ओडिशा व बिहार में पेयजल की कमी

भारत में पेयजल की समस्या करीब-करीब सभी राज्यों में हैं, लेकिन बिहार और ओडिशा में पेयजल संकट घटने के बजाय दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है। यह दोनों ऐसे राज्य हैं, जहाँ बड़ी-बड़ी नदियाँ हैं। दूसरे राज्यों की तमाम नदियाँ भी इन राज्यों में स्थित नदियों में समाहित होती हैं। यही वजह है कि यह दोनों राज्य अकसर बाढ़ की चपेट में रहते हैं। कहने का मतलब यहाँ पानी तो भरपूर है, लेकिन पीने योग्य पानी की भारी कमी है।

भारत में पेयजल की समस्या करीब-करीब सभी राज्यों में हैं, लेकिन बिहार और ओडिशा में पेयजल संकट घटने के बजाय दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है। यह दोनों ऐसे राज्य हैं, जहाँ बड़ी-बड़ी नदियाँ हैं। दूसरे राज्यों की तमाम नदियाँ भी इन राज्यों में स्थित नदियों में समाहित होती है। यही वजह है कि यह दोनों राज्य अकसर बाढ़ की चपेट में रहते हैं। कहने का मतलब यहाँ पानी तो भरपूर है, लेकिन पीने योग्य पानी की भारी कमी है। इसी तरह ओडिशा का सबसे बड़ा दर्द है यहाँ आए दिन आने वाले चक्रवाती तूफान और बाढ़। इसकी वजह से ओडिशा हर बार उजड़ जाता है। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक ओडिशा की 710 बस्तियाँ फ्लोराइड, 70 एल्युमिनियम और 357 आर्सेनिक से प्रभावित है। ओडिशा में पेयजल की प्रदूषण प्रभावित गुणवत्ता वाली बसावटें 13,617 हैं। जबकि छत्तीसगढ़ में इनकी संख्या 6,708, कर्नाटक में 6,570, त्रिपुरा में 5,548 और पश्चिम बंगाल में 4,248 है। हालाँकि 2013-14 में 18447 बस्तियों में शुद्ध पेयजल पहुँचाने का प्रयास किया गया जबकि इस वर्ष 19538 बस्तियों में पानी पहुँचाने का लक्ष्य रखा गया है।

आँकड़ों के मुताबिक विश्व के 1.5 अरब लोगों को पीने का शुद्ध पानी नहीं मिल रहा है। धरती पर 70 प्रतिशत से ज्यादा भाग में सिर्फ जल ही पाया जाता है। लेकिन यह पानी पीने के योग्य नहीं है। शहरीकरण की वजह से अधिक सक्षम जल प्रबन्धन और बढ़िया पेयजल और सेनिटेशन की जरूरत पड़ती है। लेकिन शहरों के सामने यह एक गम्भीर समस्या है। दूषित जल के सेवन की चपेट में आने वाले लोगों के चलते हर साल देश की अर्थव्यवस्था को अरबों रूपये का नुकसान उठाना पड़ता है। बिहार, ओडिशा सहित कई राज्यों के अलग-अलग हिस्सों में आम लोग दूषित जल के सहारे जीवन-यापन करने को मजबूर हैं। इसका एक बड़ा कारण वाटर पाइप का लीकेज भी है। यहाँ की वाटर पाइप लाइन के लीकेज होने से 30 से 40 फीसदी पानी प्रदूषित हो जाता है, इस पर किसी की नजर नहीं है।

विकास की दौड़ में शामिल बिहार में जब पेयजल के हालात का आकलन किया जाता है तो यह काफी पीछे खिसक जाता है। प्राकृतिक आपदाओं में बाढ़ और सूखा बिहार की बर्बादी के दो प्रत्यक्ष कारण हैं। यह दोनों कारण जलजनित हैं। शुद्ध पानी न होने की वजह से बिहार के तमाम हिस्से में आए दिन बीमारियाँ फैलती रहती हैं। ये जलजनित बीमारियाँ बिहार की बर्बादी में अप्रत्यक्ष भूमिका निभा रही हैं। पिछले वर्ष केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड ने देश के 17 राज्यों में 241 नगरों का सर्वेक्षण किया है। इस सर्वे के मुताबिक सभी शहरों में 90 प्रतिशत जल प्रदूषण की समस्या है। बिहार में गया, जमुई, लक्खीसराय, बेगूसराय आदि जिलों के 46 गाँवों के जल नमूनों की जाँच की गई। इसमें 1.5 पीपीएम फ्लोराइड पाया गया जोकि सामान्य से अधिक है। बिहार की राजधानी पटना में कुल 40 गन्दी बस्तियाँ है। इन गन्दी बस्तियों के दो तिहाई हिस्से में पानी की सुविधा तो है लेकिन, पानी की आपूर्ति तथा स्वच्छता असन्तोषजनक स्थिति में है। पटना में शुद्ध भू-जल 168 मीटर तक की गहराई में मिलता है। यहाँ नदी, तालाब एवं ऊपरी सतह का जल पीने के लायक नहीं रह गया है।

स्थिति साफ है कि 38 जिलों वाले बिहार राज्य के आठ जिलों का पानी ही आँखें मूँदकर पीने लायक है, शेष 30 जिलों के इलाके आर्सेनिक, फ्लोराइड और आयरन से प्रभावित हैं। इन्हें बिना स्वच्छ किए नहीं पी सकते। गंगा बेसिन के 13 जिलों में पानी आर्सेनिक-युक्त है। आर्सेनिक युक्त पेयजल के उपयोग से चर्म, उदर और अस्थि रोग होते हैं। इन दिनों गंगा को प्रदूषण मुक्त करने की कवायद चल रही है। ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि गंगा सफाई अभियान का असर बिहार वासियों पर भी पड़ेगा। फिलहाल केन्द्र सरकार की ओर से राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल योजना के तहत बिहार के नौ जिलों के 613 गाँवों को शुद्ध पानी उपलब्ध कराने की कवायद चल रही है। अकेले मधुबनी में 89.90 लाख रूपये खर्च किया जा रहा है। इसी तरह शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराने के लिए सुपौल के 72 गाँवों में मिनी पाइपलाइन डाली गई हैं। जहानाबाद के नेबारी गाँव की जर्जर हो चुकी ग्रामीण पाइपलाइन जलापूर्ति योजना का पुनर्गठन किया जा रहा है। इस पर करीब 4.63 लाख रूपये खर्च किए जा रहे हैं। इसके साथ ही हैण्डपम्पों में वाटर प्यूरीफिकेशन यन्त्र लगाने से लेकर बड़े-बड़े वाटर ट्रीटमेंट प्लांट प्रभावित इलाकों में लगाए गए हैं। इसके बाद भी अभी शुद्ध पेयजल का संकट बना हुआ है। राजीव गाँधी राष्ट्रीय पेयजल योजना मिशन के अन्तर्गत बिहार के प्रत्येक जिले में पानी गुणवत्ता की जाँच के लिए 33 पेयजल गुणवत्ता प्रयोगशाला स्थापित करने के लिए कुल 76.62 करोड़ रूपये केन्द्र सरकार की ओर से दिए गए थे। पेयजल संकट से उबरने के लिए ही केन्द्र ने पेयजल मिशन योजना के अन्तर्गत संचालित त्वरित ग्रामीण जलापूर्ति के तहत बिहार को दूसरी किश्त के रूप में 76.65 करोड़ रूपये भी जारी किए।

नदियों के प्रदेश में पीने योग्य शुद्ध पानी का संकट


बिहार के उत्तर में नेपाल, पूर्व में पश्चिम बंगाल, पश्चिम में उत्तर प्रदेश और दक्षिण में झारखंड स्थित है। यह क्षेत्र गंगा नदी तथा उसकी सहायक नदियों के उपजाऊ मैदानों में बसा है। गंगा के कुल 2525 किलोमीटर बहाव क्षेत्र में से 445 किलोमीटर भू-भाग बिहार का है। बिहार के भू-भाग में गंगा के पाट काफी चौड़े और विस्तृत हैं, लेकिन उसकी धारा में बहने वाला पानी सहायक नदियों का है। फिर भी बिहार कभी सूखे तो कभी बाढ़ से कराहता रहता है। बिहार की 65 फीसदी आबादी को शुद्ध पेयजल उपलब्ध नहीं। उत्तरी बिहार बागमती, कोसी, बूढ़ी गंडक, गंडक, घाघरा और उनकी सहायक नदियों का समतल मैदान है। सोन, पुनपुन, फल्गू तथा किऊल नदी बिहार में दक्षिण से गंगा में मिलने वाली सहायक नदियाँ हैं। उत्तर में हिमालय पर्वत की नेपाल श्रेणी है। हिमालय से उतरने वाली कई नदियाँ तथा जलधाराएँ बिहार होकर प्रवाहित होती हैं और गंगा में विसर्जित होती हैं। वर्षा के दिनों में इन नदियों में बाढ़ एक बड़ी समस्या है। बिहार का कुल भौगोलिक क्षेत्र लगभग 93.60 लाख हेक्टेयर है, जिसमें से केवल 56.03 लाख हेक्टेयर पर ही खेती होती है। राज्य में कुल 43.86 लाख हेक्टेयर भूमि पर ही सिंचाई सुविधाएँ उपलब्ध हैं। लेकिन बिहार के लोगों को हर वर्ष बाढ़ और कटाव का दंश झेलना पड़ता है।

उत्तर बिहार के कुछ ऐसे इलाके भी हैं जहाँ दस फीट पर ही पानी निकल आता है। मगर मध्य बिहार में कम पानी वाले ऐसे इलाके भी हैं जहाँ गर्मी के दिनों में जलस्तर गिरने से जलापूर्ति के स्रोत, हैण्डपम्प बेकार साबित हो जाते हैं। गंगा किनारे बसे मध्य बिहार के जिलों के लोग आर्सेनिक युक्त पेयजल पीने को विवश हैं। पेयजल में आर्सेनिक और फ्लोराइड की अधिक मात्रा से होने वाले नुकसान जगजाहिर हैं। जिस व्यक्ति के शरीर पर आर्सेनिक का प्रभाव होता है, उसे त्वचा कैंसर हो जाता है। तलवा फटने लगता है। शरीर पर चकते निकलने लगते हैं। इलाज के अभाव में मौत हो जाती है। दक्षिण बिहार के लोगों को पेयजल के साथ-साथ फ्लोराइड जैसा खतरनाक रसायन भी पीना पड़ रहा है। फ्लोराइड प्रभावित रोगी के शरीर में घुटने में दर्द होने व सूजन होने सहित दाँत में पीलापन की शिकायत होती है। अगर फ्लोराइड की मात्रा काफी अधिक हो तो हड्डियाँ कमजोर हो जाती हैं। वहीं बाढ़ के दौरान जल जमाव से लोगों को अकसर हैजा, टाइफाइड, मलेरिया, डेंगू और पीले बुखार जैसी बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। इतना ही नहीं यहाँ लगे हैण्डपम्प आयरन मुक्त जल देने लगते हैं। राज्य के कोसी और मिथिलांचल इलाके का बच्चा-बच्चा जानता है कि यह पीलापन पानी में आयरन की अत्यधिक मात्रा की वजह से आता है। इसी वजह से इस इलाके के लोग सफेद और हल्के रंग का कपड़ा कम खरीदते हैं, क्योंकि अगर यहाँ के पानी में उसे साफ किया जाए तो बहुत जल्द कपड़े पर पीलापन छाने लगता है। यह आरयरनयुक्त पानी लोगों का पाचनतन्त्र खराब रखता है। गैस और कब्जियत लोगों का पीछा नहीं छोड़ती है। राज्य सरकार के आँकड़ों के मुताबिक यहाँ के नौ जिलों के 101 प्रखण्डों की 18,673 बस्तियों के लोग तयशुदा मानकों से अधिक आयरन की मात्रा पेयजल में ले रहे हैं।

पेयजल के दर्द से कहराता ओडिशा


देश के नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने एक रिपार्ट में कहा है कि राज्य प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड के आँकड़ों के मुताबिक 2005-06 से 2008-09 के बीच से फलाई-ऐश का कुल जमाव 3.699 करोड़ टन हुआ, जो 2009-10 से 2013-14 के बीच 5.221 करोड़ टन और बढ़ गया, यानी कुल 8.92 करोड़ टन फ्लाई-ऐश का ढेर लग गया। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि 2013-14 के बीच फ्लाई-ऐश के उपयोग का अनुपात हालाँकि 43.93 फीसदी से बढ़कर 61 फीसदी हो गया है। इससे जल एवं वायु प्रदूषण का बढ़़ना तय है।

भारत के पूर्वी तट पर स्थित ओडिशा के उत्तर में झारखंड, उत्तर पूर्व में पश्चिम बंगाल, दक्षिण में आंध्र प्रदेश और पश्चिम में छत्तीसगढ़ राज्य है। यह राज्य भी अकसर बाढ़ एवं सूखे से प्रभावित रहता है। दक्षिण में महानदी, ब्राह्मणी, सालंदी और बैतरणी नदियों का उपजाऊ मैदान है। यह पूरा क्षेत्र मुख्य रूप से चावल उत्पादक क्षेत्र है। यहाँ तीव्र चक्रवात की वजह से भी अकसर तबाही मचती है। एक अक्टूबर 1999 को आए सबसे तीव्र उष्णकटिबंधीय चक्रवात ने ओडिशा को ऐसा दर्द दिया, जिसे आज तक भुलाया नहीं जा सका है। ओडिशा के संबलपुर के पास स्थित हीराकुंड बाँध विश्व का सबसे लम्बा मिट्टी का बाँध है। लेकिन जब बात पेयजल की आती है तो ओडिशा की स्थिति दयनीय हो जाती है। इस राज्य के तमाम हिस्से शुद्ध पेयजल के लिए जूझ रहे हैं। ओडिशा के करीब 80 प्रतिशत भाग में चावल उगाया जाता है। इसके अलावा फलों, ड्राई फूट आदि की भी खेती होती है।

बात जब ओडिशा की होती है तो कालाहांडी का जिक्र किए बिना अधूरी रहती है। यहाँ 80 फीसदी भू-जल विषाक्त है। फ्लोराइड की मात्रा अधिक होने की वजह से तमाम गाँवों के लोग समय से पहले ही बुजुर्ग दिखाई पड़ते हैं। तमाम बच्चे फ्लोरोसिस नामक बीमारी से ग्रस्त हैं। अधिकांश लोगों के दाँत काले पड़ गए हैं। वहीं नागावली नदी में मिलों का पानी प्रवाहित होने की वजह से आस-पास के अन्य जलस्रोत भी विषाक्त होते जा रहे हैं। इसी कारण आस-पास के गाँवों के लोगों में नेत्र रोग, चर्म रोग सहित अनेक प्रकार के रोग बढ़ रहे हैं। दरअसल, ओडिशा में बाँधों के लिए जगह खाली करने की वजह से तमाम लोग ऐसी जगह बस गए हैं, जहाँ अभी भी शुद्ध पेयजल का अभाव बना हुआ है। राज्य में बाँधों को लेकर लम्बे समय तक संघर्ष भी चला है। इस संघर्ष के केन्द्र में शुद्ध पेयजल भी रहा। बाँध परियोजना से उद्योगों, विद्युत उत्पादन, बाढ़ नियन्त्रण, मछली पालन, पेयजल और सिंचाई जैसे लाभ का सपना दिखाया गया। काफी हद तक यह लाभ मिल भी रहा है, लेकिन शुद्ध पेयजल के मुद्दे अभी भी अधूरे हैं।

ओडिशा का बोलांगीर सूखा प्रभावित क्षेत्र है। यहाँ सिंचाई की सुविधा नहीं है। वर्षा कम होती है और पेयजल की भी कमी है। इसी तरह खापराखोल, टिटलागढ़, कांताबांझी और नौपारा ज्यादा सूखा प्रभावित क्षेत्र हैं। सुन्दरगढ़ जिले के तमाम गाँव जबर्दस्त भूमि कटाव की समस्या से ग्रस्त हैं। गाँव के ज्यादातर लोग पेयजल के लिए भू-जल पर निर्भर हैं। यह एक ग्रेनाइट वाले क्षेत्र में बसा है, जिसके नीचे डोलोमाइट, मैग्निशियम व कैल्शियम युक्त पत्थरों की कड़ी परत मौजूद है। ऐसे में गाँव के हैण्डपम्प डोलोमाइट की पट्टी में स्थित भू-जल भण्डार से पानी निकालते हैं, लेकिन इन जलभण्डारों की जल उत्पन्न क्षमता काफी कम है और पानी की गुणवत्ता ठीक नहीं है। इनमें लौह एवं कैल्शियम की अधिकता है। कोमना ब्लाॅक सहित विभिन्न इलाकों में लोगों को शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराने के लिए जल सप्लाई प्रकल्प चलाई जा रही थी, जो अब बँद हो चुकी है। इससे सम्बन्धित क्षेत्र की पेयजल व्यवस्था गड़बड़ा गई है। ऐसे में ग्रामीण इन दिनों नाला में गड्ढा खोदकर पेयजल संग्रह कर उपयोग करने को विवश हैं। इस इलाके के ज्यादातर बोर से दूषित फ्लोराइड युक्त पानी निकलता है। उक्त फ्लोराइड युक्त जल का प्रयोग करने के कारण अनेक बार ग्रामीण रोगग्रस्त हो चुके हैं।

इसी समस्या को नजर में रखकर वर्ष 2010-11 में इन दोनों गाँव के ग्रामीणों को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराए जाने के लिए 14.72 लाख रूपये की लागत से बोरवेल सहित पम्पहाउस व पाइपलाइन का विस्तार किया गया था। इसमें कोई सन्देह नहीं कि ओडिशा में दूषित पानी की वजह से बच्चों में कुपोषण फैल रहा है। पिछले दिनों रायगढ़ जिले के आदिवासी इलाके में 2050 परिवारों की जाँच में पता चला कि खराब पानी और मलेरिया ही कुपोषण की मुख्य वजह पाई गई। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) दूषित पानी पीकर 43 लोगों के बीमार होने की घटना के सम्बन्ध में राज्य सरकार को फटकार भी लगा चुका है। इस पर सरकार की ओर से ग्रामीण जल आपूर्ति और स्वच्छता (आरडब्ल्यूएसएस) विभाग को नियमित इलाके में स्थित पानी की टंकियों की सफाई कराने एवं दवा डालने का आदेश दिया गया। ओडिशा में पेयजल के प्रदूषित होने का दूसरा कारण है कोयला। बिजली उत्पादन कम्पनियों में पैदा होने वाले फ्लाई-ऐश का समुचित ढँग से उपयोग नहीं हो पाने के कारण राज्य में वायु और जल प्रदूषण की समस्या पैदा हो रही है। यहाँ अभी कोयला आधारित नौ बिजली संयन्त्रों से 2.452 करोड़ टन फ्लाई-ऐश निकलता है। आने वाले वर्षों में यदि सभी प्रस्तावित 31 बिजली संयन्त्र चालू हो जाते हैं, तो उनसे निकलने वाले फ्लाई-ऐश की मात्रा 9.25 करोड़ टन हो जाएगी।

देश के नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने एक रिपार्ट में कहा है कि राज्य प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड के आँकड़ों के मुताबिक 2005-06 से 2008-09 के बीच से फलाई-ऐश का कुल जमाव 3.699 करोड़ टन हुआ, जो 2009-10 से 2013-14 के बीच 5.221 करोड़ टन और बढ़ गया, यानी कुल 8.92 करोड़ टन फ्लाई-ऐश का ढेर लग गया। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि 2013-14 के बीच फ्लाई-ऐश के उपयोग का अनुपात हालाँकि 43.93 फीसदी से बढ़कर 61 फीसदी हो गया है। इससे जल एवं वायु प्रदूषण का बढ़़ना तय है।

(लेखक पंचायती राज विभाग से जुड़े हैं), ईमेल- palsubas91@gmail.com

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