नए हथियार से चीनी घात

8 Feb 2016
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भारत की चिन्ता को खारिज कर ब्रह्मपुत्र नदी पर चीन द्वारा तैयार किया जा रहा बाँध अब चालू हो गया है। आने वाले समय में यह दोनों देशों के बीच विवाद का एक नया बिन्दु होगा।

चीन लम्बे समय से भारत के प्रतिरोध की अनदेखी करते हुए ब्रह्मपुत्र नदी (तिब्बत में यारलंग-शांगपो) पर बाँध बना रहा है, जो अब चालू हो गया है। जब उसने बाँध बनाने की शुरुआत की और भारत सरकार की तरफ से प्रतिकार हुआ, तो जवाब में उसने इस प्रतिकार को भारत की कपोल- कल्पित अफवाह, गैर जरूरी कदम, असम्भव तथा अवैज्ञानिक पक्ष बताकर खारिज कर दिया। लेकिन कुछ समय बाद उसने अपने इस प्रोजेक्ट को आर्थिक प्रयोजन तक सीमित करके भारत सरकार को आश्वस्त करने की कवायद शुरू कर दी। इसके बाद भारतीय पक्ष की तरफ से इतनी प्रभावशाली प्रतिक्रिया नहीं हुई कि चीन की सरकार दबाव महसूस करे। इसलिये सवाल यह उठता है कि क्या भारत सरकार चीनी प्रत्युत्तर से सन्तुष्ट है? इस विषय पर गम्भीरता से विचार करने की जरूरत है कि चीनी प्रयोजन केवल सिंचाई और बिजली जरूरतों तक ही सीमित है या फिर यह उसकी डैम स्ट्रैटेजी का हिस्सा है जिसे वह एक ‘वार वीपन’ के रूप में प्रयुक्त कर सकता है।

भारत में बाढ़ का खतरा


पिछले दिनों यह खुलासा हुआ कि तिब्बत में ब्रह्मपुत्र नदी पर निर्मित चीन की सबसे बड़ी पनबिजली परियोजना जाम हाइड्रो पॉवर की शुरुआत हो गई है। शन्नान प्रिफेक्चर के ग्यासा काउंटी में स्थित जाम हाइड्रो पॉवर (जांगमू हाइड्रोपावर) ब्रह्मपुत्र नदी के पानी का इस्तेमाल करेगा। इस परियोजना की पहली इकाई ने पिछले साल नवम्बर में संचालन शुरू कर दिया था। पिछली रिपोर्टों में बताया गया था कि जांगमू के अलावा चीन कुछ और बाँध बना रहा है। उल्लेखनीय है कि ब्रह्मपुत्र पर भारत के एक अन्तर मंत्रालय विशेषज्ञ समूह (आईएमईजी) ने 2013 में रेखांकित किया था कि तीन बाँध- जिएशू, जांगमू और जियाचा एक दूसरे से 25 किलोमीटर के दायरे में और भारतीय सीमा से 550 किलोमीटर की दूरी पर हैं। आईएमईजी ने चीन द्वारा ब्रह्मपुत्र नदी पर बाँध बनाए जाने से भारत में नदी के बहाव पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की जानकारी दी थी। इसके बाद भारत सरकार द्वारा आधिकारिक द्विपक्षीय वार्ताओं में इसे उठाया गया, लेकिन चीन ने कोई सन्तोषजनक कदम नहीं उठाया। उसने भारत की चिन्ताओं को खारिज करते हुए जवाब दिया था कि ये रन-आॅफ-द-रिवर परियोजनाएँ हैं, जिनका डिजाइन पानी के भण्डारण के लिये नहीं किया गया है। लेकिन पर्यावरणविदों का मानना है कि चीन की इस परियोजना से भारत और बांग्लादेश दोनों ही जगहों पर बाढ़ और भूस्खलन का खतरा अब बढ़ जाएगा।

परियोजनाएँ चीन के हथियार


चीन ने इस परियोजना को लम्बे समय तक गुप्त रखा और समझौते के बावजूद भारत को बाँध सम्बन्धी समस्त आँकड़े उपलब्ध नहीं कराए। इसलिये भारत सरकार को सबसे पहले यह स्पष्ट करना चाहिए कि आखिर वह कौन सी वजह थी कि चीन इस परियोजना को गुप्त रखकर काम करता रहा? दरअसल, ब्रह्मपुत्र (सांगपो-ब्रह्मपुत्र) ट्रांस-बाउंड्री नदी है। इसलिये इस पर बनने वाले बाँध या इसकी धारा में किसी तरह का अवरोध अथवा परिवर्तन नीचे के क्षेत्रों पर प्रभाव अवश्य डालेगा। अगर चीन की सरकार नई दिल्ली को आश्वस्त करती है कि इस परियोजना का उद्देश्य नदी की धारा को मोड़ना नहीं है, तो यह मान लिया जाना चाहिए कि यह उसकी कूटनीति का एक हिस्सा है। इसलिये भारत को अपने सामरिक पक्ष को देखने की जरूरत है, चीन की बात पर आँख मूँद कर विश्वास करने की नहीं। भारत की विदेश नीति का एक पक्ष हमेशा बेहद कमजोर रहा है कि उसमें सर्वोच्च राष्ट्रीय हितों को सबसे आगे नहीं रखा गया। दूसरी तरफ बीजिंग का नजरिया अपने राष्ट्रीय हितों और अन्तरराष्ट्रीय कूटनीतिक सम्बन्धों के प्रति एकदम अलग रहा है। उसने अपने राष्ट्रीय हितों को सबसे ऊपर रखकर ही कूटनीतिक या सामरिक कदम बढ़ाए हैं। यानी यारलंग-शांगपो/ ब्रह्मपुत्र नदी पर प्रमुख जलधारा को मोड़ना उसके सामरिक हितों के अनुरूप हुआ, तो वह ऐसा करने में भी कूटनीतिक मर्यादा का परित्याग करने में नहीं हिचकेगा।

सूखे चीन को चाहिए पानी


चीन ने अपने औद्योगिक विकास के कारण प्रकृति को काफी क्षति पहुँचाई, जिसके कारण उसकी कई नदियाँ जलविहीन हो चुकी हैं। उसकी यांग्त्ज नदी, जो कि एशिया की सबसे बड़ी नदी है, भी पिछले 50 वर्षों में सूखेपन की शिकार हुई है। इसका मूल कारण है प्यासे उत्तरी चीनी पठार को साउथ-नाथ ट्रांसफर प्रोजेक्ट के जरिए पर्याप्त पानी मुहैया कराना। उसकी नीतियों के कारण तिब्बत के 46 हजार ग्लेशियर संकट की चपेट में आ गए और 20 प्रतिशत हिमनद पीछे सरक गए। इसी को देखते हुए वांग गुआंग कियान के नेतृत्व में सीएस (चाइनीज एकेडमी आॅफ साइंस) वैज्ञानिकों ने चीनी सरकार के समक्ष प्रस्ताव रखा था कि याँग्त्ज की सहायक नदियों से परे जाने की जरूरत है। यानी याँग्त्ज के बजाय और यारलंग- शांगपो (ब्रह्मपुत्र) की धारा को परिवर्तित किये जाने की आवश्यकता है। इस सन्दर्भ में भी तर्क रखा गया था कि यारलंग-शांगपो/ ब्रह्मपुत्र को महान मोड़ के पास से परिवर्तित न करके पुराने चीनी पठार से परिवर्तित किया जाये, जिसे लाल राष्ट्रवादी ली लिंग ने अपनी पुस्तक तिब्बत का पानी चीन को बचा सकता है (तिब्बत्स वॉटर विल सेव चाइना) में चिन्हित किया था। इसका कारण यह था कि यह क्षेत्र समुद्र तल से 3600 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है, जहाँ से इस नदी के पानी को पम्प करना आसान होगा। लेकिन न्यूयार्क आधारित एशिया स्टडीज की निदेशक एलिजाबेथ का तर्क है कि यह पर्यावरण के लिये बम का कार्य करेगा। तो फिर भारत की सीमा पर बनने वाला 38 गीगावॉट क्षमता का यह बाँध कितना खतरनाक होगा, इसका अन्दाजा आसानी से लगाया जा सकता है।

सौदेबाजी कर सकता है चीन


चीन द्वारा आरम्भ की जाने वाली महत्त्वाकांक्षी परियोजनाओं में यह परियोजना उस अभियान का आरम्भिक हिस्सा है, जो उसने तिब्बत के पानी के विशाल भण्डारों पर अपने नियन्त्रण के लिये शुरू की है। अगर चीन इस दिशा में यूँ ही धता बताते हुए आगे बढ़ता रहा तो वह आगे चलकर भारत, बांग्लादेश, म्यांमार, नेपाल, थाइलैण्ड, लाओस, कम्बोडिया और वियतनाम जैसे देशों के साथ भू-सामरिक सौदेबाजी पर भी उतर सकता है। लेकिन अनावृत्त होने के बाद चीन यह तर्क दे रहा है कि यह मात्र रन आॅफ दि रिवर यानी पानी को रोककर प्रयोग करने के बाद पुन: छोड़ देने की परियोजना है। उसके इस तर्क को पिछली मनमोहन सरकार ने अंगीकार करते हुए फरमान भी जारी कर दिया था कि ब्रह्मपुत्र पर चीनी बाँध से तत्काल कोई खतरा नहीं है।

बहरहाल, चीन के इरादे सीधे-सादे आर्थिक मसले तक ही सीमित नहीं हो सकते। यह हो सकता है कि उसका तात्कालिक प्रयोजन केवल आर्थिक हो, लेकिन इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि वह कभी भी इन बाँधों का सामरिक इस्तेमाल नहीं करेगा। भारत सरकार चाहे तो चीन के रीवर वॉटर प्रोजेक्ट्स से प्रभावित देशों को साथ लेकर शक्तिशाली कूटनीतिक दबाव बना सकती है अथवा अकेले ही। लेकिन अभी तक कोई प्रभावशाली पहल भारत सरकार की तरफ से नहीं दिख रही है।

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