नये पुरुषार्थ का प्रारम्भ हिमालय से हो

25 Jun 2010
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मेरी सहज समर्पित सेवाओं के लिए मुझे जो सम्मान दिया गया है, उसको मैं समाज का स्नेहपूर्ण आशीर्वाद मानती हूं।

दोबातों के लिए मैं अपने को बहुत सौभाग्यशाली मानती हूं. पहली बातयह कि मेरा जन्म हिमालय में एक बहुत गरीब गांव में एक अत्यन्त साधारण अर्थ-स्थिति वाले किन्तु उच्च संस्कारों से पूर्ण पिरवार में हुआ। दूसरी बात यह कि अपनी किशोरावस्था से ही मुझे पूज्या सरला बहनजी के सान्निध्य में काम करने और रहने का अवसर मिला।

यह सम्मान मेरी व्यक्तिगत शक्तियों का नहीं, मेरी प्रिय संस्था लक्ष्मी आश्रम के मेरे सहयोगी भाई-बहनों, उत्तराखण्ड के समर्पित सर्वोदय साथियों तथा सर्वाधिक तो गांवों की उन हजारों-हजार महिलाओं के पुरुषार्थ का सम्मान है, जिनके साथकाम करके मेरा जीवन और अन्तर समृद्ध हुआ है।

यद्यपि यह पुरुषार्थ एक पीढ़ी का सतत पुरुषार्थ कहा जायेगा, तो भी हिमालय की हिमालयाकार समस्याओं के समुद्र में यह एक बूंद के बराबर ही है। मैं तो कहूंगी कि आगे और भी अधिक करने की जरूरत है, क्योंकि हिमालय के निसर्ग व हिमालय के निवासियों के सामने और भी चुनौतीपूर्ण समस्यायें आ रही हैं। अतः पहले से भी अधिक शक्ति, समर्पण, विवेक एवं जिम्मेवारी के साथ हमें काम करना होगा। इस रूप में यह दिन मेरे लिए खुशी के दिन से भी अधिक जिम्मेवारी महसूस करने का दिन है।

सब जानते हैं कि हिमालय में ग्राम्य जीवन की मेरुदंड वहां की स्त्री है। उसके जीवन के कष्टों की अनेक कथायें कही गयी हैं। उनकी पीठ के बोझ जिसकी कठोर अनुभूति मुझे स्वयं भी है, पर फिर भी न जाने कितना कहा व लिखा गया है, किन्तु वास्तविकता यह है कि दुनिया भर के विकास कार्यों तकनीकी प्रगतियों एवं करोड़ो रुपयों की योजनाओं के बावजूद पहाड़ी स्त्री के कष्टों में कमी होने के बजाय कुछ वृद्धि ही हुई है। घास, ईंधन पानी का बोझ वहीं है। उसको ढोने की दूरियां और भी बढ़ा दी गई हैं। क्योंकि जीवन मूल्यों में आये वर्तमान परिवर्तन ने पैसे को देवता और प्रकृति को उपभोग की वस्तु बना दिया है। मनुष्य जोकि इन सबका उपभोक्ता बन गया है, प्रकृति में सिर्फ अपना अस्तित्व देखता है। मानवेतर सृष्टि का उसके लिए कोई मूल्य ही नहीं है। विकास की गलत अवधारणा की नकल करने से यह परिणाम आ रहे हैं।

पिछले 3-4 दशकों में हिमालय के जल-स्रोतों का एक बड़ा प्रतिशत सूख गया है। चारागाहों व गांव की पंचायती भूमि का क्षेत्र प्रायः समाप्त हो गया है। उत्तराखण्ड की जीवन्त नदियों को नष्ट किया जा रहा है। पहाड़ की अधिकांश कृषि उपजाऊ भूमि को विभिन्न बांधों, नगरीकरण एवं औद्योगीकरण जैसी योजनाओं के नीचे दबा दिया जा रहा है, जबकि भूमि के अभाव वाले इस क्षेत्र में प्रति 17 व्यक्तियों के लिए एक हैक्टर भूमि है।

पहाड़ की कृषि महिलाओं की कृषि है। उसके सतही कृषि योजनाओं को लागू करने के उपरान्त भी क्या उपयुक्त विनाशों के बाद यहां की स्त्री को लाभ की आशा दिलाई जा सकती है?

हमारे विकास कार्य पहाड़ी स्त्रियों से उनके बुनयादी अधिकार छीन ले रहे हैं, क्योंकि मैं पहाड़ी स्त्री की तेजस्विता का कारण प्रकृति के बीच उनकी स्वतंत्र परिश्रमी जीवन शैली को मानती हूं।

कभी हिमालय घी-दूध, मधु एवं फलों, जड़ी-बूटियों, कन्दमूलों, और छलकती नदियों व चमकते झरनों का प्रदेश था। आज दूध के पाउडर, डालडा व चीनी के लिए उसे हाथ पसारे प्रतीक्षा करनी पड़ती है। बहुराष्ट्रीय उत्पादों ने सुदूर गिरि कन्दराओं में रहने इंसान को भी जकड़ कर रख दिया है। यहां की संस्कृति व मौलिक कलायें भी भोगवादी विकास के कोलाहल में अपनी महत्ता खो बैठी हैं। यह क्यों हो गया? कारण एक ही है कि गांधी जी द्वारा प्रतिपादित विकेन्द्रीकरण का महत्व हमने नहीं समझा। गांधीजी की चेतावनियों के बावजूद हमने केन्द्रिरत व्यवस्था द्वारा औद्यौगिक विकास की नीति रखी। स्वतंत्रता के मान पर हमने पूंजी और यंत्रों की गुलामी स्वीकार की।

केन्द्रित सरकार, केन्द्रित पूंजी, केन्द्रित उद्योग और केन्द्रित नियंत्रण, जहां तंत्र के सामने व्यक्ति का व्यक्तित्व कुचल जाता है और धुआंधार लाभ की व्यक्तिगत आकांक्षओं के सामने का सामूहिक उत्थान बिखर जाता हैं। इस सबके भयंकर परिणाम हम आज पूरे देश में देख रहे हैं, पर आज भी क्या हम चेत रहे हैं?

इसका विकल्प बापू ने गांव-गांव में चलने वाले रचनात्मक कार्यों के व्यावहारिक स्वरूप द्वारा दिया था रचनात्मक कार्य, यानी गांव के हाथों में गांव की रटी, गांव का कपड़ा और गांव का शासन, गांव का ही उत्पादन व गांव द्वारा ही उपयोग गांव के ही संसाधन एवं उन्हीं के द्वारा संरक्षण, यह ऐसी कुंजी दी थी, उस युग पुरुष ने जो उपभोगवाद की विनाशलीला तथा पैसे और सौदे की विश्वव्यापी मार की सीधी काट थी, पर हम यानी चोटी से जड़ तक सभी, योजनाकार, कर्णधार, बुद्धिजीवी, समाजसेवी, यहां तक कि स्वयं रचनात्मक कामों में लगे अधिकांश लोग भी इसे नहीं समझ पाये कि गांधी का रचनात्मक कार्य जीवन दिशा के परिवर्तन व विचार परिवर्तन का एक आरोहण था, मात्र एक स्थूल प्रवृत्ति नहीं था। उनके रचनात्मक कार्य आजाद भारत की आजादी के बारे में बापू की परिकल्पना को स्पष्ट करते थे। खादी, ग्रामोद्योग, शराबबंदी, हरिजन सेवा, बुनियादी शिक्षा आदि कार्य आजादी की उनकी कल्पना के वाहक थे। उनके जरिये वे देश के हर नागरिक और देश के हर गांव को स्वतंत्र, स्वालंबी व निर्भीक बनाना चाहते थे, ताकि आजादी दिल्ली में न अटक जाय, बल्कि इस देश के गांव-गांव व बच्चे-बच्चे तक पहुंच सके।

सन् 1934 में बंगाल के कुछ नौजवानों ने बापू से नाराजगी में प्रश्न किया था- “रचनात्मक काम का स्वराज्य प्राप्ति से क्या संम्बंध?”

बापू ने कहा – “मैं बंगाल में ‘सिंहवृत्ति’ जगाना चाहता हूं। खादी व रचनात्मक कार्य गांवों में ‘सिंहवृत्ति’ का काम करें, इन्हें देखकर लोगों को आत्मज्ञान होगा, लोगों की ‘सिंहवृत्ति’ जगेगी।”

उस महान दृष्टा के ‘पांचवे पुत्र’ ‘स्वर्गीय श्री जमनालाल जी ने रचनात्मक कार्यों की अन्तर-शक्ति को समझा था।

गांधी के इस देश में अनेक आदिवासियों, अनेक ग्रामवासियों और अनेक पहाड़ियों ने अपनी सिंहवृत्ति प्रकट की है। जैसे उत्तराखण्ड की ग्रामीण अनपढ़ परन्तु क्रांतिकारिणी स्त्रियों ने ‘शराबबन्दी’ तथा ‘चिपको’ आन्दोलनों के द्वारा कहा – ‘उत्तराखण्ड देश को शराब द्वारा कमाया गया राजस्व नहीं वरन उपजाऊ’ मिट्टी देगा, इसकी नदियां केंद्रीकरण के अमर्यादित भोग के लिए विद्युत नहीं, वरन अमृत रूपी जल से देश के प्राणों को सींचेंगी। यहां के वन नकद कमाई के लिए इमारती लकड़ी नहीं, वरन प्राणवायु एवं रोजमर्रा का ईंधन देंगे, यानि हिमालय देश को एक स्थाई जीवन की व्यवस्था देगा’।

मुझे मालूम नहीं कि हम में से कितनों ने स्त्रियों के सन्देश के सूक्ष्म हार्द को समझा है, पर अभी हमें समझना ही होगा। हमें विकेन्द्रीकरण यानी ग्राम स्वराज्य पर आधारित नई वन नीति, नई कृषि नीति व नई उद्योग नीति देश को देनी होगी, जिसका श्रीगणेश देश के शीर्ष स्थल हिमालय क्षेत्र से किया जाय, जहां अनेकों स्त्री समूह इनके प्रति जागृत हैं। जिनके द्वारा इस संवेदनशील क्षेत्र की रक्षा होगी ताकि वह देशकी रक्षा कर सके।

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