नया विकास मॉडल हिमालय के लिये चिन्ता का विषय है - श्री भट्ट

9 Jun 2018
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चण्डी प्रसाद भट्ट
चण्डी प्रसाद भट्ट


गाँधीवादी, चंडी प्रसाद भट्ट पर्यावरणीय मुद्दों से सरोकार रखने वाले देश की नामचीन हस्ती हैं। इन्होंने गोपेश्वर में ‘दशोली ग्राम स्वराज्य संघ’ (1964) की स्थापना की और 1973 में चिपको आन्दोलन से जुड़े। समाज और पर्यावरण से जुड़े कार्यों के लिये इन्हें मैग्सेसे पुरस्कार, गाँधी शान्ति पुरस्कार और पद्मश्री, पद्मविभूषण जैसे सम्मान से नवाजा जा चुका है।

चण्डी प्रसाद भट्टचण्डी प्रसाद भट्टहिमालय की चिन्ता जिस तरह से हिमालय में रहने वाले लोग कर रहे हैं उससे अधिक हिमालय का दोहन देश के सत्तासीन लोग करते आये हैं। इतिहास गवाह है कि भारी जन-धन की हानि के पश्चात ही सरकारों की नींद खुलती है।

इन मुद्दों पर पिछले दिनों पर्यावरणविद चण्डी प्रसाद भट्ट से उनके देहरादून प्रवास के दौरान खुलकर चर्चा हुई। वे काफी चिन्तित थे कि मौजूदा समय में मौसम का जो चक्र बदल रहा है वह बहुत ही खतरनाक साबित हो सकता है। लोग भी प्राकृतिक संसाधनों को लेकर चिन्तित हैं। वे कह रहे थे कि सिविल सोसाइटी द्वारा प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के काम जो हो रहे हैं वे भी नीतिगत मामलों में पिछड़ते ही जा रहे हैं, यही दुखद है।

संरक्षण और दोहन में सन्तुलन

गाँधी शान्ति पुरस्कार से सम्मानित, पद्मविभूषण व पर्यावरणविद चण्डी प्रसाद भट्ट इस बात को लेकर चिन्तित हैं कि हिमालय के विकास का मॉडल अब तक सामने नहीं आ पाया है। पिछले 20 वर्षों से हिमालय में आपदा ने घर बना लिया है। हिमालय क्षेत्र में हर विकास के कार्यों में प्राकृतिक आपदा के न्यूनीकरण के प्रावधान की दरकरार है।

भारत, चीन, नेपाल और भूटान को पारिस्थितिकी के बाबत संयुक्त मोर्चा बनाने की आवश्यकता है। कोसी और घाघरा (गंगा की सहायक नदियाँ) सियांग (ब्रह्मपुत्र) और सतलुज जैसी नदियों की बाढ़ों से सुरक्षा के लिये यह संयुक्त मोर्चा बेहद जरूरी होगा।

साथ-ही-साथ ऐसी परिस्थिति के लिये पूर्व सूचना तंत्र विकसित करना आज की जरूरत है। इसी कारण संयुक्त नीति और संयुक्त सुरक्षा की बात विकसित हो पाएगी।

मानवीय हलचल

दरअसल हिमालय में दोहन व संरक्षण का काम साथ-साथ चलना चाहिए जो सच में हो नहीं रहा है। हिमालय के पहाड़ नाजुक हैं। अभी भी टूटना और बनना इनके स्वभाव में जारी है। इस परिस्थिति को समझने में हमें देर हो रही है।

भूकम्प, हिमस्खलन, भूस्खलन, बाढ़, ग्लेशियरों का टूटना और नदियों का अवरुद्ध होना आदि इसके अस्तित्व से जुड़े हैं। इसीलिये इन ऊँचाई वाले जगहों पर मानवीय हलचलों को सन्तुलित करना होगा।

उन्नीसवीं और बीसवीं सदी की आपदाओं को अगर छोड़ भी दिया जाये तो साल 2000 से अब तक लगभग हर साल कोई-न-कोई बड़ी आपदा जरूर आई है। वे बातचीत के दौरान कह रहे थे कि प्राकृतिक आपदाओं के साथ-साथ मानव निर्मित कारणों की भी गम्भीरता से पड़ताल करनी होगी।

1970 की अलकनंदा की बाढ़ को विध्वंसक बनाने में जंगलों के कटान का योगदान रहा था। यही वजह रही कि इन्हीं दिनों वनों को बचाने के लिये चिपको आन्दोलन की शुरुआत हुई।

अब देखिए 70 के दशक में वन कटान भारी मात्रा में हुआ और 2013 आते-आते अन्धाधुन्ध पहाड़ों में जल विद्युत परियोजनाएँ बनने लगीं, जिसका हस्र केदार आपदा के रूप में सामने आई। फिर भी हम नहीं समझ रहे हैं और सड़कों का अवैज्ञानिक निर्माण, विस्फोटकों का अनियंत्रित इस्तेमाल और नदी क्षेत्रों में निर्माण कार्यों पर जोर दे रहे हैं।

मौसम परिवर्तन और हम

यह तो दिखाई दे रहा है कि एक तरफ बाढ़ वहीं दूसरी तरफ सुखाड़। ऐसा शायद 20 वर्षों के अन्तराल में ही देखने को मिला है। नई तकनीक और भारी-भरकम शोध इस परिस्थिति में काम नहीं आ रहे हैं और विनाशकारी आपदाएँ परम्परा बनती जा रही हैं।

भूजल पाताल तक पहुँच गया, हवा जहरीली हो गई इसलिये चिपको आन्दोलन आज अधिक प्रासंगिक हो गया है। ऐसे हालात के लिय़े अंधाधुंध विकास ही जिम्मेदार हैं। जिम्मेदार लोगों को कम-से-कम महसूस होना चाहिए था कि हिमालय की पहाड़ियों या अन्य पहाड़ियों पर वनस्पतियों को बचाना होगा।

इन्हें यह भी याद करना होगा कि देश के मैदानी हिस्से हिमालय से निकली नदियों द्वारा लाई गईं मिट्टी से निर्मित हुए हैं। हिमालय में होने वाली किसी भी पर्यावरणीय घटना से नदियाँ प्रभावित होती हैं और मैदानों को प्रभावित करती हैं। आज यही स्थिति है।

हमारी नदियाँ

हम और हमारे नीति नियन्ताओं को नहीं दिखाई दे रहा है कि नदियाँ बारिश के मौसम में हिमालय से बड़ी मात्रा में मिट्टी लाती हैं जिससे नदियों का तल उठता जा रहा है। बारिश में बाढ़ आती है तो गर्मी में नदियों में पानी नहीं होता।

भूजल नीचे जा रहा है, कृषि क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित हो रहा है और पेयजल की समस्या उठ खड़ी हुई है। सिंचाई के लिये पर्याप्त पानी उपलब्ध न हो पाने के कारण कृषि विकास दर निम्न स्तर पर पहुँच गया है। समझना यह है कि बड़े वृक्षों के साथ ही छोटी वनस्पतियों के संरक्षण की जरूरत है।

आपदा तो आएगी हम उसे रोक नहीं सकते लेकिन उसके प्रभाव को कम जरूर कर सकते हैं। छोटी वनस्पतियाँ पानी रोकती हैं और उस पानी को धीरे-धीरे धरती सोख लेती है। उससे एक तरफ आपदा नियंत्रित होती है तो दूसरी तरफ नदियाँ, नाले और झरने सदानीरा बने रहते हैं। प्रकृति का यही शाश्वत नियम है, लेकिन आधुनिक विकास में इस नियम को नकार दिया गया है।

हमारे लिये नदियों के मायने

मिट्टी, जल, वनस्पतियाँ, जंगल आदि सिर्फ मानव-जीवन व पर्यावरण को प्रभावित करते हैं। यह मानव समाज द्वारा निर्मित कार्बन को धारण कर अपने में समेट लेते हैं। हिमालय से निकलने वाली गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु देश की 43 प्रतिशत भूमि में फैली हुई हैं।

नेपाल में चार दर्जन के लगभग छोटी-बड़ी नदियाँ भी गंगा की सहायक नदियों घाघरा, बूढ़ी गंडक, गंडक, कोसी आदि में समाहित होती हैं। इन नदियों में देश के सकल जल का 63 प्रतिशत बहता है। इन नदियों में गंगा का महत्त्व किसी से छिपा नहीं है। यह आस्था से जितनी जुड़ी है उससे अधिक हमारे अस्तित्व से जुड़ी है। इसका बेसिन भारत के 26 प्रतिशत क्षेत्र में फैला है और देश के कुल जल का 25 प्रतिशत गंगा व उसकी सहायक नदियों में बहता है।

भारत के नौ राज्यों में गंगा के बेसिन का फैलाव है और देश की 41 प्रतिशत आबादी इसके बेसिन में निवास करती है। दुनिया की आक्रामक नदियों में से एक मानी जाने वाली ब्रह्मपुत्र हिमालय की कैलाश पर्वत शृंखला के उत्तरी भाग से निकलकर तिब्बत (चीन) में सांगपो के नाम से जानी जाती है।

अरुणाचल प्रदेश में इसे सियांग कहा जाता है। आगे दिवांग-लोहित आदि नदियों से मिलने के बाद यह ब्रह्मपुत्र बन जाती है। ब्रह्मपुत्र भारत में लगभग 33 प्रतिशत से अधिक जलराशि का योगदान करती है। सिंधु नदी तिब्बत से निकलकर जम्मू-कश्मीर में प्रवेश करती है जिसके बाद वह पाकिस्तान चली जाती है। सिंधु बेसिन का भी भारत में क्षेत्रफल 9.8 प्रतिशत है।

निवारण की ओर कदम

नदी के प्रभाव क्षेत्र में घुसपैठ तथा अनियंत्रित शहरीकरण जैसे पक्षों की गहरी व सतर्क व्याख्या जब तक नहीं होगी हम कारण भी नहीं जान सकेंगे, निवारण तो दूर की बात है। इसी तरह, हिमालय में किसी भी तरह की मानवीय छेड़छाड़ से पहले वैज्ञानिक सलाह और नियोजन की प्रक्रियाओं की ओर बढ़ाना होगा।

समय रहते यह सब योजनागत तरीके से करना होगा वर्ना आने वाले समय में विभत्स प्राकृतिक त्रासदी को नकारा नहीं जा सकता। फिर हम चाहे अपनी जिम्मेदारी को कितना ही क्यों ना कोसें।

भंयकर आपदा का दंश

साल 2000 की सिंधु-सतलुज और सियांग-ब्रह्मपुत्र की बाढ़, 2004 में पारिचू झील बनने और टूटने से आई सतलुज की बाढ़, 2008 की कोसी की बाढ़, 2013 में उत्तराखण्ड में भारी भूस्खलन और बाढ़ को अनियोजित व अवैज्ञानिक विकास का हस्र माना जा रहा है।

1970 की अलकनंदा की बाढ़ को विध्वंसक बनाने में जंगलों के कटान का योगदान माना गया है। जबकि वैज्ञानिकों के अनुसार 1894 में अलकनंदा में आई बाढ़ पूरी तरह प्राकृतिक बताई गई थी। महसूस कीजिए कि 1894 के बाद जो भी आपदा आई है वे सभी मानवीय हस्तक्षेप के कारण आई है। यही सवाल सिर चढ़कर बोल रहा है।

 

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