ऑल वेदर रोड बना विदाउट वेदर रोड

27 Feb 2018
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हिमालय से सड़क के 24 मीटर से भी अधिक क्षेत्र के हरे पेड़ों का कत्लेआम इलेक्ट्रॉनिक आरियों से धड़ा-धड़ गिराकर इस तरह किया जा रहा है जैसे यह पेड़ नहीं दुश्मनों पर जीत हो। 45 हजार पेड़ काटने की स्वीकृति है किन्तु ऊपर से कितने पेड़ भूस्खलन से गिरेंगे और नीचे मलबे में कितने पेड़ दबेंगे कोई आकलन नहीं, फिर भी यह संख्या लाखों में जाएगी। सड़कों के किनारे छायादार पेड़ों को बचाया जा सकता था। ये पेड़ गर्मियों में छाया और शुद्ध हवा मुसाफिरों को देते थे। इतिहास में जहाँ सम्राट अशोक को सड़कों के किनारे छयादार पेड़ लगाने के लिये याद किया जाता है वहीं ऑल वेदर रोड को पेड़ों के कत्लेआम के लिये याद किया जाएगा।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विगत वर्ष विधानसभा चुनाव से पूर्व अंग्रेजी के बहुत सुन्दर नाम ऑल वेदर रोड को हरी झण्डी दिखाकर उत्तराखण्ड को बड़ी सौगात दी थी। चार धाम यात्रा व भारत चीन सीमा को जोड़ने वाली ये सड़क इतनी बुरी भी नहीं थी जितनी बदहाली में इससे जुड़ी ग्रामीण सड़कें हैं। इसे और सुन्दर बनाना अच्छी बात है, किन्तु सड़क पर काम शुरू होने के बाद पाँच माह होने को हैं बरसात के बाद वसंत आ गया, शरद-शिशिर सूखी ही गुजर गई।

न बारिश न बर्फ जबकि एक जमाने में अरब सागर के मिनी मानसून से उत्तराखण्ड की निचली पहाड़ियाँ भी बर्फ से ढँक जाती थी। यह ऑल वेदर तो पुरानी कहावत ‘आँख का अंधा नाम नयन सुख’ की याद दिला रही है। ऑल वेदर को प्रकृति ने विदाउट वेदर रोड कर दिया है। छः ऋतुओं वसंत, ग्रीष्म, बरसात, शिशिर, हेमन्त व शरद का क्रम तो आधुनिक विनाशकारी विकास ने जलवायु परिवर्तन कर मुश्किल में डाल दिया है। हम केदारनाथ त्रासदी जिसमें सड़कों व बाँधों के मलबे ने आग में घी का काम कर तबाही मचाई, से सबक लेने के बजाय और घातक रास्ते की ओर आगे बढ़ रहे हैं। पहाड़ों को मैदानी चश्में से देखते हुए चार-छः लेन की सड़कें बनाना चाहते हैं।

12 हजार करोड़ के भारी-भरकम बजट वाली ऑल वेदर रोड के पुनर्निर्माण में कल्पना तो यह थी कुछ नई प्रौद्योगिकी के साथ जिसमें नुकसान कम हो, सड़कें बनेंगी, किन्तु ऑल वेदर रोड ने तो इस वक्त हिमालय के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया है। बड़े-बड़े बुल्डोजर, जेसीबी व पोकलैण्ड मशीनें, डाइनामाइट की छड़ें हिमालय का सीना बेरुखी से चीर रही हैं।

हिमालय से सड़क के 24 मीटर से भी अधिक क्षेत्र के हरे पेड़ों का कत्लेआम इलेक्ट्रॉनिक आरियों से धड़ा-धड़ गिराकर इस तरह किया जा रहा है जैसे यह पेड़ नहीं दुश्मनों पर जीत हो। 45 हजार पेड़ काटने की स्वीकृति है किन्तु ऊपर से कितने पेड़ भूस्खलन से गिरेंगे और नीचे मलबे में कितने पेड़ दबेंगे कोई आकलन नहीं, फिर भी यह संख्या लाखों में जाएगी। सड़कों के किनारे छायादार पेड़ों को बचाया जा सकता था। ये पेड़ गर्मियों में छाया और शुद्ध हवा मुसाफिरों को देते थे।

इतिहास में जहाँ सम्राट अशोक को सड़कों के किनारे छयादार पेड़ लगाने के लिये याद किया जाता है वहीं ऑल वेदर रोड को पेड़ों के कत्लेआम के लिये याद किया जाएगा। उच्च हिमालय में रौसुली, थुनेर, देवदार व बांज-बुरांश आदि के सैकड़ों साल पुराने पेड़ों की भरपाई कभी नहीं होगी। कहा जा रहा है कि वनीकरण कर पेड़ों के कटान की भरपाई होगी लेकिन यह मिथ्या है। टिहरी बाँध के निर्माण के वक्त भी यही बात कही गई थी किन्तु कहीं दिखाएँ, कहाँ जंगल है।

हजारों जल स्रोत उजड़ रहे हैं, उन्हें कौन और कैसे वापिस लौटाएगा। हिमालय, गंगा व पर्यावरण की चिन्ता करने वाले आन्दोलनकारी, पर्यावरण विभाग, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, हरित न्याय सब मौन हैं। चर्चा तो करते हैं किन्तु प्रतिकार की हिम्मत नहीं। चीन का खौफ सबको चुप करा रहा है। नमामि गंगे का मंत्र जाप करने के लिये है।

पहले मानव निर्मित सड़कों से स्थानीय ठेकेदारों व श्रमिकों को रोजगार मिलता था। यहाँ तक कि सब्बल-गैंती की धार तेज करने वाले लुहारों की भी रोजी चलती थी। टिहरी गढ़वाल के प्रतापनगर के ठेकेदार तो सड़कों से सम्पन्नता की ओर बढ़े किन्तु ऑल वेदर रोड में तो बड़ी-बड़ी देशी-विदेशी कम्पनियाँ, विदेशी मशीनों व तेल कारोबारियों को ही लाभ हो रहा है।

बताया जा रहा है कि केन्द्र के एक कद्दावर नेता से जुड़ी बड़ी कम्पनी को यह काम मिला है। इधर यात्रा मार्गों पर लोगों ने अपनी छोटी-छोटी दुकानें, होटल, रेस्टोरेंट, ढाबे व खोखे बनाए थे जिससे हजारों घरों की रोजी-रोटी चलती थी। पीढ़ियों से उनका यह छोटा व्यापार था। ऑल वेदर का बुल्डोजर चलने से सब बेरोजगार हो रहे हैं। सरकार या हाईवे अथॉरिटी वैधानिक रूप से कारोबारियों को प्रतिकर तो दे रही है किन्तु व्यावसायिक रेट पर नहीं जबकि उनकी पीढ़ियों का यह धन्धा व्यापार पर आधारित है। उन्हें व्यावसायिक आधार पर ही प्रतिकर दिया जाना चाहिए।

कहने को सड़क चौड़ीकरण से प्रभावित किसानों को कथित सर्किल रेट का चार गुना अधिक प्रतिकर दिया जा रहा है। लेकिन इसमें भारी अनियमितताओं व भ्रष्टाचार की पूरी-पूरी आशंका है। उधम सिंह नगर में एनएच-74 के भ्रष्टाचार का तो भण्डाफोड़ हुआ किन्तु इस एनएच-94 व अन्य के भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ कौन करेगा, प्रतीक्षा है। कायदे में एक हाईवे ऋषिकेश से गंगोत्तरी या बदरीनाथ का प्रतिकर एक रेट होना चाहिए था। किन्तु यहाँ रोड चाहे एक है किन्तु रेट अलग-अलग हैं।

उदाहरण के लिये एनएच-94 आगराखाल के आस-पास अधिग्रहित कृषि भूमि का रेट 1 लाख 20 हजार रुपये प्रति नाली है तो खाड़ी-जाजल का रेट सिर्फ 80 हजार और नागणी चम्बा का रेट 5 लाख 72 हजार रुपए प्रति नाली। सम्भवतः यह जमीन बिक्री के सर्किल रेट हों किन्तु यहाँ हाईवे को किसान जमीन बेच थोड़े ही रहे हैं, इस जमीन को तो अधिग्रहित किया जा रहा है। इसलिये सभी प्रभावित किसानों को समान दर पर प्रतिकर मिलना चाहिए था, किन्तु इसमें भारी असमानता है।

एक मूर्खता वाला उदाहरण देखिये-नागणी ऋषिकेश से 50वें किमी का प्रतिकर रेट 5 लाख 72 हजार रुपए नाली बाँटा गया। 50.2 किमी से 50.4 किमी गुणियाट गाँव से लगा जड़धार गाँव अधिग्रहित भूमि व भवन का रेट सिर्फ 30 हजार रुपए प्रति नाली किया गया और उसके बाद यानी 50.5 किमी से आगे चम्बा से पहले का रेट फिर 5 लाख 72 हजार रुपए प्रति नाली है। यह काश्तकारों के साथ अन्याय नहीं तो क्या है? इसीलिये इन प्रभावित किसानों ने जिलाधिकारी को लिखकर दिया है कि वे अपनी जान देंगे लेकिन प्रतिकर सुधरने तक जमीन नहीं देंगे। साथ ही ये उच्च न्यायालय से स्टे भी ले आये हैं।

भूमि या अन्य सम्पत्ति के अधिग्रहण की जानकारी सिर्फ दिल्ली, देहरादून के अंग्रेजी व हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित की गई। लिखित रूप से प्रभावितों को जानकारी नहीं दी गई, इसलिये अनपढ़ ग्रामीण ठगे-के-ठगे रह गए। अधिग्रहित जमीन का मालिक राजस्व विभाग की पुरानी खतौनी के सभी खाताधारकों को माना गया और सभी को बराबर चेक बनाकर बाँटे गए।

गाँव में रहने वाले, खेत को जोतने वाले वास्तविक खेत मालिक की अधिग्रहित जमीन का प्रतिकर उन दूर के भाई-बंधुओं को बाँटा गया जो दिल्ली मुम्बई में रह रहे हैं। पैसे के लिये लोगों का इतना पतन हुआ कि 50-60 साल पूर्व अदला-बदली वाली जमीन जिसका पता ही नहीं था खाते में नाम निकलने पर खातेदार बिना वजह हड़प कर गए और भूमिधर देखते रह गए। दुर्भाग्य की बात है कि 1960-62 के बाद अब तक भूमि का बन्दोबस्त नहीं हुआ। पहाड़ के लोग आपसी विश्वास व भाईचारे के आधार पर जमीन का उपयोग करते हैं, लेकिन ऑल वेदर रोड ने अब लोगों की आँखें खेल दी हैं।

करोड़ों वर्ष पूर्व धरती या संवेदनशील हिमालय के निर्माण के बाद यह पहला मौका है जब इतने खतरनाक अवैज्ञानिक तरीके से हिमालय की पहाड़ियों को उजाड़ा जा रहा है। 50 से 100 मीटर से भी अधिक ऊँचाई की 90 डिग्री ढाल तक की खड़ी कटिंग कर हजारों लाखों टन या घन मीटर पत्थर, रोड़े व बजरी बड़ी-बड़ी मशीनों से उधेड़कर कहीं सीधे लुढ़काया जा रहा है तो कहीं निश्चित स्थानों पर जमाकर इसे डम्पिंग जोन कहा जा रहा है।

यदि हम प्रस्तावित 750 किमी सड़क की बात करें तो इसमें अरबों-खरबों घन मीटर मलबा निकलेगा। यह राजमार्ग के पास ही तो लुढ़कना है और कटिंग के बाद अपने आप उससे भी अधिक मलबा भूस्खलन से निकलना निश्चित है। नए-नए बदले गए मार्ग, नए-नए टनलों से भी भारी-भरकम मलबा निकलना है। यह मलबा और भूस्खलन भविष्य में आपदा का आमंत्रण है, लेकिन राज्य व राष्ट्रीय आपदा प्रबन्ध तंत्र गहरी नींद सो रहा है। गंगा-यमुना व उसकी सहायक नदियाँ बारिश व बाढ़ के वक्त क्या रूप लेती हैं यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।

पूरे उत्तराखण्ड में नरेन्द्रनगर, दूनघाटी, उससे जुड़े पर्वतीय क्षेत्र व पौड़ी का यमकेश्वर क्षेत्र सबसे अधिक बारिश वाला है। इसे मिनी ‘चेरापूँजी’ भी कहा जाता है। विगत वर्ष नरेन्द्रनगर में हुए भूस्खलन से राष्ट्रीय राजमार्ग तीन-चार दिन बन्द रहा और कुछ वर्ष पूर्व डौंर गाँव के 4-5 लोग मलबे में दब गए थे। दर्जनों घर बर्बाद हुए, दर्जनों लोग घायल हुए थे। यहाँ सड़क कटान का भारी-भरकम मलबा जिस अवैज्ञानिक ढंग से बिना प्रबनधन के लुढ़काया जा रहा है या उनकी भाषा में डम्प किया जा रहा है, यह मलबे का टाइम बम है।

‘चेरापूँजी’ की बारिश जब आएगी तो यह फटकर जो तबाही मचाएगा उससे ढालवाला, चौदह बीघा व मुनीकिरेती खतरे की जद में हैं। यहाँ घनी आबादी में भारी तबाही हो सकती है। पूरे राजमार्गों में जहाँ-जहाँ ये मिट्टी के पत्थर के ढेर हैं तबाही का कारण बनेंगे क्योंकि ठेकेदार, कम्पनियाँ व हाइवे प्रबन्धन में लगे लोग सड़क के नाम पर पैसा बटोरने में लगे हैं। हिमालय की संवेदना को वे नहीं समझते।

यहाँ के लोगों की खेतीबाड़ी, घरबार, पेयजल, पैदल चलने के रास्ते, इससे कितने प्रभावित होंगे इसकी चिन्ता किसी को नहीं है। हाईवे से जुड़े ऋषिकेश, देवप्रयाग, श्रीनगर, चम्बा, उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग, अगस्तमुनी, गुप्तकाशी, जोशीमेठ, त्रिजुगीनारायण व गौचर आदि भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित हो रहे हैं। इस बारे में कौन सोचेगा। अब विस्थापन के बदले पैसा है किन्तु कितने प्रभावित लोग पलायन करेंगे, यह देखना बाकी है।

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