नदी चेतना यात्रा : समाज की प्रजातांत्रिक शक्ति और नदी के प्राकृतिक संसाधनों की बहाली 

अविरल नदी, फोटो : needpix.com
अविरल नदी, फोटो : needpix.com

मनुष्य की विकास यात्रा का इतिहास बताता है कि मानव सभ्यता का विकास नदियों के किनारे हुआ है। यह विकास चाहे भारत में हुआ हो या मिश्र में, या अन्य और किसी जगह, या बिहार में, सब जगह उसका आधार नदी और उसका कछार ही रहा है। मानव सभ्यता का यह विकास, नदी और मनुष्य के अन्तरंग सम्बन्ध का जीता-जागता प्रमाण है लेकिन यह सम्बन्ध नदी और मनुष्य के बीच क्यों बना और क्यों विकास की धारा नदी के किनारे ही प्रवाहित हुई, पर बहुत ही कम लोगों ने विचार किया है। उससे जुडा साहित्य भी सहजता से उपलब्ध नही है। आइए उस संभावना को समझने का प्रयास करें। 

सभी लोग सहमत होंगे कि मनुष्य ऐसी जगह रहना और बसना पसन्द करेगा जहाँ उसका जीवन सुरक्षित हो। उसे, यथासंभव सुख मिले। उसे, आनन्द की अनुभूति हो। स्वच्छ पानी मिले। भोजन और आजीविका का सहजता से बन्दोवस्त हो सके। शुद्ध पर्यावरण मिले। मनोभावों और कल्पनाओं को प्रगट करने का सुअवसर मिले। कला और साहित्य का विकास हो। इत्यादि इत्यादि। लगता है, जब यह सब जब नदी के किनारे उपलब्ध हुआ तो लोग नदी के किनारे बस गए। लोग बसे तो राज्य स्थापित हो गए। उनकी राजधानियाँ बस गईं। नदी और उसके कछार की कुदरती सम्पदा और उस पर आधारित संभावनाओं के आधार पर समाज की गतिविधियाँ संचालित हुईं और जल्दी ही भारत सोने की चिडिया बन गया। इसी कारण, कृतज्ञ समाज के लिए नदी पूज्यनीय हो गई। पूजा-पाठ के माध्यम से समाज उन्हें याद करने लगा। उनकी प्ररिक्रमा होने लगी। उनके किनारे मेले लगने लगे। 

भारत की नदियों की मौजूदा स्थिति को देख कर प्रश्न उठता है कि नदियों को लेकर वह पुराना सोच, वह पुराना सम्बन्ध कहाँ गया और क्यों खो गया? कौन सी गडबडी हुई जिसके कारण नदी और समाज के सम्बन्ध में खटास और बेरुखी आ गई। निर्भरता को हासिए पर ला दिया? वो कौन सी ताकतें हैं या थीं जिन्होंने नदी और समाज के बीच खाई पैदा की? आज, वह अन्तरंग सम्बन्ध और नाता क्यों अप्रासंगिक हो गया? समाज ने बदलाव का प्रतिरोध क्यों नहीं किया? प्रजातंत्र में समाज कैसे असहाय हो गया। ये वे सवाल हैं जिनका उत्तर दिए बिना उस अन्तरंग सम्बन्ध को समझना और नदी की अविरलता तथा निर्मलता को बहाल करना संभव नही है। कहीं यह नदी के प्राकृतिक संसाधनों के कारण तो नहीं था? आइए! सिलसिलेवार बदलाव और उसके क्रम को समझें। चेतना यात्रा के साथियों को उनका लक्ष्य याद दिलायें। 

समय के साथ नदी के कछार में बसाहट के अलावा अनेक गतिविधियों का विकास हुआ। भारत में अंग्रेजों के काबिज होने के पहले तक अर्थात सोलहवीं सदी तक वह बदलाव कुदरत के साथ लक्ष्मण रेखा का सम्मान करता बदलाव था। अंग्रेजों के देश पर काबिज होने के बाद नदी के प्रति विदेशी सरकार का नजरिया बदला। उन्होंने पानी पर अपना अधिकार कायम किया। पानी जो जीवन अमृत था, अंग्रेजों के लिए राजस्व कमाने का साधन बन गया। पानी के मामले में बात करना सरकारी काम में हस्तक्षेप कहलाने लगा और दण्डनीय हो गया। काम की नई संस्कृति विकसित होने लगी। विकास के नाम पर कछार का कुदरती चरित्र बदला जाने लगा। कुदरती चरित्र के बदलने के कारण विकास की पर्यावरण विरोधी पृवत्ति मुख्य धारा में आ गई। भारतीय नदियों के चरित्र की अनदेखी होने लगी। नदी और उसके कछार में उसके दुश्परिणाम सामने आने लगे। नदीतंत्र सहित सारा कछार पर्यावरण बदहाली के मार्ग पर चल पड़ा। नदी तंत्र का कुदरती ड्रेनेज सिस्टम छिन्न-भिन्न होने लगा। इन सब हस्तक्षेपों के कारण नदी और उसका कछार शनै-शनै अपनी भूमिका खोने लगा। अंग्रेजों के वर्चस्व के कारण समाज मौन हो गया। भूमिका के बदलने से नदी के उपकार धीरे-धीरे समाज से दूर जाने लगे।

आजादी के बाद सत्ता का स्वरूप बदला पर नदी की अस्मिता को नुकसान पहुँचाने वाले काम यथावत चालू रहे। पर्यावरणीय मामलों में उन्होंने लक्ष्मण रेखा लाँघी। नदी का कछार, अचानक कैचमेंट और कमाण्ड में बदल गया। पानी के असमान वितरण की कहानी प्रारंभ हो गई। कैचमेंट में पानी का टोटा प्रारंभ हुआ और बढ़ते प्रदूषण के कारण नदियाँ मैलागाडी बनने लगीं। पानी अपना अमरत्व खोने लगा। चूँकि समाज अपनी बात कहना भूल चुका था इसलिए इसलिए सत्ता ने नदी और उसके कछार की बिगड़ती सेहत की चिन्ता नहीं की। हालातों को बदतर होने दिया। नदी चेतना यात्रा उस बिसराए समीकरण को फिर से पटरी पर लाने की एक्सरसाईज है। छोटी ही सही पर नदी के संसाधनों को समाज तक लाभों के रुप में पहुँचाने की कोशिश है। समाज के हितों की रक्षा की कोशिश है। समाज को जोड़ने और पानी तथा लाभों पर अधिकारिता प्रदान करने की कोशिश है। इस मामले में बिहार में चार नदियों पर चलाई जा रही नदी चेतना यात्रा अनूठी है। ऐसा संभवतः पहली बार हो रहा है। इसी कारण उसकी चुनौती बेहद गंभीर है। नदी चेतना यात्रा के साथियों को उन सवालों के उत्तर देने होंगे जो नदी कछार के कुछ लोग इस यात्रा में उनकी सक्रिय भागीदारी और यात्रा के औचित्य को लेकर सवाल खडे करेंगे। याद रहे, अभी भी, पर्यावरण शिक्षित लोगों तथा कार्यशालाओं का विषय है। उसे धरातल पर लाने, उसकी औकात बताने और समाज के हितों से जोडने की जिम्मदारी नदी यात्रा के साथियों की है। 

आज जब समाज पानी, हवा, मिट्टी, अनाज इत्यादि के प्रदूषण का शिकार हैं, ऐसी हालत में बिहार के पर्यावरण प्रेमियों द्वारा नदी चेतना निकालना और बिहार सरकार का उनको सहयोग प्रदान करना उम्मीद जगाता है। यह ऐसी पहल है जिसमें नदी का समाज, पंचायत और उसकी पानी से जुडी उप-समिति (वार्ड कमेटी) से मिलकर राज से सम्वाद करेगा। समस्या की तह में जावेगा। कारणों की समीक्षा करेगा। समाधान खोजेगा और उन्हें पूरी प्रमाणिकता से पेश करेगा। तभी व्यवस्था उसे सुनेगी। किसी भी अर्थ में नदी चेतना यात्रा पिकनिक नही है। नदी की अस्मिता की बहाली बेहद कठिन काम है। केवल यात्रा करने या चन्द लोगों से अनर्गल बात करने से काम नहीं बनने वाला है। यह कमाई का जरिया भी नहीं है। नदी चेतना यात्रा के संयोजक पंकज मालवीय के लिए यह गंभीर चुनौती है। 

पंकज मालवीय कहते हैं कि इस अभियान को समाज और सरकार का सहयोग मिल रहा है। हालात बदल रहे हैं। लोग नदी के कुदरती संसाधन और पर्यावरण को समझने का प्रयास कर रहे है। लेखक को लगता है कि बिहार के सकारात्मक परिवेश और प्रजातांत्रिक पहल में अपनी बात कहने और अपना पानी मांगने के लिए एकजुट होकर नदीतंत्र के समाज को आगे आना होगा। यह सेहत, आजीविका और खुशहाली का अभियान है। अभियान में समाज को अपना आर्थिक हित खोजना होगा। गौरतलब है कि समाज को अपनी प्रजातांत्रिक ताकत और तार्किक क्षमता को प्रमाणित कर नदी और उसके कछार के कुदरती संसाधनों को बहाल कर अपनी जिंदगी में खुशहाली लाना है। यही समाज की अपेक्षा होना चाहिए। नदी चेतना यात्रा को इसी अपेक्षा को पूरा करने के लिए समाज को मन बचन और कर्म से तैयार करना है। पंकज मालवीय और उनकी टीम की यही ज़िम्मेदारी है।.

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading