नर्मदा की जीवनशाला

6 Dec 2010
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पिछले 25 सालों में सरदार सरोवर बांध से नफा और नुकसान की मोटे तौर पर दो तस्वीरें हमारे दिलो-दिमाग पर उभरती हैं। पहली तस्वीर बिजली, पानी और विकास की गंगा के रूप में है तो दूसरी हजारों लागों के विस्थापन का दर्द लिए हाजिर है। नर्मदा घाटी के बाहर नर्मदा के आंदोलन को जानने की उत्सुकता हमेशा से बनी रही है। लेकिन यह बात कम ही लोग जानते हैं कि सरदार सरोवर बांध के खिलाफ चल रहे आंदोलन की दो रेखाएं सामानान्तर चलती रही हैं। एक अहिंसा पर आधारित लड़ाई को जारी रखती है तो दूसरी रचनात्मकता का रास्ता दिखाती है।

ऐसी ही एक रचनात्मक कोशिश थी ‘जीवनशाला’, जिसने हजारों लोगों के जीवन में रोशनी फैलाने का काम किया। उजाला बांटने का यह सिलसिला आज भी जारी है।

बांध से प्रभावित आदिवासियों के मुताबिक `लड़ाई-पढ़ाई साथ-साथ´होना जरूरी है, यही सोच कर आदिवासियों ने अपने बच्चों के लिए 'जीवनशाला' नाम से कई स्कूल तैयार किए, जिनमें एक पढ़े-लिखे भविष्य का निर्माण अनवरत जारी है।

 

न सरकने वाली सरकारी फाइल


विंध्यांचल और सतपुड़ा पर्वतमालाओं की ओट में यहां कई छोटे और सुंदर गांव हैं। यह गांव अपने जिला मुख्यालय से बहुत दूर और घनघोर जंगलों के बीच मौजूद हैं। इन जगहों पर स्कूल भवन बनने और शिक्षक आने की राह तकना कभी नियति का खेल समझा जाता था। ऐसा नहीं है कि बांध विस्थापितों ने बच्चों की शिक्षा के लिये कभी सरकार से गुहार नही लगाई हो। अधिकारियों को आवेदन दिये, फाइलें बनीं लेकिन ये फाइलें कभी सरकी ही नहीं। हर बार सरकारी अधिकारी आश्वासन देते रहे और स्थिति जस की तस बनी रही।

आखिरकार, आदिवासियों ने खुद बदलाव की यह पहल की। 1991-92 में, चिमलखेड़ी और नीमगांव में जीवनशालाएं शुरू हुईं। एक तो काम नया-नया था और दूसरा ज्यादा कुछ मालूम भी नहीं होने से चुनौतियां पहाड़ की तरह खड़ी थीं। फिर भी जीवनशाला का आधार स्वावलंबी रखा गया।

शुरूआत से ही सीमित साधन, संसाधन और समुदायिक क्षमता के अनुरुप बेहतर शिक्षा की बात पर बल दिया गया। इन जीवनशालओं का मकसद महज सरकारी स्कूलों की शून्यता भरना भर नहीं था बल्कि आदिवासी जीवनशैली को कायम रखना भी था। आज की तारीख में इन इलाकों में 13 से ज्यादा जीवनशालाएं संचालित हैं, जो आसपास के 1500 से ज्यादा बच्चों को जिन्दगी की बारहखड़ी सिखा रही हैं।

भले ही जीवनशाला का जन्म विस्थापन रोकने की लड़ाई का नतीजा रहा हो मगर जल्द ही ऐसे स्थान आंदोलनकारियों के लिये विविध चर्चा, रणनीति और कार्यक्रम आयोजन का मुख्य केन्द्र बन गए। इस प्रकार आन्दोलन और जीवनशाला, दोनों एक-दूसरे के लिए मददगार साबित हुए और आज ऐसे स्थान आदिवासी एकता और भागीदारी के प्रतीक बन गए हैं।

 

अपनी बोली का अपनापा


जीवनशाला में पढ़ाई-लिखाई का तरीका सहज ही रखा गया है। लोगों के बीच से कुछ लोग निकले और पढ़ाने लगे। इसमें गांव की बोली को वरीयता दी गई। इस दौरान किताबों का प्रकाशन भी पवरी या भिलाली बोलियों में किया गया। पहली बार बच्चों को उनकी बोली की किताबें मिल सकीं।

शिक्षकों ने 'अमर केन्या' (हमारी कथाएं) में कुल 12 आदिवासी कहानियों को समेटा। इसके अलावा सामाजिक विषयों पर 'अम्रो जंगल' (हमारा जंगल) और 'आदिवासी वियाब' (आदिवासी विवाह) जैसी किताबों को लिखा गया। केवल सिंह गुरूजी ने 'अम्रो जंगल' में यहां की कई जड़ी-बूटियों का महत्व बताया। खुमान सिंह गुरूजी ने 'रोज्या नाईक, चीमा नाईक' किताब में अंग्रेजी हुकूमत के वक्त संवरिया गांव के संग्राम पर रोशनी डाली। ऐसी किताबों में आदिवासी समाज का इतिहास, साहित्य, कला, संस्कृति और परंपराओं से लेकर स्थानीय भूगोल, प्रशासन और कानूनी हक तक की बातें होती हैं।

एक तरफ विस्थापन से विकराल आशंकाओं का इतना भारी बोझ है और दूसरी ओर जीवनशाला के नन्हें बच्चों के हाथों में खुली किताबों-सा खुला आसमान है।

हर किताब जैसे कुदरत के साथ दोस्ताना रिश्ता बनाने का संदेश देती है। पढ़ाई को दिलचस्प बनाने के लिये अनेक तरीको को अजमाया गया। जैसे कि 'अक्षर ओलखान' (अक्षरमाला) में यहां की बोली के मुताबिक अक्षरों की पहचान और जोड़ना सिखाया गया है। इसमें कई आवाजों को निकालकर या आसपास की चीजों से मेल-जोल कराना होता है। नाच-गाना, चित्र और खेलों से पढ़ाई मनोरंजक बन जाती है। लिखने की कई विधियों को भी बार-बार दोहराया जाता है।जीवनशाला से निकली पहली पीढ़ी अब तैयार हो चुकी है। जो अब शिक्षक बनकर अपने संस्कारों को आगे बढ़ा रहे हैं। हालांकि विस्थापन की प्रक्रिया ने उन्हें एक ऐसे बाज़ार में खड़ा कर दिया है, जहां जीवन की राह निकाल पाना मुश्किल है।

विस्थापन यानी दोबारा या बार-बार बसना, सरकारी योजना का लाभ न उठा पाना, कानूनी हक से बेदखल, मेजबान समुदाय की आनाकानी, नया समायोजन, शोषण, यौन उत्पीड़न, अधिक व्यय, हिंसा, अपराध, अव्यवस्था, संसाधन या सीमित जमीन, निर्णय की गतिविधि से कटाव, अस्थायी मजदूरी, मवेशियों का त्याग, प्रदूषण, सुविधा व स्वास्थ्य संकट। एक तरफ बांध के कारण विस्थापन से विकराल आशंकाओं का इतना भारी बोझ है और दूसरी ओर जीवनशाला के नन्हें बच्चों के हाथों में खुली किताबों-सा खुला आसमान है, जहां उन्हें बहुत-सी परीक्षायें पास करनी हैं।

 

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