“नदियां जोड़ने वालों सत्याग्रह करते पानी की ‘कूक’ सुनो”

13 May 2014
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जब समाज और सेवा दो अलग-अलग शब्दों की तरह टूटते हैं तो बीच-बीच खाली जगह से सोशल वर्करों की घुसपैठ होती है। इन्हीं सोशल वर्करों में से तरक्की करके कुछ लोग एनजीओज बनते हैं, फिर इन एनजी.ओज को समाज की बजाए कंप्यूटर की वेबसाइट में ढूंढना पड़ता है।

बूंदों को देखो तो लगता है कि जैसे वे पानी के बीज हों। वर्षा धरती में पानी ही तो बोती है। पहले झले के पानी की एक-एक बूंद को पीकर धरती की गोद हरियाने लगती है। जैसे हरेक बूंद से एक अंकुर फूट रहा हो, जैसे धरती फिर से जी उठी हो। बरसात आते ही वह फूलों, फलों, औषधियों और अन्न को उपजाने के लिए आतुर दिखाई देती है।

कोई धरती से पूछे कि उसे सबसे अधिक किसकी याद आती है तो वह निश्चित ही कहेगी कि पानी की। वह पानी से ऊपर उठकर ही तो धरती बनी है। वह पानी को कभी नहीं भूलती। वह तो पानी की यादों में डूबी हुई है। ग्रीष्म ऋतु में झुलसती हुई धरती को देखो तो लगता है कि वह जल के विरह में तप रही है। उससे धीरे-धीरे दूर होता जल और उसकी गरम सांसें एक दिन बदली बनकर उसी पर छाने लगती हैं और झुलसी हुई धरती के श्रृंगार के लिए मेघ पानी लेकर दौड़े चले आते हैं।

वर्षा के शुभागमन का स्वागत करने के लिए कविवर भवानी प्रसाद मिश्र हमें एक कविता लिखकर दे गए हैं। ‘पहिला पानी’ आते ही उस कविता की याद आती है ‘पहले झले का पानी जैसे अकास-बानी। दुनिया में उसने भर दी लो हर तरफ जवानी। हर एक अधमरे को बदली नचा गई रे, बरसात आ गई रे’। वर्षा आते ही चिड़िया की चहक खुल जाती है।

वे घर के आंगन में दाना चुगने आती हैं। उनके पर उड़ान की नई ताजगी से भर उठते हैं। सूखे झाड़ों पर नई पत्तियां झिलमिलाने लगती हैं। नालों, नदियों और झरनों के सूखे गान फिर वापस लौट आते हैं। किसानों को खेत बुलाते हैं। घर की छपरी में आल्हा का गान और ढोलक की थाप गूंजती है। जीने के गीत की सरगम पानी के बिना पूरी नहीं होती।

संगीत में जैसे सात सुर होते हैं, एक स्वर सप्तक होता है, वैसे ही पानी के कई स्वर सप्तक हैं जिनमें पानी के स्वर डूबे रहते हैं। जैसे जलतरंग के सात कटोरे हों, जिनमें से संगीतकार एक-एक स्वर बड़े ही सधे हाथों से उठाता है। ऐसे ही पानी के सप्त सरोवर, सप्तनद और सप्त समुद्र हैं, जिनमें से एक आचमन जल उठाने पर पूरे पानी का विन्यास झंकृत होता है। सूरज की सतरंगी किरणें भी तो हौले-हौले धरती से जल को ऊपर उठाती हैं, उतना ही वापस कर देती हैं। वैदिक ऋषिगण ऋचाएं गुनगुनाते हुए कहते हैं कि जब मेघ वर्षा करते हैं तो जल निनाद करते हुए बहता है।

पिछले दो सौ वर्षों की उथल-पुथल ने समाज को चलाने वाले नियमों को अनुशासन को काफी हद तक तोड़ा था। समाज को जो चीजें टिकाती थीं, संचालित करती थीं, उनकी प्रतिष्ठा को इस दौर ने नष्ट किया। पुराने व्यवस्थाएं टूंटी, लेकिन इनके बदले कोई कारगर व्यवस्थाएं उनकी जगह नहीं ले पाईं

जल जीवन का आधार है और सबसे प्राचीन मार्ग भी वही है। जो हमें न जाने कब से किनारे लगाता आ रहा है। हम ही अपने लिए सूखी गलियां खोजते और सड़कें बनाते पानी से दूर आ बसे हैं। पर पानी कहां हमारा पीछा छोड़ने वाला है। हम भले ही अपना रास्ता भूल जाएं, पानी तो अपना मार्ग जानता ही है। उसे अच्छी तरह याद है कि उसे कहां भरना है।

भले ही हमने उसके किसी तालाब को पूरकर कॉलोनी बना ली हो, पर वह तो वहीं आकर भरेगा, हमें डुबोएगा, क्योंकि हमने पानी की जगह पर अतिक्रमण कर लिया है। पानी हमारे खिलाफ किसी अदालत में नहीं जाता, वह उसके रास्ते में आ गई अदालत को जरूरत डुबो देता है। वह हर बरसात में हमारे द्वार पर दस्तक देता है कि मेरे तालाब, मेरी कब्जायी नदियों की जगह खाली करो। मुझे अपने आस-पास बसेरा करने की साफ-सुथरी जगह दो।

अब पानी उन सब व्यक्तियों, व्यापारियों और व्यवस्थाओं के खिलाफ आंदोलन पर है कि मेरे रास्ते से हटो। मेरा रास्ता मत हथियाओ, मुझे अविरल बहने दो। कुइंयों में, पोखर में, ताल में भरने दो। कुओं में आहिस्ता-आहिस्ता रिसने दो। पर्वत से मुक्त झरने दो। मुझे बांधते क्यों हो। क्यों मेरे रास्ते मोड़ते हो। मुझमें अपने पाप धोने वाले तुम कौन होते हो। मरे रास्ते में गंदी नालियों के मुंह क्यों खोलते हो। अपनी पूजा के बासे फूल मुझमें क्यों बहाते हो। मुझमें डूबो, तैरो, पार हो जाओ, पर मुझे मत सताओ।

आए दिन सड़कों और चौराहों पर मतलबी किस्म के लोग जब धरने देते हैं तो उनकी तरफ कोई देखता तक नहीं। सब जान गए हैं कि इस तरह के लोग सत्याग्रही नहीं बल्कि ‘गप्पयाग्रही’ होते हैं। वे तो सिर्फ अपने लिए लड़ते हैं। पर पानी से बड़ा सत्याग्रही कौन होगा जो सबके हित के लिए अपनी राह बहता है। अगर वह आज गुजरात, मुंबई में आंदोलित है, हमारे रास्ते रोक रहा है, हमारी बस्तियां डुबा रहा है तो हमें कुछ देर ठिठक पानी की इस सत्याग्रही ‘कूक’ को सुनना चाहिए।

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