निर्बाध जल प्रबंधन और भारत


जल भूमि, सागर तथा आकाश में अनवरत घूमता रहता है और पृथ्वी के 70 प्रतिशत भाग पर छाया हुआ है। एक बार ऐसा लगता है कि यह अनन्त और अक्षय संसाधन है और आज के समय में यह मानवीय समाज और आर्थिक विकास को परिभाषित करता है। जल संसाधन का प्रबंधन किसी भी राष्ट्र की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है क्योंकि यह विकास तथा आर्थिक विकास से सीधा जुड़ा रहा है और विश्व द्वारा सबसे महत्त्वपूर्ण चुनौती का सामना करा रहा है। ये विकासशील पहचान के रूप में है कि सीधी जल आपूर्ति से ऊपर शुद्ध जल की पारिस्थितिक की प्रणाली पूरी तरह से ठोस और जैविक का असंगत मिश्रण के रूप से आर्थिकतौर पर बहुत अमूल्य सामग्री है। इन सेवाओं में बाढ़ नियंत्रण, वाष्पीकरण, पुनर्रचना, शुद्धिकरण, मानवीय और औद्योगिक उच्छिष्टों का वनस्पति एवं जीव का रहन-सहन, मछली और खाद्यान्नों का उत्पादन तथा बाजारी सामान, ये सभी पारिस्थितिक का लाभ बहुत महँगा बहुधा असंभव हो जाता है। जबकि जल प्रणाली का ह्रास होता है।

जलभारत की बढ़ती हुई जनसंख्या के जलापूर्ति की समस्या निवारण हेतु भविष्य के लिये जल प्रबंधन जो निर्बाध एवं भली-भाँति योजनाबद्ध और अपने उद्देश्य को दूर तक पाने वाली बनाना पड़ेगा। एक लाख से अधिक जनसंख्या वाले भारत के 35 शहरों में प्रतिदिन केवल कुछ घंटों की जलापूर्ति हो पाती है जबकि उनके पास सामान्यत: संसाधन उपलब्ध हैं। 2007 में एक अध्ययन से पता लगा कि देश के 20 नगरों में केवल 4.3 घंटे प्रतिदिन जलापूर्ति हो पाती है। इनमें सबसे अधिक चंडीगढ़ में 12 घंटे प्रतिदिन और सबसे कम 20 मिनट प्रतिदिन राजकोट गुजरात। दिल्ली में नगरवासियों को केवल कुछ घंटे प्रतिदिन जल मिल पाता है कारण वितरण प्रणाली का प्रबंधन दोषपूर्ण है। परिणाम यह होता है कि प्रदूषित जल लोगों को पीना पड़ जाता है और गरीब लोगों को विशेषकर।

भारत की राष्ट्रीय जलनीति


भारत में जल का प्रभावकारी सटीक उपयोग दो उद्देश्यों से आवश्यक है। एक तो सामाजिक आर्थिक विकास और दूसरा पर्यावरण संरक्षण। इस दृष्टि से भारत सरकार ने राष्ट्रीय जलनीति का पुन: मूल्यांकन और निर्धारण 2002 में किया। इसमें स्पष्ट बताया गया कि चूँकि भारत 21वीं सदी में प्रवेश कर चुका है तो इस महत्त्वपूर्ण संसाधन को विकसित, संरक्षित, उपयोगी और प्रबंध के प्रभावकारी ढंग से क्रियान्वित करने की कोशिश की जाए जो निर्बाधित हो और राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य से निर्देशित हो। भारत की समस्त जनसंख्या, चाहे वह शहर या गाँव में हो, इस नीति द्वारा जो मुद्दे उठाये गए, उनमें सिंचाई व्यवस्था, पुनर्स्थापन, बहाली, जल गुणवत्ता का नियंत्रण, जल का एकत्रण, सूचना तंत्र, वॉटर शेड प्रबंधन, पेयजल की उपलब्धता आवश्यक हैं।

संसार में जल की स्थिति


पृथ्वी पर जल का अनुमान 1.4 BCM जिसमें से केवल 1 प्रतिशत जल चक्र में प्रविष्ट होता है जो वर्षा या बर्फ वृष्टि से, मिट्टी से इनफिल्ट्रेट होकर नदियों द्वारा समुद्र में और पुन: वाष्पीकरण हो जाता है। पृथ्वी के समस्त का केवल 2.5 प्रतिशत शुद्ध जल है और इसमें से भी 0.5 प्रतिशत सीधे उपयोग में और बाकी बर्फ और हिम नदियों में इकट्ठा रहता है। तात्पर्य यह है कि 1 प्रतिशत पृथ्वी के शुद्ध जल का केवल 3/10 भाग नदियों, झीलों में जल के मुख्य श्रोत के रूप में प्राप्त है। यह श्रोत मानव इतिहास से चला आ रहा है। जो भी हो एक करोड़ से ऊपर जनता को अपनी आधारभूत आवश्यकता पूर्ति हेतु पूरा जल नहीं मिलता। संसार के 27 देशों में जलाभाव और 16 देशों में जल की कमी पाई जा रही है। संसार में जनसंख्या द्वारा रहन-सहन के बढ़ाव द्वारा जल की माँग बढ़ती जा रही है और ये चिंता का विषय है।

भारत का जल बजट और अवरोध


जैसाकि ज्ञात है कि भारत एक विशाल देश है जो संसार की 1/6 जनसंख्या वाला, 1/50वाँ जमीन संसार की होते हुए और संसार के जल संसाधनों का 1/25वाँ भाग समेटे हुए है। देश में होने वाली वर्षा एवं हिमपात से प्राप्त जल लगभग 400 सेमी. प्रति वर्ष है। जिसमें इसका 60 प्रतिशत सतही जल के रूप में और कुछ प्रतिशत भूजल के रूप अर्थात भारत में वर्षा का 28.3 प्रतिशत जल ही उपयोगी है। कुछ बड़ी नदियों का जलग्रहण क्षेत्र जिसका केवल 3.33 प्रतिशत जल उपयोगी है। बढ़ती हुई जनसंख्या का उपयोग सन 1997-98 में केवल 57.8 प्रतिशत जल उपयोगी रहा और 53.2 प्रतिशत भूगर्भ जल उपयोगी रहा।

जलदूसरी समस्या बढ़ते हुए शहरीकरण की पानी की समस्या है। जो अनुमानत: 2050 में वर्तमान आवश्यकता से दूनी हो जाएगी। भारत की 20 बड़ी नदियों के जल क्षेत्रों से 6 नदियों का जल क्षेत्र पानी की कमी वाला है। जिसमें बड़ी तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनिसेफ और WWF के रिपोर्टर के अनुसार भारत के गुण और मात्रा की दृष्टि से जल संसाधन की कमी का कारण जल प्रदूषण, जल संसाधन का गलत प्रबंधन और जल के उपयोग का गलत विधामन एवं नियमन है।

अक्षुण्ण विकास की अवधारणा विकास योजनाओं का मुख्य भाग पर्यावरण संरक्षण और दृढ़ संसाधन प्रबंधन है। साथ ही जनता की वर्तमान आवश्यकताएँ और भविष्य में प्रकृति से प्राप्त होने वाला संसाधन निर्बाध विकास का आधार है। निर्बाध विकास का मुख्य प्रकाश पृथ्वी के नागरिकों का प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग बिना बढ़ाए हुए अर्थात पर्यावरण की क्षमता से अधिक आपूर्ति अनिश्चित होना है। बहुत बड़ी आधार वाली विकास योजना जोकि तरह-तरह की जल की आवश्यकता की पूर्ति करे। और उन आवश्यकताओं का ठीक-ठीक विभाजन निर्बाध कहलाता है।

जल का निर्बाध विकास


यह एक भ्रान्ति है कि जल असीमित मात्रा में स्वतंत्र रूप से प्राप्त है। वास्तविकता यह है कि इसका एक सीमाबद्ध संसाधन कार्य निर्बाध विकास के लिये अवसर चाहता है। निर्बाधता प्राकृतिक संसाधन संरक्षण एवं पर्यावरण द्वारा निरंतर विकास में आवश्यक है। कभी-कभी जल की आवश्यकता और उपलब्धता में ताल-मेल न बैठने से कमी हो जाती है। अपने जल साधनों को बचाने के लिये विशेषकर आगे की पीढ़ी के लिये हमको अपना विकास बिना कम किए करना पड़ेगा। साथ ही जल का प्रदूषण को भी ध्यान में रखना पड़ेगा।

निर्बाध जल संसाधन प्रबंधन के मुद्दे


जल की कमी अनवरत विकास का बड़ा सबब है। इस ज्वलंत समस्या के निवारण हेतु कई उपाय मिले है। इन उपायों में समन्वित जल संसाधन प्रबंधन, वर्षाजल का उपयोग, अनुपयोगी जल का पुनर्भरण, जल की नुकसान की कमी, भूजल का विकास एवं प्रबंधन, जल क्षेत्रों में आपसी जल का स्थानांतरण, पर्यावरणीय बहाव की आवश्यकता, जल की गुणवत्ता और स्वास्थ्य, सामुदायिक सहभागिता क्षमता का निर्माण तथा प्रबंधन का आंकड़ों पर मुख्य नियामक हैं। समन्वित जल संसाधन एक क्रिया है जो विकास संयोजन एवं प्रबंधन, भूमि का और संबंधित संसाधनों का जो समाज कल्याण और आर्थिक कल्याण ऐसा करें कि मुख्य पारिस्थितिक प्रणाली को बचाए रखने के लिये तीन प्रकार से समझा जा सकता है-

1. जल के विभिन्न आयामों का सुनियोजित विकास अर्थात सतही और भूजल का गुणवत्ता और मात्रा दोनों का संयोजन।

2. जल और भूमि एवं पर्यावरण के मध्य समस्या इस दृष्टि से कि किसी एक संसाधन में बदलाव दूसरे को प्रभावित कर सकता है।

3. जल को भूमि संसाधन का आपसी संबंध साथ ही सामाजिक और आर्थिक विकास जल प्रबंधन के लिये इन्हीं संदर्भों में हस्तक्षेप आवश्यक है।

इस समन्वय के लिये सर्वप्रथम जल क्षेत्र के अंदर अन्य क्षेत्रों को समझने की जरूरत है। इसके लिये आवश्यक है जल संसाधनों की प्राप्ति, जल प्रदूषण, भूजल प्रबंधन, सिंचाई के संसाधनों का प्रबंधन, जल का राज्यों के आपसी विवाद तथा नदी का संरक्षण और प्रबंधन। इन सबके लिये जल का प्रारंभिकतौर पर निर्धारण का संकल्प, पेयजल संरक्षण, जल का अन्य उपयोग जैसे-सिंचाई और उद्योगों में, बाढ़ सूखा आपदा प्रबंधन, जल के उपयोगियों की भागीदारी जो आपस में तथा राज्यों के बीच हो या केंद्र और राज्यों के बीच हो।

जल का धारणीय प्रबंधन का समन्वित विकास के लिये पूर्णरूप से लचीला करना होगा। जहाँ पर वाटर शेड डब्ल्यू आर एम की एक इकाई है और भूजल तथा सतही जल आपस में जुड़े हैं और भू उपयोग और प्रबंधन से संबंधित हैं। वहीं वाटर शेड प्रबंधन का उद्देश्य एक समन्वित उपयोग करना होता है।

वर्षा जल संवलन


अनेक क्षेत्रों में भूजल के उपयोग द्वारा इसका स्तर गिरता है और पुनर्भरण की आवश्यकता होती है वहाँ वर्षाजल संवलन एक अच्छा हल है। इसकी प्रविधि अनेक प्रकार की है और इससे बाढ़ का भी नियंत्रण होता है।

अवजल का पुन: उपयोग


अवजल दो प्रकार का होता है। 1. श्याम जल जो प्रसाधन उच्छिष्टों से मिला हो और उसे साफ करने के लिये रासायनिक प्रक्रिया अपनानी पड़ती है। 2. ग्रे-वाटर जोकि घरेलू बेसिन, टोटी, आदि से गिरता है जिसकी शुद्धिकरण सरल होता है और शुद्धजल घरेलू काम में आ सकता है।

जल उपयोग प्रक्रिया में निम्नलिखित बातों का ध्यान आवश्यक है-

1. वाष्पन वाष्पोत्सर्जन- हानि जो 42 प्रतिशत होती है।

2. शुद्ध जल का अत्यधिक फैलाव।

3. सिंचाई में जल का सीपेज लॉसेस, जो 45 प्रतिशत तक होता है और कृषि में अत्यधिक मात्रा में 15 प्रतिशत की हानि होती है।

4. उद्योगों में जल उपयोग का खर्च विकसित देशों के खर्च से बहुत अधिक होता है।

5. भूजल संसाधन का महत्त्व विशेष है कि 50 प्रतिशत समस्त सींचित क्षेत्र भूजल पर निर्भर है। चूँकि भूजल अपने उपयोग के स्थान पर इस देश में ज्यादातर पाया जाता है, अत: इसकी उत्पादकता सतही जल से बहुत अधिक है। परन्तु इसका अंधाधुंध उपयोग जोकि पुनर्भरण से अधिक है। हमारे घरों तथा औद्योगिक संस्थाओं में कमी कर रहा है। समुद्र के किनारे शुद्ध जल का अत्यधिक उपयोग शुद्ध जल को प्रदूषित कर रहा है।

कृषि रसायनों के उपयोग द्वारा भूजल आर्सेनिक नाइट्रेट सल्फर और क्लोराइड द्वारा प्रदूषित कर रहा है। सभी विवशताओं को दूर करने के लिये उपायों में- 1. इंटर बेसिन वाटर ट्रांसफर की योजना बहुत कारगर होगी। 2. बढ़ती जनसंख्या को जल की आपूर्ति नदियों और भूजल द्वारा नियंत्रित करनी होगी। नदियों द्वारा समुद्र में मिलने वाला जल का थोड़ा हिस्सा उपयोग में लेना चाहिए। 3. सामुदायिक सहभागिता जो स्थानीय एवं क्षेत्रीय स्तर पर की जाए, विशेषकर जल का प्रबंधन और पर्यावरण संरक्षण के उद्देश्य से हो। 4. जनता में जल के उपयोग में एकरूपता हो।

सारांश - निर्बाध विकास हेतु जल संसाधन का प्रभावी प्रबंधन आवश्यक है और इसके लिये जल का उपयोग तथा जनसंख्या का विकास में सामंजस्य रखा जावे। जल का महत्त्व मनुष्य और पशु जीवन की दृष्टि से आर्थिक और विकास की प्रक्रियाओं में पारिस्थितिक संतुलन रखना पड़ेगा। शुद्ध जल के गुणों को बनाए रखने की आवश्यकता है अगर हम इसको बनाए रखने का संकल्प ले लें।

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