिका के सर्वोच्च सोपान से कहा जाने लगे तो उसी राज्य की किसी एजेंसी द्वारा इसके धनात्मक और ऋणात्मक पहलुओं की विवेचना सुनने के लिए कौन तैयार हो सकता है! इस हड़बड़ी भरी शुरुआत को विशेषज्ञों और आमजन की प्रतिक्रिया से रोका जा सकता है।

बड़ी जल परियोजनाओं के संदर्भ में अंतर-नदी बेसिन प्रबंध की चर्चा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय कानूनों में है। अंग्रेजी राज के सिंचाई आयोग के दिनों से ही अंतर-नदी स्थानांतरण को लेकर टीका-टिप्पणी होती रही है और जिन दिनों बड़े बांधों का निर्माण धड़ल्ले से हो रहा था उन्हीं दिनों कैप्टन दस्तूर की ‘गारलैंड कैनाल’ को ठुकरा दिया गया था। नदियों को जोड़ने की बात 1990 के दशक में केंद्र द्वारा ठुकरा दी गई थी और ऐसा जल संसाधन के पूर्व सचिव एमएस रेड्डी जैसे विशेषज्ञों और नौकरशाहों की सलाह पर किया गया था।

अनुभव बताता है कि हर नदी बेसिन के मूलभूत पहलुओं का आवश्यक तौर पर अध्ययन होना चाहिए। खास तौर से, आवाह क्षेत्र, कमान क्षेत्र विकास, प्रभावित होने वाली आबादी का सर्वे, जलाशय एवं कैनाल प्रणाली से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव और मत्स्यपालन पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन जरूरी है। पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव का आकलन भी बड़ा व्यापक होगा। मुआवजे वगैरह की योजना विवेकसम्मत ढंग से तैयार की जानी चाहिए।

यदि कैनाल नेटवर्क को शामिल किया जाता है, तो क्या सर्वेक्षक इस बात का पता लगाएंगे कि मिट्टी सतही जल के प्रवाह से सिंचित हो पाएगी या नहीं? फसल प्रणाली में अचानक आने वाले बदलाव के क्या परिणाम होंगे? पर्याप्त चेतावनी दी जा चुकी है। नदी घाटी निर्देश (1983) में कहा गया कि मिट्टी की प्रणाली का निरीक्षण जरूरी है, साथ ही, जल एवं लोगों के स्थानांतरण से पैदा होने वाले पर्यावरणीय एवं सामाजिक प्रभाव की इसमें चेतावनी भी दी गई है। परियोजना में अगर इन निर्देशों को शामिल नहीं किया गया तो प्रायः इन पर विचार नहीं ही हो पाएगा।

बिना सही मूल्यांकन के राजनीतिक स्वार्थ की वजह से नर्मदा घाटी जैसी परियोजनाओं में बढ़े संघर्षों ने व्यापक पैमाने पर होने वाले विस्थापन और लाभ वाले क्षेत्रों पर पड़ने वाले प्रभाव को स्पष्ट कर दिया है।

बुनियादी सवालों की जांच जरूरी है। नदियों को जोड़ने से सचमुच सुखाड़ को रोका जा सकता है? या महज सुखाड़ का स्थानांतरण होगा? जैसा कि लोगों का मानना है, क्या नदियों के इस जोड़ में बड़े बांधों की गुंजाइश नहीं है? विस्थापितों की क्या तादाद होगी और पुनर्वास के क्या प्रावधान होंगे? नहरों का विस्थापन भी संभव है। सरदार सरोवर परियोजना के कैनाल नेटवर्क की वजह से डेढ़ लाख काश्तकारों को अपनी जमीन से हाथ धोना पड़ सकता है। इनमें से साढ़े तेईस हजार की एक चौथाई से ज्यादा जमीन जाएगी जबकि दो हजार की सारी की सारी।

इनमें से किसी भी परिवार को परियोजना प्रभावित नहीं माना गया है और न ही पुनर्वास योग्य। बेसिनों में पानी का स्थानांतरण होगा कैसे? या तो बड़े बांधों के जरिये या फिर पंपों के माध्यम से। इसके लिए हजारों मेगावाट बिजली की जरूरत पड़ेगी। बिजली संकट के मौजूदा दौर में बिजली की कितनी उपलब्धता अनुमानित है?

यदि नदियों से समुद्र की ओर जाने वाले पानी को भूभाग की तरफ मोड़ जाएगा तो तटीय समुदायों और मत्स्य उद्योग की समुद्र तक पहुंच पर क्या असर पड़ेगा? क्या इस आदेश का यह अर्थ है कि इसकी मंजूरी देशाचार के माध्यम से होगी? या फिर, सरदार सरोवर परियोजना की भांति इस फैसले की घोषणा के साथ ही बिना शर्त इसे मान लेने की बाध्यता हो जाएगी और अनेक अतिक्रमणों के बावजूद न तो इसकी रोक के लिए कोई कानून रहेगा, न ही शिकायतों को उठाने का कोई अवसर बचेगा।

अंतर-नदी बेसिन स्थानांतरण के लिए सहायकी के सिद्धांत का तकाजा है कि पानी उसी स्थान से उठाया जाए जिस स्थान पर वह सबसे पहले गिरे। आज जल प्रबंधन के संकट का कारण है जल-कृषि को पूरी तरह नजरअंदाज करना, और उसकी वजह इसे गौण महत्व का माना जाना है। इस कारण देखते हैं कि हमारी संस्कृति और समुदायों तथा पारिस्थितिकी तंत्र का विध्वंस हो रहा है और राज्यों के बीच संघर्ष पैदा होते हैं, जैसा कि कावेरी विवाद के मामले से जाहिर है या नर्मदा मामले में जनता और राज्य के बीच होने वाले टकराव से स्पष्ट है। ऐसे टकराव अक्सर वैज्ञानिक युक्तियों की बजाय राजनीतिक युक्तियों के द्वारा सुलझाए जाते हैं। अगर ऐसा एक भी नदी बेसिन में होता है तो अनुमान लगाया जाए कि कई-कई नदी बेसिनों के मामले में कैसा नजारा होगा।

राष्ट्रीय राजमार्गों की ही भांति कैनाल प्रणाली जब समूचे देश में फैलेगी, तो हानिकर पदार्थों की वाहिका भी बन सकती है। मगर उत्तर के राज्यों में बाढ़ की समस्या को नियंत्रित किया जा सके, इतना पानी इन कैनालों से नहीं जा पाएगा और इन्हें पानी आपूर्ति करने के लिए जो बांध बनाए जाएंगे उनके चलते इन राज्यों की उपजाऊ जमीन, वनक्षेत्र और अनेक गांव सदा के लिए डूब जाएंगे। ऐसी योजनाओं के बारे में सवाल उठाने और उन्हें रोकने की महज कोशिश करने के लिए भी प्राकृतिक संपदा पर आश्रित समुदायों को भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है।

संसदीय प्रतिवेदन के मुताबिक करीब 80,000 करोड़ों रुपयों की जरूरत अभी उन परियोजनाओं के लिए ही है जो पूरी नहीं की जा सकती हैं या जिनका समुचित इस्तेमाल नहीं शुरू हो पाया है, ऐसे में इस योजना को कितना व्यावहारिक, वैज्ञानिक या लोकतांत्रिक माना जा सकता है?

नदी तटीय समुदायों के अधिकारों पर निश्चित रूप से विचार किया जाना चाहिए। प्रभावित होने वाले लोगों के संघर्ष की बदौलत इसके उर्ध्वप्रवाही (अपस्ट्रीम) दुष्परिणामों के बारे में तो पता चल चुका है, मगर अभी अनुप्रवाही (डाउनस्ट्रीम) दुष्परिणामों के बारे में जानकारी का अभाव है।

पानी सीमेंट या कंक्रीट की तरह की चीज नहीं होता, यह तोे जीवन है। आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय आयामों की पूरी समीक्षा और उचित वितरण का हमारी योजना-प्रणाली में निश्चय ही स्थान होना चाहिए। संविधान के तिहत्तरवें संशोधन एवं जनजातीय स्वशासन अधिनियम बताते हैं कि जनता की सहमति और राय को दरकिनार नहीं किया जा सकता। नदियों का मामला तो करोड़ों लोगों से जुड़ा है। इन्हें जोड़ने की महायोजना में अंतरराष्ट्रीय साहूकार एजेंसियों की जरूरत पड़ेगी। इससे पहले कि काम शुरू हो जाए, राष्ट्रपति और उनके मंत्रियों के मन में क्या है, इसे जानने का आमजन को हक है।

यदि पानी के साथ सही बर्ताव नहीं हुआ और इसका संकट गहराया, तो यह एक भारी अपराध होगा क्योंकि छत्तीसगढ़ शिवनाथ नदी का निजीकरण हो चुका है और वहां के ठेकेदारों ने जनता को पानी पीने के अधिकार से भी वंचित कर दिया है। देश की जनता को यह जानने का अधिकार है कि इस केंद्रीय योजना का इरादा कहीं निजीकरण के निमित्त पानी का राष्ट्रीयकरण करना तो नहीं है, ठीक उसी भांति जैसे तेल, गैस या खनिज संसाधनों को विदेशी, बहुराष्ट्रीय और घरेलू कंपनियों को कौड़ी के भाव सौंपा जा रहा है।

कुदरत ने नदियों को नहीं जोड़ा है मगर पानी को जरूर इसने हाइड्रोलाॅजिकल साइकिल (जल-चक्र) के जरिये जोड़ रखा है। सम्पूर्णता की नीति एक संतुलित जल-चक्र का तकाजा है ताकि वन क्षेत्र का विस्तार हो, मिट्टी का कटाव रुके, भूजल-स्तर में वृद्धि हो, गाद भरने की प्रक्रिया थमे और मौजूदा तालाबों, झीलों और जलाशयों का भली-भांति रखरखाव हो। कृषि नीति और जन वितरण प्रणाली इस तरह की हो कि उसका क्षेत्र विशेष पर आधारित आहार वैविध्य से तालमेल बैठ सके। एक ऐसे समय में, जब सरकारी गोदाम अनाज से भरे हैं, मगर देश की जनता, खासकर, स्त्री और बच्चे, भूखे सोने को मजबूर हैं तथा कुपोषण के शिकार हैं, साकांक्ष न्यायपालिका को चाहिए कि वह उन भ्रष्टाचारियों को सजा दे जो पर्यावरण, जीने के अधिकार और पारिश्रमिक से जुड़े कानूनों का क्रियान्वयन नहीं होने देना चाहते हैं।

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