नदियां बचाने की नाकाम कोशिशें

14 Mar 2020
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नदियां बचाने की नाकाम कोशिशें
नदियां बचाने की नाकाम कोशिशें

अनिल प्रकाश जोशी

नदियां हमेशा किसी एक सरकार के बूते की बात नहीं होती। उनके संरक्षण व सफाई का सवाल हो तो नदियों के आस-पास लोगों के सामूहिक दायित्व की भागीदारी जब तक नहीं होगी तब कोई भी संतोषजनक परिणाम नहीं आ सकता।

चौदह मार्च को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नदियों के प्रति हमारी संवेदनशीलता बनाए रखने के दिवस के रूप में मनाया जाता है। शुरुआती दौर में यह एक अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क के रूप में काम करता रहा। इसने बांधों के कुप्रभाव, मनुष्यों की गतिविधियों ने हमारे जल स्रोतों को किस तरह से खऱाब किया है, उससे संदर्भित चर्चाओं को राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठाने की शुरुआत की और 1997 से लगातार यह दिवस मनाया जाता रहा है।

इसमें खासतौर से जल मुद्दों से जुड़े लोग व संगठन अंतरराष्ट्रीय स्तर की गोष्ठियां और बातचीत करते हैं। अपने देश में भी इसको लेकर बड़ी गम्भीरता दिखाई जाती रही है। सरकार ने भी नदियों को लेकर टुकड़ों-टुकड़ों में जरूर सोचा है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण गंगा है। ‘नमामि गंगा परियोजना’ की शुरुआत प्रधानमंत्री ने 2014 में की और 20,000 करोड़ रुपए का प्रावधान भी रखा ताकि गंगा को साफ रखा जा सके। यह एक ऐसी नदी है जो दुनिया में देश का प्रतिनिधित्व करती है और करोड़ों लोगों की लाइफलाइन भी है।

वर्तमान सरकार ने इस पारी में जलशक्ति मंत्रालय का गठन किया। इसमें जितने भी जल से जुड़े मंत्रालय थे, उन सबको इससे जोड़ दिया। अब चाहे जल संरक्षण मंत्रालय रहा हो या पेयजल या गंगा रिजुवनेशन, उन सब को मिलाकर जलशक्ति मंत्रलाय का गठन हुआ। नेशनल रिवर कंजर्वेशन डवलपमेंट (एनआरसीडी) जिसका मुख्य मुद्दा नदियों को प्रदूषण से मुक्त करना था, को भी इसका हिस्सा बनाया गया इसके अंतर्गत नेशनल रिवर कंजर्वेशन प्लान को भी जोड़ने की कवायद पहले से शुरू की गई थी जो कि पर्यावरण मंत्रालय के अंतर्गत ही थी। इसे भी जलशक्ति मंत्रालय में जोड़ दिया गया। यह शुरुआत 15 राज्यों में 33 नदियों और 36 बेसिन में की गई थी। इसमें मुख्य रूप से सतलुज, सिंधु, झेलम, हिण्डोला, मुसी, तावी, कृष्णा नदियों का जिक्र रहा है।

यह देखने की भी कोशिश की गई कि नदियों के हालात किस रूप में हैं और किस तरह उनको बेहतर किया जा सकता है। नदियों को लेकर अगर सरकार के प्रयत्नों पर नजर डालें तो गत दशकों में मुख्य रूप से दो नदियों को सरकार ने बड़ी गम्भीरता से तवज्जो दी। उदाहरण के लिए देखें तो गंगा वह नदी है जिस पर देश के ‘फ्लैगशिप प्रोग्राम’ की कल्पना की गई। इसे ‘नमामि गंगे’ अभियान के रूप में देश-दुनिया में तवज्जों मिली। इसके लिए 20,000 करोड़ रुपए का प्रावधान था, ताकि 40 करोड़ लोगों को सीधे लाभ पहुंचे।

इतना ही नहीं, गंगा को एक तरह से देश की सभी नदियों का प्रतीक भी माना गया है। यमुना नदी पर भी इस तरह की शुरुआत पहले ही हो चुकी थी। जापान व भारत ने एक साथ मिलकर 2003 में शुरुआत की थी, ताकि इस नदी की बेहतरी के लिए बड़ा काम हो। अगर इन दोनों ही नदियों के हालात को गंभीरता से देखने की कोशिश करें तो इसे नकारा नहीं जा सकता कि सरकारी प्रयासों को कुछ तो जगह मिली। हालांकि जिस तरह से परिणाम आने चाहिए थे, उस तरह से नहीं आए। इसका एक बड़ा कारण यह है कि इन योजनाओं में लोगों की भागीदारी के रास्ते मजबूत नहीं थे। नदियां हमेशा किसी एक सरकार के बूते की बात नहीं होती। उनके संरक्षण व सफाई का सवाल हो तो नदियों के आस-पास बसे लोगों के सामूहिक दायित्व की भागीदारी जब तक नहीं होगी, तब तक कोई भी संतोषजनक परिणाम नहीं आ सकता। यमुना में भी 1993 से लेकर 2003 तक बड़ी गंभीरता से काम किया गया। इसके बावजूद तब से लेकर आज तक यमुना के हालात कुछ ज्यादा बदले हुए नहीं लगते।

देश की राजधानी में यमुना बहुत ही दूषित नदी के रूप में है और आगरा, मथुरा, गोकुल में तो यह एक नाले के रूप में पहुंच चुकी है। दिल्ली का 57 प्रतिशत कचरा इसी नदी में डाल दिया जाता है। यमुना में प्रदूषण के बड़े कारणों में 80 प्रतिशत यहाँ कचरा है। अकेले गंगा में ही 3232 करोड़ रुपए खर्च करने के बाद 2500.43 एमएलडी प्रति दिन की ही सफाई हुई है। खासतौर से 2018 में गंगा नदी में सफाई के लिए जब एक सर्वेक्षण किया गया और 70 स्थान चिन्हित किए गए तो सिर्फ पांच ही ऐसे स्थान मिले, जहां का पानी पीने लायक था।

एक मानक के अनुसार 2500 कॉलीफार्म प्रति सौ सीसी पानी में होने चाहिए, जबकि गंगा में आज भी इनकी संख्या 2,50,000 पाई गई हैं। ये आंकड़े सरकारी स्तर को एक धता दिखाती है कि तमाम कोशिशों के बावजूद हम अनुकूल परिणामों तक नहीं पहुंचे हैं। अब एनआरसीडी के दावों को ही लीजिए, जिसका बड़ा दायित्व नदियों में बेहतर साफ-सफाई व संरक्षण करना है। इसने 31 नदियों में 351 स्थानों को प्रदूषित माना है।

हमें ध्यान रखना चाहिए कि नदी की बेहतरी के लिए दो बड़ी पहल जरूरी है। नदियों में निरंतर बहाव बनाए रखा, जिनसे इनकी साफ-सफाई की क्षमता बनी रहती है। दूसरा,  इनके मार्ग में पड़ने वाले उद्योगों व मनुष्य जनित कचरे को रोकना। इस पर गंभीरता दिखाते हुए भारत सरकार के नीति आयोग ने एक एक्सपर्ट समिति का गठन किया। समिति यह देखने की कोशिश करती है कि किस तरह से नदियों को प्रदूषण से मुक्त किया जा सके व किन नदियों में पानी की कमी है, किन नदियों में सरप्लस पानी है ताकि दोनों को जोड़ा जा सके। ऐसे 30 लिंक पर चर्चा जारी है।

दुनिया की ऐसी कोई भी नदी नहीं है जो बेहतर स्थिति में कही जा सकती हो। चीन की येलो रिवर, ऑस्ट्रेलिया की किंग रिवर, अमरीका की मिसिसिपी, एक-एक करके दुनियाभर की तमाम नदियां प्रदूषण की मार झेल रही हैं। हमारी नीतियों में नदियों के प्रति बड़ी साफ मंशा नहीं दिखाई देती है। विश्लेषण करने पर दो प्रमुख कारण ही सामने आते हैं-जब से उद्योगों का कचरा नदियों में जाने लगा और नदियों का उपयोग विद्युत उत्पादन के लिए होना शुरू हुआ, नदियों की गति व क्षमताओं का पतन होने लगा।

देशभर में जितने भी सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) स्थापित किए गए हैं, उनके हालात भी बेहतर नहीं कहे जा सकते। आने वाले समय में स्थिति बेहतर होने के लक्षण फिलहाल दिखाई नहीं देते हैं। इन सबके अलावा नदियों के मरते जलागम व हिमखण्डों की गिरती क्षमताएं नदियों में पानी के स्तर को विचलित कर देंगी। सबसे बड़ी चुनौती आज यही है कि नदियों के प्रति जिम्मेदारी को महज औपचारिकता नहीं समझा जाए। नदियां देश-दुनिया में धमनियों की तरह होती हैं। अगर धमनियों में कोई रुकावट आती है तो नुकसान शरीर का ही होता है। देश का अर्थतंत्र व जीवन बड़े संकट में जा सकता है। हमें यह मानकर चलना चाहिए कि नदियां हमारे लिए भूत, वर्तमान व भविष्य हैं। इनके बिना वजूद संभव नहीं है। नदी को बचाना खुद  को बचाना है।

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