नीली मौत मरती मेघालय की नदियाँ

जहाँ मेघों का डेरा है, वहाँ मेघ से बरसने वाली हर एक अमृत बूँदों को सहेज कर समाज तक पहुँचाने के लिये प्रकृति ने नदियों का जाल भी दिया है। कभी समाज के जीवन की रेखा कही जाने वाली मेघालय की नदियाँ अब मौत बाँट रही हैं। एक-एक कर नदियाँ लुप्त हो रही हैं, उनमें मिलने वाली मछलियाँ नदारत हैं और इलाके की बड़ी आबादी पेट के कैंसर का शिकार हो रही हैं।

इतने पर भी सरकारी महकमे कहते हैं कि अभी इतना प्रदूषण नहीं हैं। इन दिनों मेघालय से बाहर बांग्लादेश की ओर जाने वाली दो बड़ी नदियों लुका और मिंतदू का पानी पूरी तरह नीला हो गया है। सनद रहे कि इस इलाके की नदियों के पानी का रंग साफ या फिर गंदला सा होता है।

लेकिन पिछले दस दिनों ये नदियाँ आसमानी नीले रंग की हो गई है। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है, सन् 2007 से हर साल ठंड शुरू होते ही इन नदियों में पहले मछलियाँ मरना शुरू होती हैं और फिर इनका रंग गहरा नीला हो जाता है। इलाके के कोई दो दर्जन गाँव ऐसे हैं जिनके पास जलस्रोत के रूप में ये नदियाँ ही विकल्प हैं।

गौर करना जरूरी है कि सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज हैं कि इस क्षेत्र की 30 फीसदी आबादी पेट की गम्भीर बीमारियों से ग्रस्त हैं व इसमें कैंसर के मरीज सर्वाधिक हैं।

मेघालय यानि ‘बादलों का घर’ पूर्वोत्तर भारत का एक सबसे सुन्दर राज्य है जिसे सर्वाधिक बारिश वाला क्षेत्र कहा जाता है। राज्य की सीमा का एक प्रमुख हिस्सा असम के उत्तर और पूर्वी भाग में स्थित है। दक्षिण और पश्चिमी भाग बांग्लादेश के साथ है। हर साल 1200 सेमी. वर्षा होने के कारण मेघालय को सबसे नम राज्य कहा जा सकता है।

यहाँ कई नदियाँ हैं जिनमें गनोल, उमियाम, मिनगोत, मिखेम और दारेंग शामिल हैं। इन नदियों के अलावा आपको यहाँ और भी ढेरों नदियाँ जैसे उमियाम, मावपा और खरी मिल सकती हैं। इस राज्य का सबसे खास पहलू इसकी नदियाँ हैं।

गारो हिल्स में मिलने वाली प्रमुख नदियाँ कालू, रिंग्गी, दारिंग, सांदा और सिमसांग हैं। राज्य के मध्य और पूर्वी भाग में इंतदु, दिगारु, उमखरी और किनचियांग हैं।

मेघालय राज्य जमीन के भीतर छुपी प्राकृतिक सम्पदाओं के मामले में बहुत सम्पन्न है। यहाँ चूना है, कोयला है और यूरेनियम भी है। शायद यही नैसर्गिक वरदान अब इसके संकटों का कारण बन रहा है। सन् 2007 में ही जब पहली बार लुका व मिंतदु नदियों का रंग नीला हुआ था, तब इसकी जाँच प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने की थी।

मेघालय राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने 2012 की अपनी रिपोर्ट में इलाके में जल प्रदूषण के लिये कोयला खदानों से निकलने वाले अम्लीय अपशिष्ट और अन्य रासायनिकों को जिम्मेदार ठहराया था।

क्षेत्र के प्रख्यात पर्यावरणविद एचएच मोर्हमन का कहना है कि नदियों के अधिकांश भागों में इसके तल में कई प्रकार के कण देखे जा सकते हैं, जोकि सम्भवतया नदियों के पास चल रहे सीमेंट कारख़ानों से उड़ती राख है। बीच में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने कोयले के खनन और परिवहन पर प्रतिबन्ध लगाया था, लेकिन वह ज्यादा दिन चला नहीं।

नदियों की धीमी मौत का यह उदाहरण केवल लुका या मिंतदु तक सीमित नहीं हैं, आयखेरवी, कुपली नदियों का पानी भी अब इंसान के प्रयोग लायक नहीं बचा है।

मेघालय ने गत दो दशकों में कई नदियों को नीला होते, फिर उसके जलचर मरते और आखिर में जलहीन होते देखा है। विडम्बना है कि यहाँ प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से लेकर एनजीटी तक सभी विफल हैं। समाज चिल्लाता है, गुहार लगता है और स्थानीय निवासी आने वाले संकट की ओर इशारा भी करते हैं लेकिन स्थानीय निर्वाचित स्वायत्त परिषद खदानों से लेकर नदियों तक निजी हाथों में सौंपने के फ़ैसलों पर मनन नहीं करती है।लुका नदी के जयन्तिया पहाड़ी इलाके के तांगसेंग, सखरी, सोनपयरडी, सिम्पलांग, लेजी जैसे कई गाँवों के लोगों के लिये पेट पालने व पानी की दैनिक ज़रूरतों की पूर्ति का एकमात्र जरिया है। जानना जरूरी है कि लुका नदी ना केवल कोयला व चूना की खदानों वाले इलाके से गुजरती है, यह नारफू से भी गुजरती है जहाँ कई सीमेंट के कारखाने हैं।

यह भी चिन्ता का विषय है कि लूका नदी नारफू संरक्षित वन क्षेत्र को घेरते हुए बहती है और यह इस जिले का एकमात्र शेष बचा घना वन है। यह इलाक़ा असम के बराक घाटी, मिजोरम व त्रिपुरा को शेष भारत से जोड़ने वाला एकमात्र मार्ग एनएच-44 का इलाक़ा है।

लुका नदी पहाड़ियों से निकलने वाली कई छोटी सरिताओं से मिलकर बनी है, इसमें लुनार नदी मिलने के बाद इसका प्रवाह तेज होता है। इसके पानी में गंधक की उच्च मात्रा, सल्फेट, लोहा व कई अन्य जहरीली धातुओं की उच्च मात्रा, पानी में ऑक्सीजन की कमी पाई गई है।

ठीक यही हालत अन्य नदियों की भी है जिनमें सीमेंट कारखाने या कोयला खदानों का अवशेष आकर मिलता है। लुनार नदी के उद्गम स्थल सुतुंगा पर ही कोयले की सबसे ज्यादा खदाने हैं। यहाँ यह भी जानना जरूरी है कि जयन्तिया पहाड़ियों पर जितनी कानूनी खदानें हैं उससे कई गुना ज्यादा वहाँ ग़ैरक़ानूनी खनन है।

यही नहीं नदियों में से पत्थर निकाल कर बेचने पर तो यहाँ कोई ध्यान देता नहीं है, जबकि इससे नदियों का इको सिस्टम खराब हो रहा है। इसमें कटाव बढ़ रहा है। नीचे दलदल बढ़ रहा है और इसी के चलते वहाँ मछलियाँ कम आ रही हैं। ऊपर से जब खनन का मलबा इसमें मिलता है तो जहर और गहरा हो जाता है।

मेघालय ने गत दो दशकों में कई नदियों को नीला होते, फिर उसके जलचर मरते और आखिर में जलहीन होते देखा है। विडम्बना है कि यहाँ प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से लेकर एनजीटी तक सभी विफल हैं। समाज चिल्लाता है, गुहार लगता है और स्थानीय निवासी आने वाले संकट की ओर इशारा भी करते हैं लेकिन स्थानीय निर्वाचित स्वायत्त परिषद खदानों से लेकर नदियों तक निजी हाथों में सौंपने के फ़ैसलों पर मनन नहीं करती है।

अभी तो मेघालय से बादलों की कृपा भी कम हो गई है, चेरापूँजी अब सर्वाधिक बारिश वाला गाँव रह नहीं गया है, यदि नदियाँ खो दीं तो दुनिया के इस अनूठे प्राकृतिक सौन्दर्य वाली धरती पर मानव जीवन भी संकट में होगा।

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