नदियां जब जुड़ेंगी

बहरहाल समृद्धि के हसीन सपने दिखाने वाली इस परियोजना को पूरा होने की राह में जहां धन की उपलब्धता, देश की पेचीदा भौगोलिक स्थिति और पानी को लेकर राजनीतिक तौर पर उत्तेजित कर देने की प्रवृत्ति जैसी गंभीर चुनौतियां हैं, वहीं सरकार को भरोसा है कि वह सारी चुनौतियों से पार पा लेगी। अगर सचमुच ऐसा हुआ तो कोई आश्चर्य नहीं, सपनों की यह परियोजना हकीकत में बदला जाए। तब शायद देश के 30 राज्यों में 91 जिलों को आज की तरह हर वर्ष सूखे का सामना नहीं करना पड़ेगा और 83 जिलों की लगभग चार करोड़ हेक्टेयर भूमि को प्रलयंकारी बाढ़ में डूबने से बचाया जा सकेगा।

बीते तकरीबन डेढ़ दशक से बाढ़, सूखा और पानी-बिजली की लगातार बढ़ती किल्लत हमारे एक अरब की आबादी वाले देश की मानो नियति बन चुकी है। पानी और बिजली के अभाव ने गांव-शहरों के समूचे जनजीवन को अंधकारमय बना दिया है। कल्पना के सारे आयामों को पार कर चुकी इस दारुणतम नियति से निबटने की कोशिश के रूप में ही सामने आई है - देश की प्रमुख नदियों को आपस में जोड़ने जैसी कल्पनातीत लगने वाली महत्वाकांक्षी परियोजना!

जिस तरह बाढ़ और सूखे से उत्पन्न होने वाला संकट हमारे देश में नया नहीं है, उसी तरह इस संकट से पार पाने के लिए बनी नदियों को जोड़ने की योजना भी कतई नई नहीं है। पहली बार इस तरह की योजना कोई चार दशक पहले जवाहरलाल नेहरू की सरकार के सिंचाई मंत्री केएल राव ने पेश की थी, जिसे ‘गंगा-कावेरी लिंक योजना’ नाम दिया गया था।

इसके तहत गंगा को कावेरी से मिलाने के लिए 2640 किलोमीटर लंबी नहर बनाए जाने का प्रस्ताव था। इसके बाद एक योजना 1974 में मुंबई के मशहूर इंजीनियर कैप्टन दिनशा दस्तूर ने पेश की। उन्होंने देश की प्रमुख नदियों को जोड़ने के लिए नहरों की माला बनाने का सुझाव रखा। दोनों ही परियोजनाओं को विशेषज्ञों ने महंगी और अव्यावहारिक करार देकर खारिज कर दिया।

1980 मंे नेशनल पर्सपेक्टिव प्लान ने खारिज की जा चुकी इन योजनाओं के प्रस्तावों पर फिर से गौर किया। दो साल बाद यानी 1982 में नेशनल वाटर डेवलपमेंट एजेंसी (एन डब्ल्यू डी ए) के नाम से एक संगठन बनाकर उसे इस परियोजना की व्यावहारिकता के अध्ययन और क्रियान्वयन की जिम्मेदारी सौंपी गई, लेकिन आम सहमति के अभाव में यह एजेंसी भी अपना काम पूरा नहीं कर पाई और मामला एक तरह से फिर ठंडे बस्ते में चला गया।

मामले को फिर से जिंदा करने का काम किया राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने। 14 अगस्त, 2002 को राष्ट्र के नाम अपने संदेश में बाढ़ और सूखे से उत्पन्न समस्याओं को अपनी चिंताओं में शुमार करते हुए उन्होंने एक बार फिर नदियों को आपस में जोड़ने पर जोर दिया।

उसी दौरान कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच कावेरी विवाद के चलते वकील रंजीत कुमार की जनहित याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यों से हलफनामा मांगते हुए केन्द्र सरकार को यह परियोजना 10 साल में पूरी करने के निर्देश दिए। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश ने सरकारी और सियासी हलकों में हलचल मचा दी।

प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने जहां इस परियोजना से सहमति जताते हुए इस पर राष्ट्रीय सहमति बनाने का आह्वान किया, वहीं कांग्रेस अध्यक्ष, सोनिया गांधी समेत विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने भी परियोजना को समर्थन देने में कोई देरी नहीं की।

परियोजना को मिले समर्थन से उत्साहित हो सरकार ने न्यायालय के निर्देश के मद्देनजर परियोजना की विस्तृत रिपोर्ट तैयार करने के लिए दिसंबर, 2002 में तीन सदस्यों की टास्क फोर्स भी बना दी, जो पूर्व केन्द्रीय ऊर्जा मंत्री सुरेश प्रभु की अगुवाई में अभी काम कर रही है। लेकिन 5,60,000 करोड़ रुपये की अनुमानित लागत से देश की 26 नदियों को 30 अलग-अलग संपर्क नहरों के जरिए जोड़ने वाली इस स्वप्निल परियोजना के साकार होने को लेकर पहले की तरह सवाल अब भी उठ रहे हैं, बल्कि और ज्यादा शिद्दत से उठ रहे हैं।

मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित तथा राष्ट्रीय जल बिरादरी के अध्यक्ष राजेन्द्र सिंह कहते हैं, ‘हम जानते हैं कि सभी नदियों के पानी का चरित्र अलग-अलग है। उनके जीन पूल विविध हैं। अगर नदियों को कृत्रिम तरीके से जोड़ा जाएगा, तो उनमें खास प्रजाति के जीव-जंतु मरेंगे और पारिस्थितिकीय संकट पैदा होगा, जिसके चलते असाध्य बीमारियां पैदा होंगी। देश में ऐसे इलाके हैं, जहां दो नदियों के पानी से सिंचाई के बाद लोगों को दमे की बीमारी भी हुई है। सबसे विकराल समस्या तो विस्थापन की है। एक बांध बनने से सैकड़ों गांव विस्थापित होते हैं, तो देशभर की नदियों को जोड़ने से कितने गांव उजड़ेंगे, इसका अभी अनुमान ही लगाया जा सकता है। नदियों के रास्तों में पड़ने वाले वनों और उनमें रहने वाले जीव-जंतुओं का भी बड़े पैमाने पर विनाश होगा। इस सबकी भरपाई कैसे होगी, इसका सरकार के पास कोई जवाब नहीं है।’

परियोजना का समर्थक सरकारी पक्ष इन सारे सवालों को काल्पनिक, अंतिरंजित और विकास विरोधी करार देता है। टास्क फोर्स के अध्यक्ष सुरेश प्रभु कहते हैं - ‘परियोजना को शुरू करने से पहले सिर्फ इससे होने वाले फायदों का ही नहीं, बल्कि इस पर होने वाले भारी-भरकम खर्च, इससे होने वाले पर्यावरणीय नुकसान तथा विस्थापन का भी पूरा-पूरा ध्यान रखा गया है। सरकार इसके लिए आवश्यक धन जुटाएगी और पर्यावरण के नुकसान को भी कम करने के उपाय करेगी।’ टास्क फोर्स को परियोजना से संबंधित अपनी पहली अंतरिम रिपोर्ट 30 अप्रैल, 2003 को सर्वोच्च न्यायालय में पेश करनी थी, जो उसने जून, 2003 में पेश की है।

प्रभु की टीम फिलहाल रिपोर्ट के दूसरे हिस्से को तैयार करने में जुटी है, जिसे जुलाई में न्यायालय के समक्ष पेश किया जाना है। पहली अंतरिम रिपोर्ट के मुताबिक इस परियोजना के विभिन्न पहलुओं के अध्ययन के लिए देश के प्रमुख संबंधित संस्थानों की सेवाएं ली जा रही हैं।

इस परियोजना के जरिए बाढ़ का संकट खत्म होने, बिजली का उत्पादन और सिंचाई सुविधा में बढ़ोत्तरी होने और विभिन्न राज्यों में व्याप्त बिजली संकट से निजात पाने का दावा भी किया जा रहा है। लेकिन राजेंद्र सिंह सवाल करते हैं - ‘हमारी ज्यादातर नदियों में पानी तो है ही नहीं। बिहार की कोसी और गंडक जैसी नदियों में बाढ़ आती है तो उसके पीछे मुख्य वजह होते हैं उन पर बने बांध। अब इस परियोजना में नदियों को जितनी जगह से जोड़ा जाएगा, उतने नए बाढ़ क्षेत्र भी बन जाएंगे। इन बाढ़ क्षेत्रों के पानी को सूखा प्रभावित क्षेत्रों तक पहुंचाने के लिए हमारे पास बिजली कहां से आएगी? जो बिजली नदियों को जोड़ने से उत्पन्न होगी वह तो पानी को चढ़ाने में ही खर्च हो जाएगी।’

परियोजना के पैरोकार इस तरह की आशंकाओं को निराधार और अध-कचरे अध्ययन की उपज बताते हैं। नेशनल वाटर डेवलपमेंट एजेंसी की महानिदेशक तथा जल संसाधन मंत्रालय में अवर सचिव राधा सिंह कहती हैं - ‘इस परियोजना के जरिए 34 हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन होगा। इस बिजली से सिंचाई और पानी की आपूर्ति समेत सभी जरूरतें पूरी की जा सकेंगी।’

अगर सरदार सरोवर परियोजना पूरी हो जाए तो कई राज्यों में पानी और बिजली का संकट हल हो सकता है, लेकिन उनका मानना है कि इसका विरोध करने वालों को इन बातों से कोई मतलब नहीं।

नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर और हिमालयी क्षेत्र को पारिस्थितिकीय खतरों से बचाने की लड़ाई में लगे वयोवृद्ध गांधीवादी सुंदरलाल बहुगुणा सहित कई लोगों की नजरों में यह परियोजना हिमालयी क्षेत्र में भूकंपीय खतरे को तो बढ़ाएगी ही, और भी नए क्षेत्रों को भूकंपीय खतरे के दायरे में खींच लेगी। राधा सिंह कहती हैं - ‘हम भी इस तरह के नतीजों से अवगत हैं, लेकिन दूसरे लोग इसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हुए लोगों को नाहक ही गुमराह और भयभीत कर रहे हैं।’

फिलहाल इस परियोजना के तहत व्यवहार के धरातल पर भी काम शुरू हो चुका है। इसके पहले चरण में देश के तटीय इलाकों यानी दक्षिण भारत के प्रस्तावित 16 सम्पर्कों के निर्माण की दिशा में काम शुरू हो चुका है। हिमालयी इलाकों यानी उत्तर भारत के 14 सम्पर्कों पर अभी काम शुरू करने के रास्ते में कई गंभीर दिक्कतें और चुनौतियां हैं।

यह तथ्य है कि तीन पड़ोसी देशों - नेपाल, भूटान और बांग्लादेश की मदद के बगैर देश को नंदनवन बनाने का सपना दिखाने वाली यह परियोजना आकार ले ही नहीं सकती। इसे एक बड़ी समस्या मानने से प्रभु भी इन्कार नहीं करते। वे कहते हैं - ‘समस्या तो है, लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि तीनों देशों को राजी करने में सरकार कामयाब हो जाएगी और परियोजना पर काम शुरू होने से रास्ता खुलेगा।

इस परियोजना पर राष्ट्रीय सहमति बन जाने के सरकारी दावे का आधार महज सरकार को इस पर कांग्रेस नेतृत्व से मिला समर्थन है। इस समर्थन का मतलब देश के आधे से ज्यादा कांग्रेस शासित राज्यों का समर्थन है। जबकि इस बारे में जमीनी हकीकत कुछ और है।

गांधीवादी संगठनों, वामपंथी, सपा और राजद जैसे राजनीतिक दलों, जनांदोलनों से जुड़े कई संगठनों और पर्यावरण के क्षेत्र में कार्य कर रहे विशेषज्ञों ने इस परियोजना पर एतराज उठाते हुए इसके खतरे गिनाए हैं, जो मुख्यमंत्री और विशेषज्ञ इस परियोजना के सबसे मुखर पैरोकार बनकर सामने आए थे, उन्हें भी इसमें अब कुछ-कुछ खोट नजर आने लगा है। वे चिंतित हैं।

पानी अभी संविधान की समवर्ती सूची में है और संविधान में संशोधन कर इसे राष्ट्रीय संसाधन बनाने के सवाल के चलते इस परियोजना पर राज्यों की मंजूरी लेना केन्द्र के लिए आसान नहीं है। और फिर पानी के सवाल पर राजनीतिक आपा खो देने वाले परस्पर विरोधी राज्यों के समर्थन ऐसे किसी प्रस्ताव को तो मिल ही नहीं सकता। अलबत्ता पश्चिम बंगाल के अलावा किसी और राज्य से अभी असहमति का औपचारिक स्वर नहीं उठा है।

बहरहाल समृद्धि के हसीन सपने दिखाने वाली इस परियोजना को पूरा होने की राह में जहां धन की उपलब्धता, देश की पेचीदा भौगोलिक स्थिति और पानी को लेकर राजनीतिक तौर पर उत्तेजित कर देने की प्रवृत्ति जैसी गंभीर चुनौतियां हैं, वहीं सरकार को भरोसा है कि वह सारी चुनौतियों से पार पा लेगी। अगर सचमुच ऐसा हुआ तो कोई आश्चर्य नहीं, सपनों की यह परियोजना हकीकत में बदला जाए। तब शायद देश के 30 राज्यों में 91 जिलों को आज की तरह हर वर्ष सूखे का सामना नहीं करना पड़ेगा और 83 जिलों की लगभग चार करोड़ हेक्टेयर भूमि को प्रलयंकारी बाढ़ में डूबने से बचाया जा सकेगा।

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