नदियों के प्रवाह की रक्षा जरूरी

24 Sep 2011
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नदियों से पानी मोड़ने की उस हद तक ही अनुमति दी जाए जो कि नदी के पर्यावरणीय प्रवाह की सीमा से अधिक न हो। अब ऐसी नदियां कम ही बची हैं जिनमें प्राकृतिक प्रवाह बिना किसी बड़ी बाधा के कायम है। ऐसी नदियों के माध्यम से ही पर्यावरण व जीवन-प्रक्रियाओं को सही ढंग से समझा जा सकता है। ऐसे में इन नैसर्गिक स्वरूप में बची नदियों के प्राकृतिक प्रवाह की रक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।

ऐसा क्यों है कि कई बहुप्रचारित परियोजनाएं बनने के बाद भी अभी हम नदियों व उनके पर्यावरण की रक्षा नहीं कर पाए हैं। हमारे देश की नदियां संकट में हैं। ऐसा क्यों है कि कई बहुप्रचारित परियोजनाएं बनने के बाद भी अभी हम नदियों व उनके पर्यावरण की रक्षा नहीं कर पाए हैं। इसकी एक मुख्य वजह यह है कि नदियों के प्राकृतिक प्रवाह के संरक्षण को अभी तक सरकार के नियोजन में समुचित महत्व नहीं मिला है। जो थोड़ा-बहुत कार्य हुआ है वह मुख्य रूप से सीवेज के ट्रीटमेंट से संबंधित है। हालांकि यह कार्य भी अपनी जगह जरूरी है और इसमें काफी सुधार की भी जरूरत है, पर जब तक नदियों के जरूरी प्राकृतिक प्रवाह को बनाए रखने पर समुचित ध्यान नहीं दिया जाएगा तब तक केवल सीवेज के उपचार से नदियों की रक्षा नहीं हो सकेगी।

इस स्थिति को यमुना नदी के उदाहरण से समझा जा सकता है। पर्वतीय जलग्रहण क्षेत्र से मैदानी इलाके में प्रवेश करने के बाद इस नदी का अधिकांश जल सिंचाई या अन्य जरूरतों को पूरा करने के लिए नहरों के माध्यम से अलग मोड़ दिया जाता है। इस तरह नदी के प्राकृतिक मार्ग के लिए बहुत कम जलधारा बचती है, तिस पर उसमें भी गंदगी छोड़ी जाती है। बेहद कम जल-धारा रह जाने से नदी अपनी प्राकृतिक प्रक्रियाओं को पूरा नहीं कर पाती है तथा उसमें जो विभिन्न तरह का जीवन सृजन होता है वह नहीं पनप पाता। इस तरह असंख्य जलचरों, विशेषकर तरह-तरह की मछलियों का जीवन आधार नष्ट हो रहा है।

प्राय: बड़े बांधों पर कुल विमर्श महज इस संदर्भ में होता है कि जो भूमि जलमग्न होती है उससे कितने लोग विस्थापित होते हैं। निश्चय ही यह बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा है, पर साथ ही इस विषय पर भी समुचित ध्यान देना जरूरी है कि नदी के नीचे के बहाव पर, उसमें पनप रहे जीवन पर व आसपास के लोगों पर इसका क्या प्रतिकूल असर पड़ता है। नदी में पानी बहुत कम रह जाने का प्रतिकूल प्रभाव तो पड़ता ही है, कभी-कभी बांध से पानी अचानक बहुत बड़ी मात्रा में छोड़े जाने पर दुष्परिणाम व्यापक होता है। नदी के स्तर में इस तरह का कृत्रिम उतार-चढ़ाव न केवल आसपास के लोगों के लिए खतरा पैदा करता है, अपितु नदियों में पनपने वाले कई तरह के जीवन के लिए तो यह और भी नकारात्मक है।

नदियों पर बांध-बैराज बन जाने से उन मछलियों पर विशेष असर पड़ता है जो प्रजनन के लिए विशेष स्थानों पर जाती हैं। मार्ग अवरुद्ध हो जाने से उनका पूरा जीवन चक्र संकट में पड़ जाता है। नदी के साथ बहकर उपजाऊ मिट्टी खेतों में पहुंचती है, यह प्रक्रिया भी बांधों के चलते अवरुद्ध हो जाती है। साथ ही इस कारण भूमि का कटाव करने की नदी की क्षमता कई स्थानों पर बढ़ जाती है। इसके अलावा सूखे दिनों में आसपास के गांवों के कुओं में पानी बहुत कम होने से जल-संकट विकट हो सकता है।

इन अनुभवों को ध्यान में रखते हुए यह मांग जोर पकड़ रही है कि किसी भी नदी के पर्यावरण की रक्षा के लिए जितने प्रवाह की आवश्यकता है उसे तय किया जाए तथा हर हालत में उसको बना कर रखा जाए। नदियों से पानी मोड़ने की उस हद तक ही अनुमति दी जाए जो कि नदी के पर्यावरणीय प्रवाह की सीमा से अधिक न हो। अब ऐसी नदियां कम ही बची हैं जिनमें प्राकृतिक प्रवाह बिना किसी बड़ी बाधा के कायम है। ऐसी नदियों के माध्यम से ही पर्यावरण व जीवन-प्रक्रियाओं को सही ढंग से समझा जा सकता है। ऐसे में इन नैसर्गिक स्वरूप में बची नदियों के प्राकृतिक प्रवाह की रक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। साथ ही जिन नदियों का प्रवाह अवरुद्ध हो चुका है, उनमें अनिवार्य जल प्रवाह को बनाए रखने के लिए जरूरी कदम उठाना जरूरी है।
 

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