नर्मदा के चित्र

नष्ट नहीं सौंदर्य कभी उनके लेखे,
जिनके प्राणों में एक सदृश-श्री-शक्ति है,
वैसे ही जैसे गुलाब का महकता
जीवन जीवित है बिखरे-भी दलों में।
नष्ट हुई चीजों के ऊपर एक कुछ
है प्रकाश ऐसा ही, जो जाता नहीं;
धुँधला है इतने प्रकाश की झलक है,
जितनी भरने और बहने के बीच में
देखी जाती है दुखिया की आँख में!
भिन्न भिन्न मिस हैं जिनसे निज रूप को
सुंदरता विकसित करती है सर्वदा,
पुष्प स्वयं मुरझा जाता है डाल पर
किंतु कली भी खिलकर हँसती है तभी।
और कि जब इस फैल रही प्रिय धरा से
सिमट रहीं अस्तंगत किरनें सूर्य की,
यह भी तो है एक सरल संकेत उन दीप्त दिनों का,
जो अबाध्य आशा में आते दिख रहे।

बँधे हुए घाटों से थोड़ी दूर पर
हरी घास के उस उतार पर बैठना,
चमक रहा था, जो ऊपर के सूर्य से
और कि जिस पर थी पीपल ने छाँह की!
कितना प्यारा था कुछ अस्फुट स्वरों में
गुन-गुन करके वहीं लेट जाना कभी;
एक-दूसरे पर चढ़ती-सी चोटियाँ

कभी देखना विन्ध्याचल की दूर तक।
टेढ़ी-मेढ़ी रेवा थोड़ा छोड़कर
फिर दिखती, आँखों को देती स्वास्थ्य-सा,
और वृक्ष अपने यौवन के बोझ से
झूके-ढंके, हरियाले पत्तों से सघन!
दूर गांव के छोटे-छोटे घर खड़े
और पास में टूटा-फूटा किला है,
(सुनते हैं यह किसी गोंड-नृप की प्रभा,
आज सदा की भाँति नग्न है धूप में!)
कभी देखना अपलक काले मेघ को-
जो हाथी था अभी, अभी उड़ने लगा
पर फैलाए हुए हंस का रूप ले!
बहुत सुखद था वह सब, तब का लेटना,
और कि गुन गाना रे उस अवकाश का!

वायु प्रात की भीनी-भीनी बह रही,
धीरे-धीरे नाव लहर पर तिर चली,
पागल है यह समय और लहरें प्रबल।
हम गुँजारीघाट छोड़ पीछे चले,
वह गुँजारीघाट कि जो छुप-सा रहा
आधा घन-कुहरे में, आधा रूप में!
आज नर्मदा मेरी है! लो, और भी-
सूर्य पहिन केसरिया बढ़ता आ रहा;
उष्ण किए देता है सब वातावरण।
यह सफेद घूँघट कुहरे का उठाकर
देख रही हैं शस्य-श्यामला भूमि को
स्निग्ध प्रेम की दृष्टि डालकर दिशाएँ!
क्रौंच उड़ रहे ऊपर, आगे पहाड़ी,
बाजू में हरियाली झाड़ी है सघन,
यहां नदी कुछ चौड़ी होती जा रही,
ताल दे रही हैं लहरें चुपचाप ही
और किलकिला उड़ते-उड़ते गा रहा!
दिन चढ़ आया, शब्द बढ़ा, जग जग गया,
इतना अच्छा दिन निकला था क्या कभी!
पंछी-दल गाते हैं, हम चिल्ला रहे,
फुल खिल रहे हैं, हँसती है हर किरन,
और वृक्ष सारे के सारे हिल उठे,
एक खुशी के झोंके का यह काम है!

आह, शिशिर की हवा, कि है ठंडी बहुत,
ऊपर होकर चली आ रही लहर के;
वन्यदेश का यह पथरीला भाग भी,
काँप उठा है इस चुभती-सी ठंड से;
सिस्-सिस् करता-सा प्रलाप है कर रहा।
बर्फीले पानी को जो थी छू रही
ऐसी हर एक खोह गूँजती है खड़ी,
पड़कर फेंकी हुई लहर की बाढ़ में।
बहुत साफ सुन पड़ती झाँई दूर की,
निकल रहे दिन की या बढ़ते भानु की!
धुँधले-धुँधले मेघ कहीं उड़ने लगे,
गरम और ठंडेपन के आभास से
चित्रित करने लगे स्वच्छ आकाश को
पद-चिह्न-शून्य है ओस नहीं टूटी तनिक,
हरियाली जैसी की तैसी बिछी है,
धूप चमकती है उस पर, जो और भी
याद दिलाती है यह ठंडी है बहुत!
पगडंडी टेढ़ी होकर भी हृदय में बन के-
सीधा तीर बनी धँसती दिखी!
उसके ऊपर बही जा रही यह हवा-
बंद नहीं होगी यह डाकिन बहेगी!
कल संध्या में घाट बहुत निस्तब्ध था,
यद्यपि थे कुछ लोग वहां, पर थे कहीं;
जोर-जोर से बात नहीं थी हो रही,
सुनी नहीं जाती थी थोड़ी भी हँसी।
सभी सीढ़ियों पर, बुर्जों पर मौन थे,
देख रहे थे पानी या आकाश को;
कभी-कभी मछली ऊपर थी उछलती,
और एक हलका ‘छप’ होता था कभी,
फिर वैसी ही शांत और निस्तब्ध सब!
कभी-कभी एकाध लहर भी छपक कर,
मौन भंग करने की चेष्टा कर रही,
किंतु मौन इससे गहरा होता रहा।
और दूज का चाँद तभी मुझको दिखा,
साथ-साथ हलका-पूरा वह चक्र भी
दिख पड़ता था, जो पूनों में पूर्ण था;
आज सूक्ष्मतम एक सुनहली रेख वह!
था आकाश निरभ्र वायु भी मंद थी;
नीला पानी नील गगन-सा शांत था,
पानी पर प्रतिबिंब चाँद का तब पड़ा,
और मुझे सचमुच ऐसा ही लगा तब,
इसके पहले बिंब पड़ा जैसे नहीं
या कि दूज का चाँद नहीं निकला कभी;
निकल रहा था वह मंदिर के पार्श्व से
या कि कलश पर मंदिर के वह टँगा था!
अंधकार अब और सघन होता चला,
और चंद्र भी लगा चमकने चाँद-सा!

दुर्लभ है सुंदरता ऐसे ह्रास की
जो तिल-तिल कर हुआ, बहुत क्रमशः हुआ।
यौवन और सौंदर्य जहाँ यह बात हो,
वहां सभी कुछ चाहा जाता है कि हाँ,
वहाँ तनिक-से शांति नहीं मिलती कभी
वहाँ माँग का अंत नहीं देखा गया
किंतु बात जो बीत गई उसका सभी,
माँगा जा सकता, तो भी क्या माँगते
इसमें है संदेह सदा मुझको रहा।
बीत गए का जादू-भर जगता सदा,
वह प्रकाश-भर बस जाता है वायु में
जो प्रभाव वह जब था तब डाला किया।
उस समग्र का रूप सघन होकर हमें,
एक प्रेरणा,एक भाव में बांधकर
जाग्रत करने का प्रयत्न करता कभी,
कभी चित्र की शांति, चित्र का मौन दे
उठते तूफानों को मन पर खींचता।
स्मृति ही केवल उसका आधार है,
स्मृति ही है केवल जीती-जागती-
इस सूने उजड़े खँडहर के बीच में,
और काल्पनिक-रचना के उस भूत-सी
कभी भटकती है झाऊ से भरे इस
रेतीले मैदान या कि उस खेत में!
कभी नर्मदा की लहरों पर नाचती,
कभी किले के भग्नभाग में घूमती-
(खुद भी इतनी जीर्ण कि जितना किला है,)
थक जाती है, किंतु चैन लेती नहीं।
और कि जब इस नवनिर्मित स्तंभ के,
जो कि डगमगाती यादों का केंद्र था,
एक-एक करके ठोकर से काल की
गिर पड़ते हैं पत्थर, तब कंकाल वह
आतप में जलता, कठोर अभिमान में
तना खड़ा रहता है, दोनों ओर से
हरी बेल खुश होकर, छा लेती उसे।

अक्टूबर, 1936

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