नीयत का कमाल

16 Sep 2008
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मैत्री आंदोलन के प्रवर्तक कल्याण सिंह रावत से बातचीत

क्या मैती आंदोलन के इस तरह व्यापक होने की उम्मीद पहले से थी?

इस आंदोलन की जो अवधारणा थी और जो ताना-बाना बुना गया था, उससे ही यह उम्मीद हो गई थी कि लोग जरूर इस आंदोलन को अपनाएंगे और इसमें अपनी भावनात्मक दिलचस्पी जरूर दिखाएंगे। उत्तराखंड के कुमाऊं और गढ़वाल में, यह आंदोलन अपने आप फैलता चला गया।

आंदोलन को बहुआयामी बनाने के लिए और क्या-क्या प्रयोग किए गए?

इस आंदोलन को केवल वृक्षारोपण तक ही सीमित नहीं रखा गया, बल्कि हमारी राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय घटनाएं हैं, इनमें कुछ अहम तिथियां हैं, उनसे जोड़कर इस आंदोलन को भावनात्मक रूप देने का प्रयास किया गया ताकि उन चीजों के प्रति भी लोगों की भावनाएं जाग सकें। जैसे कि कोई राष्ट्रीय धरोहर हैं, राष्ट्रीय पर्व हैं। इसके अलावा कुछ वैसी चीजें जो हमारे यहां दूसरे देशों से आई हैं, उनको भी अपनी राष्ट्रीयता के ताने-बाने में बुनकर पेश करने की कोशिश की गई। वैलेंटाइन डे मनाने का प्रचलन दूसरे देशों से अपने यहां आया, जिसका काफी विरोध हुआ, पर इसके बावजूद युवा पीढ़ी इसकी ओर काफी आकर्षित हुई। यहां तक कि इसकी हवा हिमालय के गांवों तक पहुंच गई। मैती आंदोलन ने इसका विरोध नहीं किया बल्कि इसे एक नया रूप देने की कोशिश की गई। हम लोगों ने युवाओं से आग्रह किया कि इस मौके पर फूल नहीं देकर एक पेड़ लगाइएं। पेड़ को ही कहीं जाकर प्रेम से झुक कर लगाइए। फिर देखिए अगले पांच सालों में वह पेड़ इतना ऊंचा हो जाएगा कि आपको सिर उठा कर देखने के लिए विवश होना पड़ेगा।

मैती संगठन को एक एनजीओ का रूप क्यों नहीं दिया?

पहले मैं भी इस मुद्दे पर पूरी तरह स्पष्ट नहीं था। अगर मैती आंदोलन को एनजीओ का रूप देंगे तो हो सकता है कि इसका आज के जैसा आकर्षण समाप्त हो जाएगा। देश में कई एनजीओ हैं अपवाद के रूप में, जो केवल कागजों पर काम कर रहे हैं। काम नहीं करते हैं और सभी सरकारी गैर सरकारी फंड लूट ले जाते हैं। इस कारण लोगों की नजर में एनजीओ को सकारात्मक रूप नहीं रह गया है। इसलिए हमने कहा कि मैती को एक स्वयंस्फूर्त आंदोलन ही रहने दिया जाए ताकि लोग इससे भावनात्मक रूप से जुड़ सकें। इस आंदोलन में जहां पैसे को जोड़ेगें, वहीं इसकी आत्मा मर जाएगी। इसलिए ही गांव में मैती की बहनें शादी के समय दूल्हों और बारातियों से जो पैसे लेती हैं, उसे आपस में ही अपने पास में जमा करते है और उसी से संगठन का काम चलाती हैं। छोटी-छोटी इकाई और छोटे-छोटे संसाधन जुटाने की जरूरत ही नहीं होती।

मैती आंदोलन का जन्म कैसे हुआ और इसकी प्रेरणा आपको कहां से मिली?

इस आंदोलन के जन्म की कहानी तो वास्तव में प्रकृति प्रेरणा से शुरू हुई हैं मैं खुद प्रकृति प्रेमी हूं। मेरे पिता भी वन विभाग में रहे। दादा भी उसमें रहे। मेरा बचपन भी जंगलों के बीच बीता। जब मैं गोपेश्वर में पढ़ने गया तो वहां जंगल को बचाने के लिए चिपको आंदोलन शुरू हुआ। उसमें मैंने छात्र होते हुए भी सक्रिय भागीदारी निभाई। गांधीवादी संगठनों के संपर्क में रहा और मैं छात्र भी वनस्पति विज्ञान का रहा। प्रकृति के करीब रहने में मेरी दिलचस्पी रही। पूरे हिमालय का दौरा किया- गढ़वाल -कुमाऊं का चप्पा-चप्पा घूम गया हूं। इन यात्राओं के दौरान गांवों में वहां के जन-जीवन को महिलाओं की परिस्थियों का समझने का मौका मिला।

मैंने देखा कि सरकारी वृक्षारोपण अभियान विफल रहे थे। एक ही जगह पर पांच-पांच बार पेड़ लगाए जाते, पर उसका नतीजा शून्य होता। इतनी बार पेड़ लगाने के बावजूद पेड़ नहीं दिखाई दे रहे थे। इन हालात को देखते हुए मन में यही बात आई कि जब तक हम लोगों को भावनात्मक रूप से सक्रिय नहीं करेंगे, तब तक वृक्षारोपण जैसे कार्यक्रम सफल नहीं हो सकते। लोग भावनात्मक रूप से वृक्षारोपण से जुड़ेंगे तो पेड़ लगाने के बाद उसके चारो ओर दीवार या बाड़ लगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। लोग खुद ही उसकी सुरक्षा करेंगे।

शुरू में अंधविश्वासों के कारण मुझे कुछ दिक्कतों का सामना करना पड़ा, पर हमारी सही नीयत ने कमाल कर दिखाया। मैती की बहनें तो सक्रिय हैं ही, गांव के आम लोग भी मैती से जुड़ते चले गए हैं। अब तो यह प्रदेश के छह हजार गांवों में तो फैला ही है, यह सरहद पार कर विभिन्न देशों में भी प्रचलन में आ गया है। इस पर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालयों में शोध भी हो रहे हैं।

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