नदियों के रिश्ते की तैयारी

8 Jan 2015
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उत्तर भारत की जिन नदियों को दक्षिण भारत की नदियों से जोड़ने की बात की जा रही है, वह हिमालय में जमे ग्लेशियरों से पोषित हैं। चौंकाने वाली बात तो यह है कि ये ग्लेशियर तेजी के साथ सिकुड़ रहे हैं। इसी वर्ष नई दिल्ली में हिमालय के ग्लेशियरों की स्थिति का जायजा लेने के लिए एक सम्मेलन हुआ था, जिसमें आशंका व्यक्त की गई है कि अगले 40 वर्षों में गंगोत्री का ग्लेशियर क्षेत्र पूरी तरह से पिघल जाएगा। यही तो गंगा का स्रोत है। जाहिर है, जब स्रोत ही न रहेगा तो गंगा कहां रहेगी। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार विकासशील देशों में पानी की भारी किल्लत है। यहां आज भी व्यक्ति की पानी की न्यूनतम आवश्यकता पूरी करने के लिए सफलता नहीं मिल पाई है। हमारे देश की विश्वस्तर पर स्थिति यह है कि विश्व का हर तीसरा प्यास व्यक्ति भारतीय है। आश्चर्य की बात तो यह है कि नदियों वाले इस देश में भी पानी का टोटा है।

सभी प्राचीन सभ्यताएं किसी न किसी नदी के तट पर बसीं। मगर एक दुखद अध्याय यह भी है कि ज्यों-ज्यों आबादी बढ़ती गई, मानव रहने के लिए ठौर तलाशता हुआ दूर-दूर तक पहुंचने लगा। इस तरह से पानी के प्रमुख स्रोत नदियां दूर छूट गईं। दूर रहकर भी इन नदियों का महत्व कम नहीं हुआ। बात प्यास बुझाने की थी या सिंचाई की, इन्हीं नदियों की जरूरत पड़ी। मगर हालत यह भी आई कहीं उफनती नदी तो कहीं सूखी नदी।

देश को मानसून जहां गर्मी से निजात दिलाता है तो कहीं नदियों में उफान भी लाता है। मुहाने तोड़ पानी विकराल बाढ़ की स्थिति पैदा कर देता है। ब्रह्मपुत्र, गंगा जैसी तमाम अन्य नदियां हर साल उफन कर बाढ़ लाती हैं और उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा जैसे राज्यों में जान-माल का खतरा पैदा करती हैं। वहीं, गर्मी की मारी और रूठे मानसून की सताई कुछ नदियां सूखकर खाई बनकर रह जाती हैं और सूखे की स्थिति उत्पन्न करती हैं। यही स्थिति बार-बार इस ख्याल का पुख्ता करती हैं कि क्यों न उफनती नदी को सूखी पड़ी नदियों से जोड़ दिया जाए।

सत्तर के दशक में पंडित जवाहरलाल नेहरू के मंत्रिमंडल में विचार-विमर्श के दौरान यह बात सामने आई। देश के पहले सिंचाई मंत्री और सुप्रसिद्ध इंजीनियर डाॅ. केएल राव ने ‘गंगा-कावेरी लिंक’ नाम से नदियों के मनकों की माला पिरोने की पेशकश की। बात सबको पसंद आई मगर आर्थिक मुद्दा आड़े आया और योजना ठंडे बस्ते में रख दी गई।

इसके कुछ समय बाद एक पायलट कैप्टन दिनशा दस्तूर ने फिर दबी योजना से धूल झाड़ी और ‘नहरों की माला’ योजना के तहत नदियों को जोड़ ‘सबको पानी, धरती को हरियाली’ की बात की। मगर प्रस्ताव के सुझावों में कुछ तकनीकी खराबियां पेश आईं और ‘रुकावट के लिए खेद है।’ की पट्टी चिपक गई। इसके बाद इस विषय पर चर्चा तो होती रही मगर सुगबुगाहट स्वर न ले पाई।

कई वर्षों बाद सरकार ने उभरती-दबती नदी-माला मांग को धकियाने के लिए आयोग गठित कर दिया, जिसे देश के जल संसाधनों के सही उपयोग पर योजना का प्रारूप प्रस्तुत करना था। वर्ष 1980 में सिंचाई मंत्रालय द्वारा प्रस्तावित ‘राष्ट्रीय जल परिदृष्य’ सामने आया।

1982 से लगातार नदियों की माला पिरोने पर शोध-कार्य हुए और अप्रैल, 2002 में एक बार फिर यह बात जोर-शोर से उठी, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद में नई राष्ट्रीय जल नीति की घोषणा की। इसी दौरान देश की नदियों को आपस में जोड़ने की पेशकश फिर हुई। इस कदम को और ठोस आधार तब मिला जब कावेरी विवाद की सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि वर्ष 2015 तक इस योजना को कार्यान्वित कर दिया जाए।

मसौदा बताता है कि देश में कुल 16 लिंक होंगे जो आगे नहरों से जुड़ेंगे। इस प्रस्ताव को दो मुख्य हिस्सों में बांटा गया है। इनमें एक तो हिमालय क्षेत्र की नदियों को पिरोने का है तो दूसरा प्रायद्वीपीय यानी मध्य क्षेत्र की नदियों के गठबंधन का। जहां तक हिमालय क्षेत्र की नदियों का सवाल है तो उनमें गंगा और ब्रह्मपुत्र के इलाकों में कोसी-घाघरा, गंडक-गंगा, घाघरा-यमुना और शारदा-यमुना आदि की बाहें मिलाने का प्रस्ताव है। इसके अलावा ब्रह्मपुत्र क्षेत्र में मानव-संकोश-तीस्ता है। इन दोनों के बीच तीस्ता-गंगा, ब्रह्मपुत्र-गंगा का विकल्प, शारदा से यमुना और राजस्थान होते हुए साबरमती तक का लंबा जोड़, गंगा से दामोदर होते हुए सुवर्ण रेखा और फिर महानदी तक का जोड़ आदि शामिल है।

वहीं दूसरी ओर प्रायद्वीपीय यानी मध्य भारत की नदी-मिलान गाथा में महानदी-गोदावरी, कृष्णा-पेन्नार और कावेरी का आपसी टांका प्रमुख है। यहां उल्लेखनीय यह भी है कि प्रस्ताव में महानदी और गोदावरी के अनुमानित अतिरिक्त पानी को दक्षिण की कावेरी नदी में बहा देने की बात है। इस तरह से अधिक उफान वाली नदियों का अतिरिक्त जल कम पानी वाली या सूखी नदियों में सौंप दिया जाएगा।

मानसून के दिनों में प्राकृतिक रूप से प्राप्त बरसात का पानी कई नदियों को लबालब भर देता है। इस तरह से मुहाने तोड़ बहता पानी नदियों के अतिरिक्त पानी के रूप में माना जाता है। दक्षिण की नदियों में मई और नवम्बर के दौरान 10 प्रतिशत पानी भरता है। ठीक इसी प्रकार उत्तर में जून-जुलाई के मानसून के दौरान अतिरिक्त पानी का दृश्य बाढ़ और ऊपर तक भरी नदियों के रूप में दिखता है।

पर्यावरणविदों की नजर में यह स्थिति नदी के अतिरिक्त पानी की कतई नहीं है। मानसून में यह पानी अतिरिक्त है तो बाकी दिनों में यहां पानी का टोटा होगा। देश में बड़ी संख्या में पर्यावरणविद नदियों की माला को पर्यावरण के खतरे की घंटी कह रहे हैं। उनका मानना है कि नदी अपना रास्ता स्वयं खोजती है। उसे हमारा दिशा-निर्देश उसके भूगोल को बिगाड़ देने वाली बात होगी।

एक मुलाकात में सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद श्री सुंदरलाल बहुगुणा ने बताया कि हमारी नदियां जिंदा जल लेकर बहती रहें, यही हमारा लक्ष्य होना चाहिए। वे आस्ट्रिया के एक जल विज्ञानी शाबर्गर के ‘जीवंत जल सिद्धांत’ का आधार बताते हुए कहते हैं कि शाबर्गर को एक पहाड़ी नदी में यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वहां मछलियां उल्टी दिशा में तेजी से तैर रही हैं। उनके अनुसार पहाड़ी नदी सर्पाकार गति से चट्टानों से टकराती हुई बहने के दौरान अपना शुद्धिकरण करती जाती है। यह उसके लिए प्राकृतिक देन है।

शाबर्गर के अनुसार इसमें किया गया खिलवाड़ कभी भी विस्फोटक हो सकता है। वैज्ञानिक पहलू यह भी है कि नदी जो भी रास्ता समुद्र तक पहुंचने के लिए अपनाती है, वह गुरुत्वाकर्षण पर निर्भर होता है। कहने का अर्थ है कि ऊपर से नीचे की ओर गिरते नदी के पानी को जबरदस्ती कहीं और धकेला जाएगा तो उसका प्राकृतिक गुण बिगड़ जाएगा।

असल में पूर्ण जल चक्र की प्रक्रिया के अंतर्गत बहती नदी अंत में सागर में जा मिलती है, सागर के जल का वाष्पीकरण होता है और अगले पड़ाव में वर्षा होती है जिसका जल बहकर फिर नदी में जा मिलता है। अगर यह चक्र टूटा तो भारतीय नदियां हिंद महासागर, अरब महासागर और बंगाल की खाड़ी में सीधे नहीं गिरेंगी। इस तरह अप्राकृतिक स्थिति पैदा हो जाएगी।

नदियों का बहाव बदलने के लिए जाहिरी तौर पर बड़े-बड़े बांध बनाने की बात की जाती है। इससे पानी का पहले ठहराव होता है फिर वह आगे जाकर मिलता है। लेकिन सुंदरलाल बहुगुणा का कहना है - ‘बांध जल की जीवंतता को मृत कर देते हैं। बांध जलाशय बनाने के लिए संकरी और कठोर चट्टानों वाली घाटी चाहिए जहां नदी को रोका जा सके और जलाशय के लिए उसके पीछे चौड़ा मैदान चाहिए, ऐसे स्थान हिमालय में तो बहुत कम हैं।’

इसी शृंखला में एक खतरा यह भी नजर आता है कि जगह-जगह जल लग्नता और मृदा लवणता की स्थिति पैदा हो जाएगी। यही नहीं, नदी की दिशा दूसरी नदी तक मोड़ने के लिए रास्ता चाहिए, जो निश्चित रूप से नहर खोदने के बाद ही मिलेगा। अब इसके लिए मेट्रो रेल के निर्माण की तरह मकान-दुकान तो साफ नहीं किए जाएंगे। जाहिर है, रास्ता जंगलों के बीच से गुजरेगा और तब अंधाधुंध पेड़ों की कटाई होगी, जंगलों की हजामत होगी। इससे जंगलों में आश्रित लोग तो उजड़ेंगे ही। वर्षा भी प्रभावित होगी। और जब वर्षा ही न होगी तो नदियों में बहाव कहां से आएगा।

दूसरी ओर उत्तर भारत की जिन नदियों को दक्षिण भारत की नदियों से जोड़ने की बात की जा रही है, वह हिमालय में जमे ग्लेशियरों से पोषित हैं। चौंकाने वाली बात तो यह है कि ये ग्लेशियर तेजी के साथ सिकुड़ रहे हैं। इसी वर्ष नई दिल्ली में हिमालय के ग्लेशियरों की स्थिति का जायजा लेने के लिए एक सम्मेलन हुआ था, जिसमें आशंका व्यक्त की गई है कि अगले 40 वर्षों में गंगोत्री का ग्लेशियर क्षेत्र पूरी तरह से पिघल जाएगा। यही तो गंगा का स्रोत है। जाहिर है, जब स्रोत ही न रहेगा तो गंगा कहां रहेगी। इस संबंध में पर्यावरणविद और कालीकट विश्वविद्यालय के कुलपति डाॅ. एसआई हसनैन की शोधपरक रिपोर्ट भी आ चुकी है।

गंगा के किनारे बसे हजारों उद्योगों ने उसे जहरीला कर दिया है। वहां यमुना के किनारे पनपते उद्योग उसमें गर्म और विषाक्त पानी छोड़ रहे हैं। कमोबेश यही हाल और नदियों का भी है। अगर यह नदी अपने ही सीमित क्षेत्र में रहकर साफ नहीं हो पा रही तो भला आपसी घालमेल के बाद इसकी सफाई कैसे होगी।

हर नदी को जोड़ लेना राजनीतिक दृष्टि से भी संभव नहीं। जरूरी नहीं कि वह राज्य अपने यहां से बहती नदी के पानी को हाथ भी लगाने दे। कावेरी विवाद में आती गर्मी अक्सर सुर्खियां बनती हैं। हरियाणा दिल्ली को पानी नहीं छोड़ता, ऐसे जल बंटवारे की स्थिति खासी शोचनीय है। फिर पूरी की पूरी नदी की टोंटी कौन खोलने दे? नदियों को जोड़ने की इस महायोजना के आर्थिक पहलू पर गौर किया जाए तो सरकारी आंकड़े बोलते हैं कि इस पूरी नदी माला योजना पर कम-से-कम 5,56,000 करोड़ रुपए का खर्च आएगा जो कितना और बढ़ जाएगा, कहा नहीं जा सकता।

नदी माला योजना इस तरह से राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय कारणों के साथ-साथ आर्थिक तंगी से भी गुजर रही है। जाहिर है, यह विकट समस्या है और इनसे पार पाना आसान नहीं। यह भी नहीं कहा जा सकता कि देश में कभी नदियों को जोड़ा ही नहीं गया है या फिर पानी को कोई फरहाद अपनी शीरीं के लिए नहर खोदकर नहीं लाया है। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में कई लिंक अब भी हैं।

भाखड़ा बांध, जिसे पंडित नेहरू की एक बड़ी सफलता कहा जाता है, नदी जोड़ने का ही उदाहरण है। इसके अलावा सतलुज-व्यास लिंक और तो और, इंदिरा गांधी नहर भी इसी शृंखला का एक उदाहरण है। जल हमारी प्राकृतिक संपदा है, इसका प्रयोग साझा है। इसे बर्बाद न करते हुए संजोए रखना है। इस प्राकृतिक धरोहर का कैसे भी प्रयोग करें मगर इस बात का ध्यान रखें, यह केवल आपके लिए नहीं, औरों का भी हक है इस पर। फिर इसके साथ खिलवाड़ जघन्य अपराध है, इस बात का ध्यान रखना होगा।

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