नदियों के अस्तित्व के लिए एक खतरनाक फैसला

11 Aug 2009
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अक्षरधाम मंदिर निर्माण संबंधी पूर्व आदेश को मानने की बाध्यता, खेलगांव निर्माण संबंधी देरी से की गई आपत्ति तथा डीडीए द्वारा अक्षरधाम बांध निर्माण के बाद खेलगांव कॉम्पलेक्स स्थल की अवस्थिति को नदी भूमि और बाढ़ क्षेत्र न करार देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने विगत 30 जुलाई को खेलगांव कॉम्पलेक्स निर्माण कार्य जारी रखने की इजाजत दे दी। देश की सबसे बड़ी अदालत का फैसला मानने की बाध्यता के हम आदी हैं, लेकिन यदि भविष्य में इस फैसले को नजीर माना गया, तो यह फैसला भारत की नदियों के लिए खतरनाक साबित होगा।

इसने नदी के अपनी भूमि तय करने के प्राकृतिक हक पर ही सवालिया निशान लगा दिया है। भारत की जल बिरादरी यह महसूस करती है कि इस फैसले में खेलगांव निर्माण जारी रखने से ज्यादा खतरनाक वे तथ्य हैं, जिन्हें इसका आधार बनाया गया है। क्या किसी गलत काम को इस बिना पर ठीक ठहराया जा सकता है कि पूर्व में किए गए गलत काम को रोका नहीं जा सका अथवा देरी से की गई आपत्ति से क्या किसी परियोजना को इस आधार पर मंजूरी देने की इजाजत दी जा सकती है कि इससे उसे आर्थिक नुकसान होगा? देश, समाज और पर्यावरण को लेकर हमारी प्राथमिकताएं क्या होनी चाहिए? अस्थायी नुकसान की भरपाई अथवा स्थायी पर्यावरणीय नुकसान को रोकना? यह बहस का प्रश्न नहीं है, फिर भी न्यायालय ने पर्यावरणीय नुकसान को नजरअंदाज किया है।

इस फैसले का सबसे खतरनाक पहलू वह बिंदु है, जो खेलगांव कॉम्पलेक्स स्थल को नदी भूमि अथवा बाढ़ क्षेत्र मानने से इंकार करता है। इसी आधार पर न्यायालय डीडीए द्वारा इस क्षेत्र का भू-उपयोग खेती और जल संरचना उपयोग से बदलकर रिहायशी और व्यावसायिक-होटल उपयोग किए जाने को नजरअंदाज करता है। हालांकि न्यायालय ने इस पर अलग से टिप्पणी नहीं की, लेकिन खेलगांव कॉम्पलेक्स निर्माण को हरी झंडी देकर न्यायालय ने खेती व पानी भू-उपयोग को व्यावसायिक भू-उपयोग में बदलने को अप्रत्यक्ष रूप से उचित ही ठहरा दिया है। पत्रकार साथियों ने मुझसे इस पर टिप्पणी करने को कहा। प्रकृति के साथ अपने रिश्ते व व्यवहार में संतुलन को प्रकृति का नियम मानने वाला प्रकृति प्रेमी समाज इस पर क्या टिप्पणी करे? आज प्रकृति की चिंता को विकास विरुद्ध और चिंता करने वालों को अपराध्ी माना जाता है। सभी के शुभ और सुंदर साझे भविष्य का सपना बुनने वालों और उसे प्राथमिकता मानने को पिछड़ी और दकियानूसी सोच करार देकर पहले कार्यपालिका ही विस्थापन, विनाश और लालच बढ़ाने वाले तथाकथित विकास कार्यो को बढ़ावा व समर्थन देती थी। चिंताजनक यह है कि अब न्यायपालिका भी इसी रास्ते पर चल पड़ी है। इस निर्णय का उदाहरण देकर भविष्य में नदियों के शरीर पर जो उपद्रव होंगे, उनके सामने जलवायु परिवर्तन, वैश्विक तापमान में वृद्धि, नदी प्रदूषण, अतिक्रमण व शोषण आदि को नियंत्रित करने के सारे दावे, सारी परियोजनाएं धरी की धरी रह जाएंगी। राष्ट्रीय नदी गंगा प्राधिकरण चाहकर भी गंगा को मरने से नहीं रोक पाएगा। यह विरोधाभास ही है कि एक ओर भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी कैग दिल्ली के डंप एरिया के आसपास की जहरीली होती धरती व पानी पर चिंता जता रहा है, दूसरी और हम नदी पाटकर महल खड़े करने पर पीठ ठोक रहे हैं। हम भूल गए हैं कि प्रत्येक धरा अपनी परिस्थिति व प्रवाह के अनुसार प्राकृतिक तौर पर अपनी नदी भूमि, बाढ़ क्षेत्र और बफर जोन तय करती है। यह नदी का हक है।
 

 

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