निर्धनता निवारण और सामाजिक भागीदारी

13 Nov 2015
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भारत में स्वाधीनता के पश्चात से ही निर्धनता एक गम्भीर समस्या बनी हुई है क्योंकि गरीबों की संख्या निरन्तर बढ़ रही है। योजना आयोग के अनुसार वर्ष 1994-95 में देश की 39.6 प्रतिशत आबादी गरीबी-रेखा से नीचे थी। देश में अपार धनराशि के खर्च से चलाई जा रही विभिन्न परियोजनाएँ निर्धनता निवारण में लगभग असफल रही हैं जिसके कई कारण रहे हैं। प्रस्तुत लेख में लेखक ने निर्धनता निवारण के लिये अब तक किये गये शासकीय उपायों सहित उनकी खामियों को उजागर किया है और साथ ही कुछ सुझाव दिये हैं।

निर्धनता एक विश्वव्यापी समस्या है यद्यपि विकासशील देशों में निर्धनता अधिक गम्भीर समस्या है लेकिन विकसित देशों में भी निर्धनता है। न्यूयार्क विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र प्राध्यापक सुश्री एडवर्ड वुल्फ के अनुसार विकसित देशों की दृष्टि से सम्पत्ति और आय की असमानताएँ संयुक्त राज्य अमेरिका में सर्वाधिक हैं जहाँ 1995 में सर्वाधिक धनी 20 प्रतिशत जनसंख्या की प्रति व्यक्ति वार्षिक आय 55,000 डाॅलर और सर्वाधिक निर्धन 20 प्रतिशत जनसंख्या की प्रति व्यक्ति वार्षिक आय 5000 डॉलर थी। वर्ष 1991 में संयुक्त राज्य अमेरिका में 3 करोड़ 57 लाख व्यक्ति गरीबी रेखा से नीचे थे और 10 प्रतिशत जनसंख्या से अधिक आबादी आज गरीबी रेखा से नीचे है।

भारत में स्वाधीनता के बाद से ही निर्धनता गम्भीर समस्या बनी हुई है क्योंकि इनकी संख्या निरन्तर बढ़ रही है। योजना आयोग के विशेषज्ञ दल के अनुसार 1994-95 में देश की 39.6 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे थी। यह एक विडम्बना है कि स्वाधीनता के समय की भारत की जनसंख्या से अधिक आबादी आज गरीबी रेखा से नीचे है।

शासकीय उपाय


नियोजित आर्थिक विकास के प्रारम्भिक वर्षों में गरीबी निवारण की कोई पृथक नीति लागू नहीं की गई क्योंकि सरकार और योजना आयोग का दृष्टिकोण था कि विकास-दर में वृद्धि के लाभ रिसकर अन्ततः गरीबों तक पहुँच जाएँगे और गरीबी खत्म हो जायेगी। छठी पंचवर्षीय योजना के प्रारूप में यह स्पष्ट स्वीकार किया गया कि देश में गरीबी का विस्तार बहुत अधिक था अर्थात विकास के प्रतिफल रिसाव-सिद्धान्त के अनुरूप गरीबों तक नहीं पहुँचे। इसलिये आठवें दशक में निर्धनता निवारण हेतु ग्रामीण विकास और रोजगार के अनेक विशिष्ट कार्यक्रम लागू किये गये। इनमें समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम और जवाहर रोजगार योजना प्रमुख हैं। इन कार्यक्रमों पर योजनागत व्यय में निरन्तर वृद्धि के बावजूद गरीबों की संख्या में कोई कमी नहीं आई है। ग्रामीण क्षेत्र एवं रोजगार मन्त्रालय के अनुसार ग्रामीण निर्धनता एवं बेरोजगारी उन्मूलन की लगभग 18 परियोजनाएँ लागू होने के बावजूद 1996 में 21 करोड़ ग्रामीण गरीबी रेखा से नीचे थे।

यह कहना गलत न होगा कि अपार धनराशि से चलाई जा रही विभिन्न परियोजनाएँ निर्धनता निवारण में लगभग असफल रही हैं। परियोजनाओं का दोषपूर्ण निर्माण और क्रियान्वयन बढ़ता प्रशासनिक व्यय, गलत हितग्राहियों का चयन, सामाजिक जागरुकता, का अभाव और भ्रष्टाचार इन कार्यक्रमों की असफलता के प्रमुख कारण रहे हैं। शासकीय स्तर पर इन परियोजनाओं की असफलता को स्वीकार करते हुये भूतपूर्व प्रधानमन्त्री स्वर्गीय राजीव गाँधी ने झुंझनु, राजस्थान के ग्राम अराभट्ट में आयोजित आमसभा में कहा था कि गरीबों के कल्याण पर व्यय किये जाने वाले 100 रुपये में से केवल 15 रुपये ही गरीबों तक पहुँचते हैं और शेष राशि प्रशासनिक व्यय, मध्यस्थों की दलाली और सामाजिक शोषण को बढ़ावा देने वाली व्यवस्था पर व्यय हो जाती है। उन्होंने आशा व्यक्त की थी कि पंचायती राज की स्थापना इन दोषों को समाप्त करने में सफल होगी।

यह खेदजनक है कि पंचायती राज इन दोषों को समाप्त करने में असफल रहा है क्योंकि न केवल पंचायतों के वित्तीय संसाधन कम हैं बल्कि निर्धनता परियोजनाओं के निर्माण की तकनीकी विशेषज्ञता भी उनके पास नहीं है। इतना ही नहीं, पंचायतों पर धनी किसानों का नियन्त्रण है जो सामाजिक असमानताओं को प्रोत्साहित करते हैं। पंचायतें भी भ्रष्टाचार की बुराई से मुक्त नहीं हैं। स्वर्गीय राजीव गाँधी के निष्कर्षों की पुष्टि कर्नाटक में 1996 में आर्थिक एवं सांख्यिकी संचालनालय, बंगलौर द्वारा किये गये एक अध्ययन से भी होती है जिसमें कहा गया था कि सामाजिक कल्याण पर व्यय किये गये प्रत्येक रुपये में से केवल 13 पैसे ही सामान्य जन (निर्धन) तक पहुँच पाते हैं।

सामाजिक भागीदारी


यह एक अजीब विरोधाभास है कि जहाँ निर्धनता निवारण का विशाल और बहुआयामी शासकीय आयोजन असफल-सा रहा है वहीं अशासकीय स्तर पर चल रहे अनेक व्यक्तिगत या संस्थागत प्रयासों को उनकी सीमित संसाधनों और अल्प-तकनीकी विशेषज्ञता के बावजूद इस दिशा में आशातीत सफलता मिली है। ऐसे कुछ प्रयासों का उल्लेख यहाँ अप्रासंगिक न होगा।

भोरूका चैरिटेबल ट्रस्ट: राजस्थान के चुरू जिले की राजगढ़ तहसील के भोरू ग्रामवासी पी.डी. अग्रवाल द्वारा 1962 में स्थापित भोरूका चैरिटेबल ट्रस्ट ग्रामीण विकास के अनेक कार्यक्रम चला रहा है। इन कार्यक्रमों में रेगिस्तान विकास योजना, जलापूर्ति, यातायात, स्वास्थ्य, पशुपालन, समेकित बाल विकास योजना, शिक्षा, कम लागत वाले मकानों का निर्माण, जल और भू-रक्षण और सामाजिक वानिकी प्रमुख हैं। ऐसे कुछ कार्यक्रम सरकारी अनुदान और जन सहयोग तथा ग्रामीण प्रौद्योगिकी विकास परिषद (कपार्ट) के सहयोग से चलाये जा रहे हैं। राजस्थान सरकार और जर्मन बैंक आॅफ डेवलपमेंट द्वारा 3 जिलों-चूरू, झुंझनु और श्रीगंगानगर में प्रारम्भ किये गये ग्रामीण विकास के अन्य कार्यक्रमों में भी इस ट्रस्ट का सहयोग लिया गया है।

जलग्रहण क्षेत्र विकास योजना:
समाजसेवी अन्ना हजारे द्वारा लगभग 20 वर्ष पूर्व शुरू की गई जलग्रहण क्षेत्र विकास योजना ने महाराष्ट्र के सूखाग्रस्त ग्राम रालेगाँव सिद्धी की प्राकृतिक दशा के साथ सामाजिक-आर्थिक तस्वीर ही बदल दी है। आज रालेगाँव सिद्धी में 100 निजी और 14 सामुदायिक कुएँ हैं। परिणामतः इस सूखाग्रस्त क्षेत्र में सिंचित क्षेत्र 72 एकड़ से बढ़कर 12,000 एकड़ हो गया है और रालेगाँव सिद्धी तथा समीपस्थ ग्रामों के निवासियों की आर्थिक स्थिति में आश्चर्यजनक सुधार हुआ है भूमि संरक्षण विभाग और जनसहयोग तथा ग्रामीण प्रौद्योगिकी परिषद (कपार्ट) के सहयोग से जारी इस योजना के साथ ही अन्ना हजारे द्वारा प्रारम्भ की गई आवास, शिक्षा, आदि अन्य परियोजनाओं ने जातीय भेदभाव एवं मद्यपान आदि सामाजिक समस्याओं के उन्मूलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। रालेगाँव सिद्धी की जलग्रहण क्षेत्र विकास योजना की सफलता से प्रेरित होकर मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल जिले झाबुआ में राजीव गाँधी मिशन के अन्तर्गत 4 वर्ष पूर्व जलग्रहण क्षेत्र विकास योजना प्रारम्भ की गई जिसके परिणामस्वरूप झाबुआ जिले के निवासियों की आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ है।

दीनदयाल शोध संस्थान: दीनदयाल शोध संस्थान के संस्थापक समाजसेवी राजनेता नानाजी देशमुख ने उत्तर प्रदेश में 1978 में गोंडा जिले में गोंडा ग्रामोदय प्रकल्प प्रारम्भ किया जिसके अन्तर्गत जिले के 2001 ग्रामों में किसानों द्वारा निजी प्रयासों से 2 वर्षों में 27,516 नलकूप लगाये गये और समग्र ग्रामीण विकास की अन्य परियोजनाएँ प्रारम्भ की गईं। इन परियोजनाओं की सफलताओं से प्रेरित होकर दीनदयाल शोध संस्थान द्वारा चित्रकूट (म.प्र) बिरसा ग्राम (बिहार) और महाराष्ट्र के नागपुर तथा बीड़ जिलों में भी शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास आदि से सम्बन्धित समग्र ग्रामीण विकास योजनाएँ प्रारम्भ की गईं।

सोसायटी फार एजुकेशनल एंड एम्प्लॉयमेंट डेवलपमेंट: केनरा बैंक में कार्यरत अरसनगुडी रामास्वामी पालनीसामी द्वारा श्रीपेरूंबुदूर, तमिलनाडु में 1982 में स्थापित समाजसेवी संस्था सीड (सोसायटी फाॅर एजुकेशनल एंड एम्प्लाॉयमेंट डेवलपमेंट) तमिलनाडु के जेलों में आजीवन कारावास की सजा भोग रहे कैदियों के बेसहारा 260 बच्चों को आवास, भोजन और व्यावहारिक प्रशिक्षण उपलब्ध करती है। व्यावसायिक प्रशिक्षण हेतु सीड ने 1997 में तमिलनाडु सरकार की अनुमति और आर्थिक अनुदान से औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान (आई.टी.आई.) की स्थापना की है।

लिटिल फ्लावर लेप्रोसी वेल्फेयर एसोसिएशन 1982: केरलवासी 62 वर्षीय क्राइस्ट दास द्वारा बिहार के मोतीहारी जिले में स्थित सुंदरपुर ग्राम में कुष्ठरोगियों हेतु 1982 में स्थापित यह समाजसेवी संस्था सुंदरपुर में कुष्ठरोग अस्पताल, माध्यमिक स्कूल डेयरी, सामुदायिक बायोगैस संयंत्र और एक फार्म हाउस का संचालन करती है। कुष्ठ रोगियों हेतु इस संस्था द्वारा 450 मकानों का निर्माण किया गया है। सुंदरपुर डेयरी प्रतिदिन 150 लीटर दूध बेचती है। टस्सर रिसर्च एंड ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट, राँची की सहायता से प्रशिक्षित इस संस्था के 300 कुष्ठरोगी चरखों और हथकरघों से 25 लाख रुपये मूल्य का कपड़ा बना चुके हैं।

एग्रेरियन असिस्टेंस एसोसिएशन: इस संस्था द्वारा दक्षिण बिहार में स्थित मुर्गाबानी ग्राम में अनुसूचित जाति और जनजातियों की स्त्रियों के सहयोग से वन संरक्षण और बंजरभूमि विकास कार्यक्रमों के साथ सिंचाई सुविधाओं के विस्तार का कार्य प्रारम्भ किया गया है। संस्था द्वारा 5 हॉर्सपावर वाले 2 नलकूप लगाये गये हैं, कुँओं और तालाबों का निर्माण किया गया है। एक महिला साख समिति की स्थापना भी की गई है। परिणामतः इस क्षेत्र में कृषि उत्पादकता बढ़ने के साथ ही इन पिछड़े परिवारों की साहूकारों पर निर्भरता कम हुई है। इस क्षेत्र में भूमिहीन श्रमिकों का बंगाल, असम, पंजाब आदि प्रदेशों में पलायन लगभग समाप्त हो गया है।

प्रदान (प्रोफेशनल असिसटेंट फॉर डेवलपमेंट एक्शन): अशासकीय संस्था ‘प्रदान’ द्वारा बिहार के हजारीबाग जिले के 2 दर्जन ग्रामों में स्थापित लघु सिंचाई योजनाओं का संचालन इन ग्रामों की अनुसूचित और पिछड़ी जातियों की अशिक्षित महिलाओं द्वारा किया जाता है। इस उद्देश्य हेतु इन महिलाओं ने सिंचाई समितियों की स्थापना की है और बैंकों में सिंचाई समितियों के नाम पर खाता खोला है। सभी सिंचाई समितियाँ लाभ अर्जित कर रही हैं जिसका उपयोग अन्य ग्रामीण कार्यों में हो रहा है।

निगम क्षेत्र


नोबेल पुरस्कार विजेता अमेरिकन अर्थशास्त्री मिल्टन फ्रीडमेन के अनुसार निगमों और उनके वरिष्ठ संचालकों/अधिकारियों द्वारा सामाजिक कल्याण कार्यों में प्रत्यक्ष और सक्रिय भाग लेने से उनकी अंशधारियों के हितों के प्रति निष्ठा प्रतिकूल ढंग से प्रभावित होगी। इसलिये समाजसेवी संस्थाओं को उनकी व्यक्तिगत आय का कुछ अंश दान करने के अतिरिक्त निगमों और उनके अधिकारियों के लिये अन्य कोई सामाजिक सेवा करना आवश्यक नहीं है। इसीलिये ग्रामीण विकास और निर्धनता निवारण प्रयासों में निगम क्षेत्र अथवा संगठित क्षेत्र की सक्रिय भागीदारी अत्यन्त सीमित है तथापि कुछ उद्योग समूहों ने भारत में इस दिशा में उल्लेखनीय कार्य किया है। टाटा समूह ग्रामीण विकास कार्यक्रमों पर प्रतिवर्ष लगभग 12 करोड़ रुपये व्यय करता है। टाटा स्टील रूरल डेवलपमेंट सोसायटी बिहार, उड़ीसा और मध्य प्रदेश के 600 ग्रामों में सामुदायिक विकास कार्यक्रम संचालित करती है। बिड़ला समूह के कारखाने भी समीपस्थ ग्रामों के विकास पर लगभग 9 करोड़ रुपये खर्च करते हैं। हिंद लीवर लिमिटेड, उत्तर प्रदेश के एटा जिले में 400 ग्रामों को गोद लेकर समेकित ग्रामीण विकास कार्यक्रम चला रहा है।

निर्धनता निवारण के उपरोक्त प्रयासों के परिप्रेक्ष्य में यह प्रश्न उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि व्यापक वित्तीय, प्रशासनिक और तकनीकी सुविधाओं और शक्तियों से सज्जित शासकीय परियोजनाओं की तुलना में सीमित पहुँच और संसाधन वाली अशासकीय परियोजनाओं को अधिक सफलता क्यों मिली है? गरीबी वस्तुतः एक सामाजिक समस्या है। निम्न आय-उपभोग स्तर पर सामाजिक समस्या का आर्थिक परिणाम मात्र है। यदि गरीबी केवल आर्थिक समस्या होती तो वह विकसित देशों में उत्पन्न ही न होती। सामंतवादी मनोवृत्तियाँ और सामाजिक व्यवस्था ही गरीबी को जन्म देती है। भारत सहित अनेक विकासशील देशों में सामाजिक आर्थिक संरचना सामंतवादी है जिसमें साधन और सुविधा-सम्पन्न वर्ग व्यक्तिगत और सामूहिक स्तर पर स्वयं को और अधिक सुविधा-सम्पन्न बनाने में जुटा रहता है। वह गरीबों, शोषितों और वंचितों को साधन और सुविधा-सम्पन्न बनाने हेतु स्वेच्छा से कोई प्रयास नहीं करता। निर्धनता निवारण की शासकीय परियोजनाएँ गरीबों के आर्थिक स्तर को उठाने का प्रयास तो करती हैं लेकिन संबद्ध प्रशासनिक मशीनरी (अधिकारी/कर्मचारी वर्ग) की मनोवृत्ति और विद्यमान सामंतवादी सामाजिक ढाँचे को बदलने में असफल रहती हैं इसीलिये गरीबी उन्मूलन का शासकीय आयोजन एक शासकीय कर्तव्य मात्र बनकर रह जाता है। शासकीय ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारंटी कार्यक्रम और रोजगार निश्चय योजना बेरोजगारों को अस्थायी तौर पर रोजगार तो उपलब्ध कराती है लेकिन उनकी उत्पादकता पर ध्यान नहीं देती। समन्वित ग्रामीण विकास योजना और 1992 से लागू ग्रामीण दस्तकारों को औजार किट प्रदान करने की योजना ग्रामीण बेरोजगारों को प्रशिक्षण और इन्पुट्स प्रदान करती है लेकिन बाजार और बिक्री की सुरक्षा पर ध्यान नहीं देती। शासकीय परियोजनाएँ बेरोजगारों को तत्काल रोजगार अथवा बाजार उपलब्ध कराने की गारंटी तो नहीं देती लेकिन उत्पादकता वृद्धि के स्थायी और दीर्घकालीन उपायों के माध्यम से निर्धनता की जड़ों पर प्रहार करती हैं। इसीलिये तकनीकी विशेषज्ञता और संसाधनों के बावजूद वे अपनी उद्देश्य में सफल हो जाती हैं। अपने उद्देश्य के प्रति समर्पित भावना और निर्धनों के प्रति सामाजिक संवेदनशीलता के कारण वे निर्धनों में आत्मविश्वास उत्पन्न करती हैं और साथ ही उनका विश्वास अर्जित करने में सफल रहती हैं इसीलिए इन अशासकीय प्रयासों की सफलता आर्थिक पक्ष तक सीमित नहीं है। सामाजिक समरसता उत्पन्न करने के साथ ही अशासकीय संस्थाओं को अशिक्षा, जातीय भेदभाव, मद्यपान आदि उन समस्याओं के उन्मूलन में भी सफलता मिली है। जो अप्रत्यक्षतः गरीबी को बढ़ाती हैं।

इन तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में यह कहना अनावश्यक है कि निर्धनता निवारण में सामाजिक भागीदारी प्रोत्साहित करने की दृष्टि से शासकीय परियोजनाओं के संचालन में अशासकीय संस्थाएँ शासकीय अनुदान की सहायता से निर्धनता निवारण परियोजनाएँ चला रही हैं। अशासकीय संस्था, प्रोफेशनल असिस्टेंस फॉर डेवलपमेंट एक्शन (प्रदान) बिहार के हजारीबाग जिले में लघु सिंचाई परियोजना का संचालन जिला ग्रामीण विकास अभिकरण द्वारा प्रदत्त वित्तीय अनुदान के बल पर ही कर रही है। शासकीय परियोजनाओं के माध्यम से प्रदान की जाने वाली आर्थिक सहायता के वितरण में अशसकीय संस्थाओं की सहायता लेकर इन परियोजनाओं से जुड़े भ्रष्टाचार को समाप्त किया जा सकता है। स्वयंसेवी संस्था ‘सेल्फ एम्प्लायड वीमेन्स एसोसिएशन’ की प्रत्यक्ष भागीदारी ने गुजरात में शासकीय राहत कार्यों में व्याप्त भ्रष्टाचार समाप्त कर दिया है। देश में जारी निर्धनता निवारण की समस्त शासकीय परियोजनाओं को सूचना के अधिकार के अधीन लाया जाए तो मध्यस्थों और दलालों पर नियंत्रण में सफलता मिल सकती है।

शासकीय और अशासकीय प्रयासों के अतिरिक्त मानवीय आचरण का एक आयाम और भी है जो निर्धनता सहित अनेक सामाजिक समस्याओं के समाधान में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है और यह आयाम है धर्म। भारत में अनेक धार्मिक संगठनों तथा ट्रस्टों को जन सहयोग अथवा दान स्वरूप पर्याप्त धनराशि निरन्तर मिलती रहती है। कुछ धार्मिक ट्रस्ट प्रसिद्ध धर्मस्थलों पर आवास और भोजन की सस्ती या निःशुल्क व्यवस्था के अतिरिक्त शिक्षा, चिकित्सा आदि जनोपयोगी सेवाएं भी संचालित करते हैं लेकिन ऐसे समाज कल्याण कार्य कुछ स्थानों, नगरों या क्षेत्रों में ही केन्द्रित हैं और समाज का बहुत छोटा अंश इनसे लाभान्वित होता है। किसी पिछड़े अथवा आदिवासी ग्रामीण क्षेत्र में किसी धार्मिक संगठन द्वारा सिंचाई, पेयजल आपूर्ति, आवास, स्वास्थ्य, सामाजिक वानिकी, यातायात आदि सुविधाओं के विस्तार द्वारा निर्धनता निवारण के उदाहरण-नगण्य ही हैं। यह भी सच है कि प्रभावशाली धर्मगुरुओं और धार्मिक संगठनों के आह्वान पर बड़ी धनराशि आसानी से जमा हो जाती है और विशाल जनशक्ति सामाजिक निर्माण कार्यों में निष्ठापूर्वक जुट जाती है। स्वाध्याय कार्यक्रम के प्रणेता और मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित समाजसेवी पांडुरंग शास्त्री आठवले ने धर्म में निहित सामाजिक ऊर्जा को सामाजिक कल्याण कार्यों की दिशा में मोड़ने का प्रशंसनीय कार्य किया है। यदि अन्य धर्मोपदेशक और धार्मिक संगठन भी धर्मशक्ति को सामाजिक-विकास के रचनात्मक कार्यों की ओर मोड़ने का प्रयास करें तो देश में व्याप्त निर्धनता और अन्य सामाजिक समस्याओं को काफी हद तक समाप्त किया जा सकता है।

(लेखक डी.एस. बैस शासकीय नर्मदा महाविद्यालय, होशंगाबाद (म.प्र.) में अर्थशास्त्र के प्राध्यापक है।)

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