निजीकरण को ठानी, अब मध्य प्रदेश का पानी

2 Sep 2010
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वेतन-भत्तों और सुविधाओं के विस्तार को लेकर लगातार हाय तौबा करने वाले जनप्रतिनिधि अब जनता की बुनियादी ज़रुरतों से पल्ला झाड़कर औद्योगिक घरानों की ताल पर थिरकते दिखाई दे रहे हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में पानी, बिजली, स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़क जैसी बुनियादी सुविधाएँ जुटाने का ज़िम्मा सरकारों को सौंपा गया है। मगर सरकारें अब जनहित के कामों को छोड़कर एक के बाद एक योजनाओं को निजी हाथों में सौंपती चली जा रही है, फ़िर चाहे वो प्राकृतिक संसाधन हों, ज़मीन हो या आम जनता की सेवा से जुड़े मुद्दे हों। इसी कड़ी में अब नेताओं और उद्योगपतियों को पानी मुनाफ़े का सौदा नज़र आने लगा है।

मध्यप्रदेश में अब कॉर्पोरेट सेक्टर को जलग्रहण मिशन से जोड़ा जा रहा है। विज्ञापनों की सरकारी मलाई खाकर अपनी ही मस्ती में डूबा मीडिया प्रदेश सरकार के इस कदम को अभिनव पहल बताने में जुट गया है। भारतीय संस्कृति में जल संरक्षण सामाजिक और सामुदायिक ज़िम्मेदारी है। स्टील, टेलीकॉम, बिजली, सीमेंट, मोटर गाड़ी जैसे क्षेत्रों में मुकाम बना चुके टाटा, रिलायंस, बिड़ला जैसे औद्योगिक घराने खबर है कि मध्यप्रदेश के गाँवों में जल प्रबंधन की कमान संभालेंगे। सूत्रों के मुताबिक अब तक नौ कंपनियाँ जलग्रहण मिशन में काम करने की सहमति दे चुकी हैं। इनमें टाटा, रिलायंस, महिन्द्रा एंड महिन्द्रा, आईटीसी, ग्रेसिम, रामकी, रामकृष्ण एग्रो प्रोसेसिंग, ओरियंटल पेपर मिल और इंडिया ट्रेसीविलिटी सिस्टम लिमिटेड शामिल हैं ।

इन कंपनियों को परियोजना लागत का न्यूनतम दस फीसदी खर्चा ही उठाना होगा। साथ ही ब्लॉक मुख्यालय में ऑफिस बनाकर विशेषज्ञों की तैनाती भी करनी होगी। प्रोजेक्ट की अवधि पाँच साल रखी गई है। कंपनियों को पाँच हजार हेक्टेयर के क्लस्टर में काम करने दिया जाएगा । इसमें होने वाले काम उपयोगकर्ता दल, स्व-सहायता समूह और वाटरशेड कमेटी तय करेगी। परियोजना में सिंचित क्षेत्र, जलस्तर, आजीविका के साधन बढ़ाने के साथ वनों का विकास भी करना होगा । कॉर्पोरेट घराने परियोजना के पर्यवेक्षण के साथ निगरानी की जिम्मेदारी भी निभाएँगे। साथ ही वाटरशेड समितियों को प्रशिक्षण भी देंगे। जल संरक्षण परियोजनाओं में ग्रामीण विकास विभाग पहली बार स्व-सहायता समूह और वाटरशेड समितियों के साथ आउटकम एग्रीमेंट करेगा ।

बेशक जल संरक्षण आज के समय की सबसे बड़ी जरूरत है। सरसरी तौर पर योजना में कोई खामी नज़र नहीं आती, लेकिन यह भी समझना होगा कि जल केवल व्यावसायिक नीति नहीं, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति की सामाजिक जिम्मेदारी भी है। भारतीय जीवन दर्शन पानी जैसी जीवन की अनिवार्य वस्तु को समाज की साझा संपत्ति मानता आया है, न कि निजी मुनाफे की वस्तु। पानी की बिक्री और नगर में पेयजल व्यवस्था के प्रबंध के बहाने बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ पानी जैसी अनिवार्य और नायाब वस्तु पर अपना कब्जा जमा रही हैं। देश के अनेक भागों में पानी की बढ़ती माँग और घटती उपलब्धता एक बड़ी समस्या बन चुकी है। ऎसे में कॉर्पोरेट जगत की पानी के संरक्षण में बढ़ती दिलचस्पी नये किस्म के संकट की ओर संकेत करती है । हर काम को नफ़े-नुकसान के तराज़ू पर तौलने वाले औद्योगिक घराने एकाएक प्राकृतिक संसाधनों को लेकर भला इतने गंभीर क्यों नज़र आ रहे हैं ? कहीं ये कोई अंतरराष्ट्रीय साज़िश की दस्तक तो नहीं ? क्या ये प्राकृतिक संसाधनों के दोहन का नेताओं, सरकारी तंत्र और कंपनियों की साँठगाँठ का नया नुस्खा है ?

घटते जल स्रोतों के बीच लोगों की मानसिकता में भी तब्दीली आ रही है । उपभोक्तावादी संस्कृति की गिरफ़्त में आ चुके लोगों में बोतलबंद पानी के इस्तेमाल का चलन तेज़ी से बढ़ रहा है। जिसकी जेब में पैसा हो वह पानी पिए–इस दर्शन के पीछे विश्व बैंक की प्रस्तावित जल योजना है। यह शिगूफ़ा ज़ोर पकड़ रहा है कि शुद्ध पानी वह पिए जिसकी जेब में उसका दाम चुकाने की क्षमता हो। पानी के निजीकरण से 40 करोड़ डॉलर के बाजार पर गिद्धों की निगाह है। पानी की मिल्कियत को लेकर देश-देश में झगड़े शुरु हो गए हैं। कनाडा की प्रांतीय सरकार ने जन आक्रोश के दबाव में ब्रिटिश कोलम्बिया से पानी का निर्यात रोक दिया तो निर्यात करने वाली अमेरिका की सन बेल्ट वाटर कारपोरेशन ने कनाडा सरकार पर हर्जाने का मुकदमा ठोंक दिया। बोलिविया में पानी के बढ़ते दाम के खिलाफ जनता ने रास्ते जाम कर दिए। विशाल जनांदोलन के बाद उन्हें बैक्टेल कंपनी से मुक्ति मिल सकी। दक्षिण अफ्रीका में जल प्रबंधन तथा जल निकास सेवाओं को फ्रांसीसी कंपनी को दिए जाने के विरुद्ध संघर्ष जारी है।

भारत में भी कई शहरों की जलापूर्ति व्यवस्था पर विदेशी कंपनियों ने कब्जा जमाना शुरू कर दिया है। राजधानी भोपाल में भी पिछले दो सालों से पानी की आपूर्ति दिनोंदिन घटती जा रही है और शुल्क में लगातार इज़ाफ़ा हो रहा है। राजधानी वासियों को एक दिन छोड़कर औसतन पाँच सौ लीटर पानी दिया जा रहा है, जबकि नगर निगम ने मासिक शुल्क साठ रुपए से बढ़ाकर एक सौ अस्सी रुपए कर दिया है। दो साल पहले की पेयजल आपूर्ति से तुलना की जाये तो भोपाल के लोग कम पानी की कई गुना ज़्यादा कीमत चुका रहे हैं। विदेशी कंपनी की मदद से अब तो चौबीस घंटे पानी देने की स्कीम लाई जा रही है । इसमें महीने में औसतन पचास हजार लीटर पानी खर्च करने पर लगभग पांच सौ रुपए अदा करने होंगे। देश में शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा के साथ भी यही किया गया। सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं का बेड़ा गर्क करने के बाद अब पानी भी वर्ग भेद की भेंट चढ़ने जा रहा है। अमीरों और गरीबों के स्कूलों तथा अस्पताल तो पहले ही अलग-अलग हो चुके थे, अब बँटवारा हो रहा है, अमीर - गरीब के पानी में। पानी की उपलब्धता और शुद्धता के सामूहिक दायित्व से जो समाज हाथ खींच रहा है, वह यह जान ले कि पानी के धंधे से बढ़कर भ्रष्टाचार और कहीं नहीं है।

मसला ये है कि जनता की बुनियादी ज़रुरतों को पूरा करने में सरकारों की दिलचस्पी ही खत्म होती जा रही है। ऐसे में बुनियादी सवाल खड़ा होता है कि जनहित के मुद्दों से दूर होते जनता के नुमाइंदों के भरोसे जम्हूरियत कितने वक्त तक ज़िन्दा रह पायेगी ? जल, जंगल और ज़मीनों को ठेके पर देती जा रही सरकारें लोकतंत्र को ही बेमानी साबित कर रही हैं । औद्योगिक घरानों से नेताओं की जुगलबंदी का आलम यही रहा तो वो दिन दूर नहीं जब संसद और विधानसभाओं की कुर्सियों को भी निजी हाथों के हवाले करने का कोई नुस्खा नये दौर के गज़नवी ढ़ूँढ़ ही निकालेंगे ।
 
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