निर्भर नहीं, आत्मनिर्भर !

27 Dec 2009
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सामाजिक पुनरुत्थान का काम करने वालों या लोक सेवकों के बगैर नरेगा को एक ऐसी योजना में तब्दील करना मुश्किल है, जहां मांग के अनुरूप कार्य हो। वरना अभी जो ऊपर से थोपी गई कार्यप्रणाली चल रही है, वही बिना किसी जांच-परख के चलती रहेगी। पंचायत राज संस्थाओं को तकनीकी रूप से मजबूत बनाए बगैर ठेकेदारों को पिछले दरवाजे से घुसने से रोका नहीं जा सकेगा।राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (नरेगा) क्रांतिकारी जनपक्षधर विकास कार्यक्रमों का वायदा करती है। ग्राम सभा और ग्राम पंचायतों द्वारा उसकी योजना, क्रियान्वयन और जांच-परख से हजारों स्थायी रोजगार पैदा हो सकते हैं। लेकिन नरेगा की लड़ाई बरसों से चले आ रहे एक बुरे अतीत के साथ है। पिछले साठ सालों से ग्रामीण विकास की योजनाएं राज्य की इच्छा और सदाशयता पर ही निर्भर रही हैं। श्रमिकों को दरकिनार करने वाली मशीनों और ठेकेदारों को काम पर लगाते हुए इन योजनाओं को ऊपर से नीचे के क्रम में लागू किया गया, जो बुनियादी मानवाधिकारों का भी उल्लंघन था।

इन सबको बदलने के लिए ही नरेगा की शुरुआत हुई और इसमें कोई शक नहीं है कि नरेगा के वायदों ने भारत के गांवों में रहने वाले निर्धन लोगों के हृदय और दिमागों को बहुत सारी उम्मीद और अपेक्षाओं से रोशन किया है। लेकिन इस योजना के शुरू के तीन वर्षो से यह भी साफ हुआ है कि यह कई सारी कमजोरियों की शिकार है - वेतन के भुगतान में घालमेल और देरी, न्यूनतम वैधानिक वेतन का भुगतान न होना, प्रतिवर्ष 100 दिन काम के वायदे के उलट सिर्फ 50 दिन काम मिलना, जाली हाजिरी रजिस्टर, बहुत कम स्थायी संसाधन और उससे भी कम स्थायी रोजगार।

नरेगा जिन स्वप्नों को पूरा नहीं कर पाया, उन्हें समझने के लिए यह जानना होगा कि वह कहां-कहां असफल हुआ। ताकि फिर से अतीत की उन कमजोरियों और गलतियों को न दोहराया जाए। विशेष रूप से नरेगा को नया स्वरूप प्रदान करने के लिए सात महत्वपूर्ण बिंदुओं पर गौर करना बहुत जरूरी है। पहला - पंचायत राज संस्थाओं को सभी आवश्यक तकनीकी और मानवीय संसाधन मुहैया करवाकर उन्हें और मजबूत बनाया जाए ताकि योजनाओं को नीचे से ऊपर की तरफ प्रभावी ढंग से लागू किया जा सके।

सामाजिक पुनरुत्थान का काम करने वालों या लोक सेवकों के बगैर नरेगा को एक ऐसी योजना में तब्दील करना मुश्किल है, जहां मांग के अनुरूप कार्य हो। वरना अभी जो ऊपर से थोपी गई कार्यप्रणाली चल रही है, वही बिना किसी जांच-परख के चलती रहेगी। पंचायत राज संस्थाओं को तकनीकी रूप से मजबूत बनाए बगैर ठेकेदारों को पिछले दरवाजे से घुसने से रोका नहीं जा सकेगा।

दूसरा कृषि की उत्पादकता में बढ़ोतरी करने और उससे स्थायी रोजगार पैदा करने पर नए सिरे से ध्यान दिया जाना चाहिए। हमें यह समझना होगा कि नरेगा अतीत की दूसरी मामूली राहत देने वाली और कल्याणकारी योजनाओं की तरह नहीं है। इसका मकसद सिर्फ दुखी व निर्धन लोगों को पैसे भर दे देना नहीं है, बल्कि इसका मकसद है लोगों के लिए आजीविका के स्थायी संसाधन और रोजगार पैदा करना ताकि धीरे-धीरे नरेगा पर लोगों की निर्भरता कम होती जाए।

भारत में पूरी तरह कृषि पर जीवन यापन करने वाले परिवारों की संख्या, जिनके पास अपनी खुद की जमीनें हैं, राजस्थान और मध्य प्रदेश में तकरीबन ५क् प्रतिशत, ओडिसा और उत्तर प्रदेश में 60 प्रतिशत और छत्तीसगढ़ और झारखंड में 70 प्रतिशत है। और अगर हम आदिवासियों की बात करें तो यह संख्या छत्तीसगढ़, झारखंड और राजस्थान में 76-87 प्रतिशत तक हो जाती है। लाखों छोटे और हाशिए पर पड़े हुए किसान नरेगा के अंतर्गत काम करने के लिए मजबूर हैं, क्योंकि उनकी अपनी जमीनों पर बहुत कम अनाज पैदा होता है, जिससे उनकी जरूरतें पूरी नहीं हो पातीं। अगर नरेगा इन जमीनों की उत्पादकता को फिर से बढ़ाने के लिए काम करे और वे किसान वापस अपनी खेती के काम में लौट सकें तो नरेगा की स्थिति काफी मजबूत होगी। इससे नरेगा पर बोझ भी कम होगा।

नरेगा के माध्यम से जमीनों पर संसाधन जुटाए जाएं तो इससे कृषि में तेजी आएगी। यह तीसरा महत्वपूर्ण बिंदु है, जिस पर ध्यान देना चाहिए। इससे भारत के 80 प्रतिशत गरीब किसानों को मदद मिलेगी। नरेगा में सौ दिन काम की गारंटी है और इस संख्या को बढ़ाने की मांग की जा रही है। इस मांग को देखते हुए नरेगा का विस्तार छोटी और उपेक्षित कृषि भूमि के विकास तक किया जाना चाहिए। इससे भारतीय कृषि का चेहरा बदल जाएगा। ऐसी आशंका है कि यदि गरीब किसानों की जमीन पर काम की अनुमति दी जाएगी तो गांव के अमीर और ताकतवर किसान इसका फायदा उठाएंगे। यह डर बहुत स्वाभाविक है, लेकिन यही वह चौथा महत्वपूर्ण बिंदु है, जिस पर नरेगा को ध्यान देना चाहिए - समाज की ज्यादा कठोर व तीक्ष्ण नजर और जांच-परख।

नरेगा में पांचवें जिस महत्वपूर्ण बिंदु पर ध्यान देने की जरूरत है, वह है सूचना तकनीक का ज्यादा से ज्यादा रचनात्मक इस्तेमाल। यह तकनीक जांच-परख की प्रक्रिया को ज्यादा मजबूत और कठोर बनाएगी और इससे किसी तरह की धांधली और घालमेल की संभावनाएं कम होंगी। जैसे कि हर कोने से कंप्यूटर जुड़ा हुआ होना चाहिए, ताकि कंप्यूटर में दर्ज किए गए काम को हर जगह देखा जा सके। अगर कहीं, किसी भी चरण में देर हो रही है तो उसे तुरंत पकड़ा और सुधारा जा सके। निचले स्तर से लेकर मुख्य कार्यालय तक सारी जानकारी ऑनलाइन हो तथा ये वेबसाइट पर भी उपलब्ध हो। वेबसाइट पर यह जानकारी मुफ्त में उपलब्ध होने के कारण आम लोगों के द्वारा पर उसकी जांच-परख संभव होगी।

छठा महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि नरेगा की मजदूरी दर में सुधार किया जाना चाहिए। प्रतिदिन १क्क् रुपए की दर से मजदूरी देने का वायदा कभी पूरा नहीं हो पाएगा, यदि हम उसी प्राचीन कालीन मजदूरी की दर से चिपके रहेंगे, जो ‘ठेकेदार मशीन राज’ के समय की जरूरतों को पूरा करती थी। उसी मजदूरी दर के हिसाब से चलें तो मजदूरों को बहुत कम पैसा मिलेगा, खासतौर से महिलाओं को। हमें ऐसी मजदूरी दर की आवश्यकता है, जो लिंग, पारिस्थितिकी और श्रमिक की क्षमताओं के अनुरूप मजदूरी का निर्धारण करे।

उसमें समय-समय पर सुधार भी हों, वरना श्रमिकों को कम मजदूरी मिलने की शिकायत कभी दूर नहीं होगी। सातवां महत्वपूर्ण बिंदु नागरिक समाज की भूमिका से संबंधित है। भले जमीनी स्तर के सक्रिय कार्यकर्ताओं द्वारा पंचायतों को मजबूर करना हो, एनजीओ द्वारा पंचायतों को नरेगा की योजनाओं और क्रियान्वयन में सहयोग करना हो या अकादमिक संस्थाओं और नागरिकों की भूमिका हो, प्रत्येक स्तर पर नरेगा को मजबूत करने के लिए नागरिक समाजों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है।

ये बातें नरेगा की अवधारणा के पीछे रही हैं। अब नए सिरे से इन पर विचार करने से यह होगा कि इन पर ज्यादा बल दिया जाएगा और इन्हें पूरा करने के लिए नए सिरे से योजनाएं बनाई जाएंगी। यह अच्छा ही है कि ग्रामीण विकास मंत्रालय इस विषय पर पुन: विस्तार से विचार-विमर्श कर रहा है।

लेखक योजना आयोग के सदस्य हैं।

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