निशीथ-यात्रा

24 Feb 2011
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जबलपुर के समीप भेड़ाघाट के पास नर्मदा के प्रवाह की रक्षा करने वाले संगमरमर के पहाड़ हम रात्रि के समय देख आयेंगे, यह खयाल शायद मध्यरात्रि के स्वप्न में भी न आता। किन्तु ‘सबिन्दु-सिंधु-सुस्खलत् तरंगभंग-रजिंतम्’ कहकर जिसका वर्णन हम किसी समय संध्या-वंदन के साथ गाते थे, उस शर्मदा नर्मदा के दर्शन करने के लिए यह एक सुन्दर काव्यमय स्थान होगा, ऐसी अस्पष्ट कल्पना मन के किसी कोने में पड़ी हुई थी।

हिमालय की यात्रा के समय मैं रास्ते में जबलपुर ठहरा था। किंतु उस समय भेड़ाघाट की नर्मदा का स्मरण तक नहीं हुआ था। गंगोत्री और उसके रास्ते में आने वाले श्रीनगर के चिंतन के सामने नर्मदा का स्मरण कैसे होता? नर्मदा-तट की गहनता के महादेव को छोड़कर मैं गंगोत्री की यात्रा के लिए चल पड़ा था।

फैजापुर कांग्रेस के समय हमने केवल अजंता जाने का सोचा था। किन्तु रेलवे कंपनी ने झोन टिकट निकाले, और हममें इधर-उधर अधिक घूमने की वृत्ति जगा दी। जबलपुर की यात्रा यदि मुफ्त में होती है, तो क्यों न हो आयें? – यों सोचकर हम चल पड़े। यह सच था कि हम किसी खास काम के लिए जबलपुर नहीं जा रहे थे; मगर एक दिन सिर्फ मौज करना है, ऐसी भी हमारी वृत्ति नहीं थी।

देश के अलग-अलग धार्मिक स्थल, ऐतिहासिक स्थान, कला-मंदिर और निसर्ग-रमणीय दृश्य देखने को मैंने कभी निरी नयन-तृप्ति नहीं माना है। मंदिर में जाकर जिस प्रकार हम देवता के दर्शन करते है, उसी प्रकार भूमाता की इन विविध विभूतियों के दर्शन के लिए मैं आया हूं, इसी भावना से मैंने अब तक की अपनी सारी यात्राएं की हैं। अपने देश की रग-रग की जानकारी मुझको होनी चाहिये और इस जानकारी के साथ-साथ भक्ति में भी वृद्धि होनी चाहिये, ऐसी मेरी अपेक्षा रहती है।

नौकाएं केवल दो ही थीं। इसलिए हम सब किसी एक बात पर एकमत हो जायं इससे लाभ नहीं था। लिहाजा हमने दो टोलियां बनायीं। यह स्थान संगमरमर की शिलाओं के लिए मशहूर था, इसलिए बड़ी टोली ने उस ओर जाना पसन्द किया। इसमें संदेह नहीं कि थोड़ा उजियाला जो बचा था उसी में यह स्थान देख लेने में अक्लमंदी थी। हमारी दूसरी टोली ने योगनियों का दर्शन करके धुवांधार जाने का निर्णय किया और हम सीढ़ियां चढ़ने लगे। सब योगिनियों के दर्शन हमने अपने हाथ की बिजली की एक छोटी-सी मशाल की मदद से किये। ज्यों-ज्यों मैं यात्रा करता हूं। और अभिमान तथा प्रेम से हृदय को भर देने वाले दृश्य देखता हूं, त्यों-त्यों एक चीज मुझे बेचैन किया ही करती हैः यह मेरा इतना सुन्दर और भव्य देश परतंत्र है, इसके लिए मैं जिम्मेदार हूं। पारतंत्र्य का लांछन लेकर मैं इस अद्भुत-रम्य देश की भक्ति भी किस प्रकार कर सकता हू? क्या मैं कह सकता हूं कि यह देश मेरा ही है। मैं देश का हूं इसमें तो कोई संदेह नहीं है; क्योंकि उसने मुझे पैदा किया है, वहीं मेरा पालन-पोषण अखंड रूप से कर रहा है; वहीं मुझे रहने के लिए स्थान, खाने के लिए अन्न और आराम के लिए आश्रय देता है; अपने बाल-बच्चों को मैं उसी के सहारे, निश्चिंत होकर छोड़ सकता हूं; जिस उज्ज्वल इतिहास के कारण मैं संसार में सिर ऊंचा करके चलता हूं, वह आर्यों का प्राचीन इतिहास भी इसी देश ने मुझे दिया है। इस प्रकार मैंने अपना सर्वस्व देश से ही पाया है। किन्तु यह देश मेरा है, यों कहने के लिए मैंने देश के लिए क्या किया है? मेरा जन्म हुआ उसके साथ ही मैं देश का बना; मगर यों कहने के पहले कि ‘यह देश मेरा है’ मुझे जिंदगी भर मेहनत करके इसके लिए खप जाना चाहिये।

मन में इस तरह के विचारों का आवर्त उठने पर मैं क्षण भर बेचैन हो जाता हूं, किन्तु ऐसी अस्वस्थता में से धर्मनिष्ठा पैदा होकर दृढ़ बनती है। इसी बेचैनी के कारण स्वराज्य का संकल्प बलवान होता है और देश के लिए देश में असह्य कष्ट उठाने वाले गरीबों के लिए यत्किंचित्त भी कष्ट सहने का जब मौका मिलता है, तब मुझे लगता है कि मैं उपकृत हुआ हूं। और ज्यों-ज्यों यात्रा करता रहता हूं, त्यों-त्यों मन में नयी शक्ति का संचार होने लगता है। युवकों से मैं हमेशा कहता आया हूं कि ‘स्वदेश में घूमकर देश के और देश के लोगों के दर्शन करने का तुम एक भी मौका मत छोड़ना।’

इस प्रकार की उत्कट भावना का उदय जब हृदय में होता है, तब ऐसा लगना स्वाभाविक है कि पास में कोई न हो तो अच्छा। अपनी नाजुक भावनाओं को शब्दों में लिखकर लोगों के सामने रखना उतना कठिन नहीं है। किन्तु इन भावनाओं से बेचैन होने पर हमारी जो विह्वल दशा हो जाती है और हम मतवाले बन जाते हैं, उसे कोई देखे यह हमें सहन नहीं होता। इसी कारण मैं जब-जब भक्ति यात्रा के लिए चल पड़ता हूं, तब-तब मुझे लगता है कि मैं अकेला ही जाऊं और एकांत में ही प्रकृति का अनुनय करूं तो अच्छा होगा।

किन्तु मेरी जाति है कौवे की। अकेले-अकेले सेवन किया हुआ कुछ भी मुझे हजम नहीं होता। इसलिए अनिच्छा से ही क्यों न हो, मैं सब लोगों से कह देता हूं: ‘मुझसे अब रहा नहीं जाता; मैं तो यह चला।’ लिहाजा कोई न कोई मेरे साथ हो ही लेता है। लोगों को लगता है कि इनके साथ जाने से हमारे चर्मचक्षुओं को इनके प्रेमचक्षुओं की मदद मिलेगी; और अपना देश हम चार आंखों से जी भरकर देख सकेंगे। मेरी इस स्थिति का वर्णन मैंने अपने एक मित्र को लिखकर कहा था कि ‘मैं खोजता हूं एकांत, किन्तु पाता हूं लोकांत।’

आखिर इस सबका नतीजा यह होता है कि मुझे समुदाय के साथ यात्रा करनी पड़ती है, और इसलिए अपनी उछलने वाली मनोवृत्तियों को दबा देना पड़ता है। और एक ओर मन के अन्तर्मुख बनकर चिंतन-मग्न होने पर भी दूसरी ओर मुझे बाहर के लोगों के वायुमंडल के अनुकूल बनना पड़ता है।

यात्रा में हो या किसी महत्त्व के काम के हो, मंगलाचरण में कोई विघ्न न आये तो मुझे कुछ खोया-खोया सा मालूम होता है। निर्विघ्न प्रवृत्ति यदि मैने अपनी स्वप्नसृष्टि में भी न देखी हो, तो जागृति में भला वह कहां से आयेगी? बड़े उत्साह के साथ हम भुसावल से रवाना हुए और इटारसी में पहली ठोकर खाई। पहले से सूचना देने पर भी इटारसी के स्टेशन-मास्टर गाड़ी में हमारे लिए कोई प्रबंधन नहीं कर सके थे। नये डिब्बा जोड़ दें तो उसे खींचने की ताकत इंजिन में नहीं थी; क्योंकि इटारसी के पहले ही गाड़ी में ज्यादा डिब्बे जोड़े गये थे और सब डिब्बे ठसाठस भरे हुए थे।

क्या अब यहीं से वापस लौटना पड़ेगा? कितनी निराशा! सोचा, मन को दूसरी दिशा में मोड़ दे और दिलजोई के लिए यहां से होशंगाबाद तक मोटर में जाकर नर्मदामाता के दर्शन कर लें और फैजपुर की ओर वापस लौट जाएं। किन्तु इतनी हिम्मत हारने की भी हिम्मत न होने से आखिर आयी हुई गाड़ी में हम किसी न किसी तरह घुस गये।

जबलपुर जाकर एक-दो स्थानिक सज्जनों की मदद से हम नजदीक की धर्मशाला में जा पहुंचे और मोटर की व्यवस्था करने की कोशिश में लगे।

कोई बड़ा काफिला साथ में लेकर यात्रा करने में जिस व्यवस्था-शक्ति की आवश्यकता रहती है, वहीं युद्धों में बड़ी फौज के स्थानांतर के समय रहती है। किसी आश्रम, संस्था, मंदिर या छोटे-बड़े संस्थान को चलाने में जिन गुणों का शक्तियों का विकास होता है, उन्हीं का उपयोग किसी राज्य या साम्राज्य को चलाने में होता है। कोई होशियार किसान मौका मिलते ही उत्तम शासक या प्रबंधक हो सकता है; और बड़े-बड़े कल-कारखाने चलाने वाला कल्पक या योजक कारखानेदार किसी साम्राज्य का सूत्र आसानी से चला सकता है। यात्रा में मनुष्य की सब तरह की कुशलता की परीक्षा होती है और उसमें योग्य पुरुष और स्त्रियां भी, अपने आप आगे आ जाती हैं।

यह विचार यहां क्यों सूझा, यह बताने के लिए हम नहीं रुकेंगे। हमें समय पर भेड़ाघाट पहुंचना है, और बारिश तो मानो ‘अभी आती हूं’ कहकर टूट पड़ने पर तुली हुई है। यों तो ये बारिश के दिन नहीं है। किन्तु हिन्दुस्तान के चारों ओर के लोग फैजपुर कांग्रेस के लिए जा रहे हैं, यह देखकर बारिश को भी लगा, ‘चलो हम भी अलग-अलग स्थान देखते हुए फैजपुर हो आयें।’ मगर जाड़े के दिनों में बारिश के पांवों में ताकत नहीं होती; इसलिए दौड़ते-दौड़ते वह रास्ते में ही गिर पड़ी और फैजपुर तक पहुंच न सकी! उसके हाथ में यदि ‘स्वराज्य’ कि ज्योति होती, तो शायद लोगों ने उसे उठकर आगे बढ़ने में मदद की होती।

खैर; हमारी दोनों मोटरें तैल-वेग से चल पड़ी और संध्या के समय हम भेड़ा घाट जा पहुंचे। संगमरमर की शिलाएं देखने के लिए इससे पहले शायद ही कोई ऐसे समय यहां आया होगा। मगर प्रकृति के दीवानों को समय के साथ क्या लेना देना है?

यहां आकर हम बड़ी दुविधा में पड़े। निकट में ही एक टेकरी पर महादेव जी के मंदिर को घेरकर चौरासी योगिनियां तपस्या करती हुई बैठी थीं। तपस्या करते-करते अहिल्या की तरह वे शिलारूप बन गई होंगी। राम के चरणों का स्पर्श होने के बजाय मुसलमानों की लाठियों का स्पर्श होने के कारण इनमें से बहुत-सी योगिनियों की काफी दुर्दशा हुई है। इस टेकरी के उस पार धुवांधार नामक एक मशहूर प्रपात है। उसे देखने जायें या संगमरमर की शिलाएं देखने के लिए नौका-विहार करें?

विहार करने के लिए नौकाएं केवल दो ही थीं। इसलिए हम सब किसी एक बात पर एकमत हो जायं इससे लाभ नहीं था। लिहाजा हमने दो टोलियां बनायीं। यह स्थान संगमरमर की शिलाओं के लिए मशहूर था, इसलिए बड़ी टोली ने उस ओर जाना पसन्द किया। इसमें संदेह नहीं कि थोड़ा उजियाला जो बचा था उसी में यह स्थान देख लेने में अक्लमंदी थी। हमारी दूसरी टोली ने योगनियों का दर्शन करके धुवांधार जाने का निर्णय किया और हम सीढ़ियां चढ़ने लगे। सब योगिनियों के दर्शन हमने अपने हाथ की बिजली की एक छोटी-सी मशाल की मदद से किये। मूर्तियां सुन्दर ढंग से बनाई हुई और कलापूर्ण लगीं। मंदिर के भीतर विराजमान महादेव तथा उनका नंदी भी देखने लायक है।

मन में विचार आया कि जब किसी लड़ाई में हम घायल होतें हैं, तब तुरंत इलाज करके हम अच्छे हो जाते हैं। गांव में रोग से किसी की मौत होती है, तो हम तुरंत उसे जला देते या दफना देते हैं। जब जमीन पर दूध गिरता है तब हम उसके धब्बों को अमंगलकारी समझकर उन्हें जमीन पर रहने नहीं देते; उन्हें पोंछ डालते हैं। ऐसा मनुष्य-स्वभाव होने पर भी हमने खंडित मूर्तियां ज्यों-कि-त्यों क्यों रहने दीं? क्या धर्मांध मुसलमानों के अत्याचारों का स्मरण कराने के लिए? या खुद अपना कायरता और सामाजिक गैर-जिम्मेदारी को स्वीकार करने के लिए? अप्रतीम कलामूर्तियां बनाने की कला यदि देश में से नष्ट हो गई होती, तो इस प्रकार के प्राचीन अवशेषों के नमूनों को सुरक्षित रखना उचित माना जाता। किन्तु मैंने देखा है कि आबू में दिलवाड़े के मंदिरों में संगमरमर की कारीगरी करने वाले कुटुंबों को हमेशा के लिए नियुक्त कर लिया गया है; मंदिर के किसी हिस्से में जब कुछ खंडित होता है तो तुरंत उसकी मरम्मत करके उसको पहले की तरह बना दिया जाता है। इसी तरह लाहौर के अजायबघर में भी मैंने देखा है कि मूर्तियों का कोई कुशल सर्जन घायल मूर्तियों के हाथ, पैर, नाक, होंठ आदि को सीमेंट की मदद से इस ढंग से ठीक कर देता है कि किसी को पता तक न चले। मगर हमारे मंदिर योग्य और पुरुषार्थी लोगों के हाथ में हैं ही कहां? हमारे समाज की स्थिति लावारिस ढोरों जैसी है।

योगिनियों के आशीर्वाद लेकर हम टेकरी से नीचे उतरने लगे। अब भी कुछ प्रकाश बाकी था। इसलिए हम हंसते-खेलते किन्तु द्रुत गति से धुवांधार की खोज करने निकल पड़े। जो साथी आगे दौड़ रहे थे उनकी लगाम खींचने का और जो पीछे पड़ रहे थे उन्हें चाबुक लगाने का काम एक ही जीभ को करना पड़ता था। मेरा अनुभव है कि नयी आजादी से बहकने वाले बछड़ों या भेड़ों को ज्यों-ज्यों पास लाने की कोशिश की जाती है, त्यों-त्यों संघ को छोड़कर दूर-दूर भागने में उन्हें बड़ी बहादुरी मालूम होती है; फिर उन पर रुष्ट होकर उन्हें वापस लाने में होने वाले कष्ट के कारण संधपति को भी अपना महत्त्व बढ़ा हुआ-सा मालूम होता है। परस्पर खींचातानी के कष्टों का आनंद दोनों से छोड़ा नहीं जाता।

जहां भी हमारी नजर जाती, सफेद पत्थर ही पत्थर नजर आते थे। जबलपुर का ही यह प्रदेश है! किन्तु एक जगह तो हमें संग-जराहत का खेत ही मिल गया। संग-जराहत एक अद्भुत चीज है। वह पत्थर जरूर है, मगर बिलकुल चिकना और मुलायम। मानो पेंसिल का सीसा छुटपन में एक बार मुझे संग्रहणी हो गई थी। उस समय इसका चूरा छानकर मावे की बरफी में मिलाकर मुझे खिलाया गया था। तब से उस पर मेरी श्रद्धा जमी हुई है। आंव की वजह से जब आंतों में घाव हो जाते हैं तब उन्हें भरने में यह चूरा मदद करता है; और घाव भरने के बाद वह अपने आप पेट के बाहर निकल जाता है। पत्थर का चूरा हजम थोड़े ही हो सकता है! पेट में रहे तो रोग हो जाये। मगर वह अपना काम पूरा होते ही उपकार के वचनों की वसूली करने के लिए भी अधिक दिन रहने की गलती नहीं करता।

अब तो चारों ओर काफी अंधेरा छा गया था। सर्वत्र भयानक एकांत था। हमारी टोली इस एकांत को चीरती हुई आगे चल रही थी, मानों अनन्त समुद्र में कोई नाव चल रही हो। हवा कुछ रुंधी हुई-सी लगती थी। कब पानी गिरेगा, कहा नहीं जा सकता था। ऊपर आकाश में देखा तो काले-काले बादलों के बीच एक ओर सिर्फ एक तारका चमक रही थी। चमकती क्या थी? बेचारी बड़े दुःख के साथ झांक रही थी, मानों किसी बड़े मकान की खिड़की से कोई एकाकी वृद्धा निर्जन रास्ते पर देख रही हो। हम आगे बढ़े। अब जमीन भी अच्छी खासी गीली थी। बीच-बीच में पानी और कीचड़ के गड्ढे भी आते थे।

अंधेरा खूब बढ़ गया। गड्ढों में से रास्ता निकालना कठिन-सा मालूम होने लगा। आगे जाने का उत्साह बहुत कम हो गया। ऐसे कठिन स्थान पर अंधेरी रात के समय हम यहां तक आये, इसी को यात्रा का आनंद मानकर हमने वापस लौटने का विचार किया। मन में डर भी पैदा हुआ- ऐसे निर्जन और भयावने स्थान में कहीं चोरों से मुलाकात न हो जाय।

कुछ लोगों को अकेले यात्रा करते समय चोर-डाकुओं का डर मालूम होता है। जब समुदाय बड़ा होता है, तब यह डर मानो सबके बीच बंट जाता है और हरेक के हिस्से बहुत कम आता है। फिर एक-दूसरे के सहारे हरेक अपना-अपना डर मन ही मन में दबा भी सकता है। कुछ लोगों का इससे बिलकुल उलटा होता है। अकेले होने पर उन्हें अपनी कोई परवाह नहीं होती। अपना कुछ भी हो जाय। मार-पीट का प्रसंग आ जाये तो जी-भरकर लड़ते हुए शान के साथ सारे बदन पर मार खाने में विशेष नुकसान नहीं लगता। और यदि अहिंसक वृत्ति हो तो बिना गुस्सा किये और बिना डर कर भागे मार खाते रहने में अनोखा आनन्द आता है। सत्याग्रही वृत्ति से खाई हुई मार का असर मारने वाले पर ही होता है; क्योंकि अहिंसक मनुष्य को मारने वाले की अपने ही मन के सामने प्रतिक्षण फजीहत होती है।

मगर जब बड़ी टोली के साथ होते हैं, तब भरोसा नहीं होता कि कौन किस प्रकार व्यवहार करेगा। बच्चे और औरतें यदि साथ हों तब कुछ अलग ही ढंग से सोचना पड़ता है। अपने-आपकों खतरे में डालने में जो मजा आता है, वह ऐसे अवसरों पर अनुभव नहीं होता। सभी सत्याग्रही हों तो बात अलग है। किन्तु बड़ी खिचड़ी-टोली साथ में लेकर खतरे के स्थान पर कभी भी नहीं जाना चाहिये। श्रीकृष्ण के कुटुम्ब-कबीले को ले जाने वाले वीर अर्जुन की भी क्या दशा हुई थी, यह तो हम पुराणों में पढ़ते ही हैं।

ऐसे अंधेर में शिलाओं के बीच से कहां तक जायें और वहां क्या देखने को मिलेगा, इसकी कुछ कल्पना ही नहीं थी। अतः मन में आया, यहीं से वापस लौटना अच्छा होगा। इतने में दाहिनी ओर एक छोटी-सी टूटी-फूटी कुटिया दीख पड़ी। ऐसे निर्जन स्थान में चोर भी चोरी काहे की करेंगे? मगर चोरी करके थकने पर शांति और निश्चिंतता के साथ बैठने के लिए यह स्थान बहुत सुंदर है। चोरों को ढूंढ़ने निकलने वाले लोगों को यहां तक आने का ख्याल भी नहीं आयेगा। तो क्या इस कुटिया में निरंजन का ध्यान करने वाला कोई अलख-उपासक साधु रहता होगा? हम कुटिया के नजदीक गये। अंदर कोई नही था! तब तो यह कुटिया साधु की नहीं हो सकती। फकीर दिन भर कहीं भी घूमता रहे; रात को अपनी मसजिद में आना वह कभी नहीं भूलेगा और बाबाजी की रात बाहर कहीं बिताने के बजाय अपनी सहचरी धूनी के संपर्क में ही बितायेंगे।

तब यह कुटिया मछलियां मारने वाले किसी मच्छी मार की होगी। किसी की भी हो, हमें इससे क्या मतलब? आज की रात हमें यहां थोड़ी बितानी है? जरा आगे जाने पर यकीन हुआ की रास्ता ठीक न होने से अंधेरे में इससे आगे जाना खतरा मोल लेना है। अतः मैंने हुक्म छोड़ाः चलो, अब वापस लौंटे। इतने में मानों सत्त्व-परिक्षा पूरी हो गई हो, इस ख्याल से बादल जरा हटे और ठीक हमारे सिर पर विराजित चंद्र ने ‘पश्याश्चर्याणि भारत!’ कहकर आसपास का प्रदेश प्रकाशित कर दिया। सूर्य सब कुछ प्रकट कर देता है, इसलिए उसके प्रकाश में कोई काव्य नहीं होता। अंधेरी रात में आकाश के सितारों में विचरने वाली दृष्टि को चंद्र पृथ्वी पर भेज देता है और कहता हैः ‘थोड़ा आंखों से देखो और बाकी का सब कल्पना से भर दो।’

हमें समय पर भेड़ाघाट पहुंचना है, और बारिश तो मानो ‘अभी आती हूं’ कहकर टूट पड़ने पर तुली हुई है। यों तो ये बारिश के दिन नहीं है। किन्तु हिन्दुस्तान के चारों ओर के लोग फैजपुर कांग्रेस के लिए जा रहे हैं, यह देखकर बारिश को भी लगा, ‘चलो हम भी अलग-अलग स्थान देखते हुए फैजपुर हो आयें।’ मगर जाड़े के दिनों में बारिश के पांवों में ताकत नहीं होती; इसलिए दौड़ते-दौड़ते वह रास्ते में ही गिर पड़ीचंद्र ने कुछ मदद की और दूर-दूर से धुवांधार का घोष भी सुनाई देने लगा। मेरा हुक्म एक ओर रह गया और सब अपने पैर तेजी से उठाने लगे। जरा आगे गये कि धुंवाधार दीख पड़ा! मानों दूध का स्रोत बह रहा हो!! सर-सर धब-धब! सुलमुल धब-धब! कर्रर्रर्र धब-धब! धब-धब; धब-धब! उन्मत्त पानी बहता ही जा रहा था। और उसमें से निकलने वाली सीकर-वृष्टि सर्वत्र फैल रही थी। वृष्टि काहे की? तुषार का फव्वारा ही समझ लीजिये। कितना अतिथिशील! इन सूक्ष्म जीवन-कणों ने हमारे इन जीवन-क्षणों का सार्थक कर दिया। चंद्र प्रसन्नता से हंस रहा था, पानी खेल रहा था, तुषार उड़ रहे थे, हवा झुम रही थी और हम मस्ती में डोल रहे थे। इधर देखिए, उधर देखिए, कैसा मजा है! आदि उद्गारों का प्रपात भी देखते ही देखते शुरू हो गया। भिन्न-भिन्न ऋतुओं में धुवांधार कैसा दिखाई देता है, इसका वर्णन हमारे साथ आये हुए स्वयंसेवक पथदर्शक ने शुरू किया। यहां लोग तैरने कैसे जाते हैं, कहां से कूदते हैं, गर्मी के दिनों में धुवांधार की ऊंचाई कितनी होती है, आदि बहुत-सी जानकारी उसने हमें दी। और अपनी जानकारी तथा रसिकता के लिए उसने हमसे अपनी कद्र भी करवा ली। अब सब शांत हो गये और एक ध्यान से धुवांधार के साथ एक-रूप होने में मग्न हो गये। कितना भव्य और पावन दर्शन था! अरणि के मंथन से प्रथम गर्मी पैदा होती है; फिर धुवां निकलता है; धुवां बढ़ने पर उसमें से चिनगारियां उड़ती हैं और फिर लपटें निकलने लगती हैं। इसी तरह निसर्ग-यात्रा से प्रथम कुतूहल जागृत होता है, कुतूहल में से अद्भुतता पैदा होती है, और अद्भुतता के काफी मात्रा में एकत्र होने पर यकायक भक्ति की ऊर्मियां बाहर आती हैं। ‘चलो, हम यहां शिला पर बैठकर प्रार्थना करें।’ प्रार्थना के लिए इतना पवित्र स्थान और इतना शुभ समय हमेशा नहीं मिलता। सब तुरन्त बैठ गये ‘यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र....’ की ध्वनि धुवांधार के कानों पर पड़ी।

जिस प्रकार भिन्न-भिन्न समय पर भिन्न-भिन्न राग गाये जाते हैं, उसी प्रकार भिन्न-भिन्न स्थलों पर मुझे भिन्न-भिन्न स्रोत सूझते हैं। हिन्दुस्तान के दक्षिण में कन्याकुमारी मैं तीन बार गया, तब मुझे गीता का दसवां और ग्यारहवां अध्याय सूझा। विभूतियोग और विश्वदर्शनयोग का उत्कट पाठ करने के लिए वही उचित स्थान था। और जब सीलोन के मध्यभाग में –अनुराधापुर के समीप-महेन्द्र पर्वत के शिखर पर संध्यास्त के समय पहुंचा था, तब पाटलिपुत्र से आकाश मार्ग द्वारा आकर इस शिखर पर उतरे हुए महेन्द्र का स्मरण करके मैंने ईशावास्योपनिषद् गाया था। दैव जाने अनात्मवादी बुद्ध-शिष्यों की आत्मा को ईशोपनिषद् सुनकर कैसा लगा होगा! और पूना से जब शिवनेरी गया, तब मसजिद की ऊंची दीवारों की सीढ़ियां चढ़कर दूर से श्री शिवाजी महाराज के बाल्यकाल की क्रीड़ा भूमि के दर्शन करते समय न मालूम क्यों मांडुक्योपनिषद गाना मुझे ठिक लगा था। यह उपनिषद् श्री समर्थ कों प्रिय था, ऐसा मानने का कोई सबूत नहीं है। फिर भी ‘नान्तःप्रज्ञं न बहिःप्रज्ञं नोSभयतः प्रज्ञं न प्रज्ञानधनम् न प्रज्ञं ना प्रज्ञम्।’ यह कंडिका बोलते समय मैं शिव-कालीन महाराष्ट्र के साथ तथा आत्मा राम की अभेद-भक्ति करने वाले साधु सन्तों के साथ बिलकुल एक रूप हो गया था। उस समय मन में यह भाव उठा था- ‘मैं नहीं चाहता यह अलग व्यक्तित्व; एक रूप सर्वरूप हो जायं इस समस्त दृश्य के साथ।’ धुवांधार की मस्ती तथा उसके तुषारों का हास्य देखकर यहां स्थितप्रज्ञ के श्लोक गाना ठीक लगा।

उत्कट भावनाओं का सेवन लम्बे समय तक करते रहना जरूरी नहीं है। एक आलाप में एक अखिल भावसृष्टि को समाया जा सकता है। एक जल बिन्दु में प्रचण्ड सूर्य भी प्रतिबिम्बित हो सकता है। एक दीक्षामंत्र से युगों का अज्ञान हटाया जा सकता है। एक क्षण में हमने धुवांधार के वायुमंडल को अपना बना लिया। आंखों की शक्ति कितनी अजीब होती है! धुवांधार का पान मुंह से करना असंभव था। हम कुंभ-संभव अगस्ति थोड़े ही थे! मगर हमारी दो नन्हीं पुतलियों ने अखंड बहने वाले इस प्रपात का आ-कंठ पान किया। मुझे लगता है कि ऐसे दृक्-पान को आ-कंठ कहने के बदले ‘आ-पलक’ कहना चाहिये। हम सबने अपनी-अपनी आंखों में यह लूट एक क्षण में भर ली और वापस लौटे। हमारा यह भूतों का संघ तरह-तरह की बातें करता हुआ तथा गर्जना करता हुआ मोटर के अड्डे पर आ पुहंचा।

यहां भेड़ा घाट कि संगमरमर शिलाएं देखकर लौटी हुई टोली हमसे मिली। एक दूसरे के अनुभवों का आदान-प्रदान करके हमने इस टोली को बुजुर्गाना सलाह दी कि ‘इस समय धुआंधार जाना बेकार है। आप तैल-वाहन में बैठकर सीधे जबलपुर चले जाइये। आप जहां हो आयें हैं वहां थोड़ा नौका विहार करके हम तुरन्त लौट आयेंगे।’ मालूम नहीं, हमारी यह सलाह उन्हें पसंद आयी या नहीं। मगर उसको मानने के सिवा उनके लिए कोई चारा नहीं था।

रास्ते की ओर से उतरते हुए और अंधेरे में लड़खड़ाते हुए हम प्रवाह के किनारे तक पहुंचे और दो टोलियों में बंटकर दो नावों में चढ़ बैठे। हमारी नाव आगे बढ़ी। सर्वत्र शांति का ही साम्राज्य था और उसकी-गहराई की मानों थाह लगाने के लिए बीच-बीच में हमारी नाव की पतवारें तालबद्ध आवाज करती थीं। चंद्र अपनी टिमटिमाती मशाल सिर पर रखकर मानों यह सुझा रहा थाः ‘आसपास की यह शोभा दिन के समय कैसी मालूम होती होगी इसकी कल्पना कर लीजिये।’ कई स्थानों पर बिलकुल अंधेरा था। बीच-बीच में चांदनी के धब्बे दिखाई पड़ते थे। आकाश निरभ्र नहीं था। इसलिए चांदनी छांछ के समान पतली बन गयी थी। आकाश के बादल बीच-बीच में मलमल के जैसे पतले दीख पड़ते थे, अतः उनकी ओर भी ध्यान खिंच जाता था। दोनों ओर संगमरमर की शिलाएं कितनी ऊंची मालूम होती थीं! ऊंची और भयावनी। मानो राक्षसों का समूह बैठा हो! और इन शिलाओं के बीच से नर्मदा का प्रवाह मोड़ ले-लेकर अपना चक्रव्यूह रच रहा था।

ऊंची-ऊंची शिलाएं या पहाड़ जहां एक-दूसरे के बहुत पास आ जाते हैं, वहां ‘प्राचीन काल में एक सरदार ने अपने घोड़े को एड़ी लगाकर इस शिखर से सामने के शिखर तक कुदाया था’ जैसी दंतकथा चलती ही है। बंदर तो सचमुच इस प्रकार कुदते ही हैं। यहां भी आपको इस प्रकार की दंतकथाएं नाव वालों के मुंह से सुनने को मिलेंगी।

यहां इन शिलाओं के बीच कई गुफाएं भी हैं। इनमें ऋषिमुनि ध्यान करने के लिए अवश्य रहते होंगे। और मध्य युग में राज-कुलों के आपद्ग्रस्त लोग तथा स्वतंत्रता की साधना करने वाले देशभक्त भी यहीं आत्मरक्षा के लिए छिपते रहे होंगे। और फिर छछूंदरों की तरह नावें इन लोगों को गुप्त रूप से आहार, समाचार और आश्वासन पहुंचाती रहती होंगी। इन गुफाओं को यदि वाचा होती, तो इतिहास में जिसका जिक्र तक नहीं है, ऐसा कितना ही वृतांत वे हमें बतातीं।

खोह के बीचोंबीच नाव से जाते हुए हम एक ऐसे स्थान पर आ पहुंचे, जिसे शांति का गर्भगृह कह सकते हैं। यहां हमने पतवारें बंद करवायीं, और इस डर से कि कहीं शांति में भंग न हो जाय हमने श्वास भी मंद कर दिया। प्रार्थना के श्लोक हमने वहां गाये या नहीं, इसका स्मरण नहीं है। किन्तु मैं मन ही मन सोलह ऋचाओं का पुरुष-सूक्त बड़ी उत्कटता के साथ वहां गाया। बाद में लगा कि इतनी शांति में तो अपने-आप समाधि ही लगनी चाहिये। पता नहीं कितना समय नौका-बिहार में बीता। इतने में डब-डब-डब करती हुई दुसरी नाव वहां आ पहुंची। उसमें जो टोली थी उसने एक मंजुल गीत छेड़ा। आस-पास की खोहें इसकी प्रतिध्वनि करें या न करें इस दुविधा में संकोच से उत्तर दे रही थीं।

नाव वाले ने कहा, ‘अब इससे आगे जाना असंभव है: यहां से लौटना ही चाहिये।’ अतः दौड़ते मन को पीछे खींचकर हम बोलेः ‘चलो! पुनरागमनाय च!’

अब यदि जाना हो तो वर्षा के अंत में, चांदनी के दिन देखकर, दिन-रात इस मूर्तिमंत काव्य में तैरते रहने के लिए ही जाना चाहिये। सचमुच, यह रमणीय स्थान देखकर मन ने निश्चय किया कि यदि फिर कभी यहां आना न हो, तो यहां से निकलना ही नहीं चाहिये।

अक्टूबर, 1937

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