पानी बना जहर

21 Dec 2015
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बलिया : पूर्वी उत्तर प्रदेश का बलिया जिला पानी में जहर पी रहा है। जहर भी ऐसा की पीने वाले को कुछ नहीं पता। खामोशी से यह जहर इलाके को लोगों के जीवन आयु को कम करता जा रहा है। बलिया समेत करीब दस जिलों में आर्सेनिक की पानी में मिली ज्यादा मात्रा चौंकाने वाली हैं। इसकी वजह से इलाके के लोग कैंसर समेत कई दूसरी त्वचा की बीमारियों की गिरफ़्त में हैं। ऐसे में इन इलाकों का पानी जहर बन गया है।

उत्तर प्रदेश में करीब बारह साल पहले बलिया और इससे सटे जिलों में पानी में आर्सेनिक मिले होने की बात पता चली थी। समस्या को कम करने के लिये सरकार की तरफ से दस हजार करोड़ रुपये की रकम भी खर्च की गई। पर अब इसने आर्सेनिकोसिस (बीमारी) का एक नया रूप ले लिया है। त्वचा कैंसर के रूप में इलाके में इसकी बढ़ती हुई समस्या साफ दिखाई दे रही है। जानकार मानते हैं कि पिछले एक दशक में इस महामारी के तौर पर इस कार्सिनोजेनिक आर्सेनिक ने हजारों जिन्दगियाँ लील ली हैं।

आर्सेनिक के शोध से जुड़े लोग इसका खुलासा कर रहे हैं। कोलकाता इंस्टीट्यूट ऑफ पोस्ट ग्रेजुएट मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च में त्वचा विभाग के पूर्व प्रमुख रहे प्रो आरएन दत्ता ने बलिया और उससे सटे जिलों का दस साल से ज्यादा वक्त तक आर्सेनिक के प्रभावों का अध्ययन किया। प्रो दत्ता बताते हैं कि एक औसत आर्सेनिकोसिस मरीज दस सालों में मर जाता है। वह बताते हैं कि करीब 40 फीसद मरीज़ जिनसे मैं बीते दस साल पहले मिला था। उनमें से अधिकतर मर चुके हैं। मेरे दोबारा गाँव में जाने पर वह मौत का शिकार हो चुके थे।

प्रोफेसर दत्ता कहते हैं कि आर्सेनिक हमारे शरीर के सभी अंगों पर असर डालता है। यह त्वचा पर रिएक्शन करके उस पर काले रंग के धब्बे बना देता है। यह धब्बे धीरे-धीरे बिन्दु का रूप ले लेते थे। यह कैंसर की शुरुआती अवस्था थी। लेकिन राज्य की स्वास्थ्य प्रणाली इसकी पहचान करने में सक्षम नहीं है। इस वजह से अधिकांश लोग पहले ही मर जाते थे। और उनके मरने की वजह नहीं पता चल पाती थी। अब हमें इसका पता चल गया है। लेकिन फिर भी मुझे हैरानी है कितने मरीज डॉक्टर के पास पहुँच पाते होंगे।

आर्सेनिक के रोकथाम पर काम कर रही एक संस्था इनर वॉयस फ़ाउंडेशन के सौरभ सिंह कहते हैं कि हमारे सर्वे के मुताबिक 28 लाख लोग बलिया और करीब दर्जन भर के सटे जिलों में आर्सेनिक मिला पानी पी रहे हैं। आप यह आसानी से गणना कर सकते हैं कि एक दशक में यह मृत्यु दर 40 फीसद के करीब है।

देश में कई इलाकों में साल 1978 में आर्सेनिक की मौजूदगी का पता चला था। पर बलिया में इसकी मात्रा का पता साल 2003 में पता लगी। जब जाधवपुर विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों के एक दल को एहसास हुआ कि आर्सेनिकोसिस के बड़ी संख्या में मरीज़ इन जिलों से बंगाल इलाज के लिये आ रहे हैं। साल 2005 में राज्य और केन्द्र सरकार की एजेंसियों ने भी इस समस्या को बलिया, लखीमपुर खीरी, बहराइच, गोरखपुर, चन्दौली, गाजीपुर, बरेली, गोंडा और संत कबीर नगर के 1255 बस्तियों में बताया। तब से राज्य सरकार अपनी हर बैठक में इसी आँकड़े के साथ आर्सेनिक के साथ अपनी लड़ाई की बात कर रही है।

पर जानकार बता रहे हैं कि अब यह करीब तीन हजार बस्तियों में फैल चुका है। इसे लेकर राज्य सरकार साल 2005 में सर्वेक्षण भी कर चुकी है। एनजीओ के सौरभ सिंह बताते हैं कि बलिया जिले में साल 2005 में इससे प्रभावित बस्तियों की संख्या करीब 310 थी। पर अब बढ़कर 500 हो गई है। यह बलिया से सटा वाराणसी जिला साल 2005 में आर्सेनिक मुक्त था। लेकिन हमारे साल भर में किये गए सर्वेक्षणों और प्रयोगशालाओं में हुई जाँच से साफ पता चलता है कि इस जिले की करीब दस बस्तियाँ आर्सेनिक के प्रभाव के बुरी तरह से चपेट में आ चुकी है।

बलिया और उसके आसपास के कई जिलों में पानी में आर्सेनिक की भारी अन्तर से कैंसर और त्वचा के रोगों में बढ़ोत्तरी हुई है। करीब पच्चीस लाख लोग जहरीला पानी पीने के लिये अभिशप्त हैं।

आर्सेनिक के पानी में मिलने की वजह प्रोफेसर दत्ता बताते हैं कि बहुत सारे आर्सेनिक में मिले हुए खनिज पदार्थ गंगा के साथ बहकर चले आते हैं और यह नदी के तलहटी में बैठ जाते हैं। जब नदी अपना रास्ता बदलती है और इसके किनारे पर बसे लोग ज़मीनी पानी के जरिए आर्सेनिक मिला पानी पीने लगते हैं और वह आर्सेनिक से उपजी बीमारी आर्सेनिकोसिस का शिकार हो रहे हैं।

उत्तर प्रदेश जल निगम के सामुदायिक भागीदारी यूनिट के संयुक्त निदेशक आरएम त्रिपाठी कहते हैं कि इस समस्या से लड़ने के लिये कई कदम उठाए गए हैं। अपने लिखित बयान में उन्होंने कहा है कि इसके लिये अधिक गहराई वाले इंडियन मार्का के हैण्डपम्प लगाए जा रहे हैं। जो ज़मीनी स्तर से करीब 60 मीटर की ज्यादा गहराई पर गाड़े जाते हैं। जिससे कि लोगों को आर्सेनिक मुक्त पानी मिल सके। इसके अलावा एल्यूमिना आधारित आर्सेनिक मुक्त करने वाली इकाइयाँ लगाई जा रही हैं जिससे कि आर्सेनिक मुक्त जलस्रोतों को किया जा सके। इसके अलावा हमने पाइप से पानी की आपूर्ति की योजना चलाई है। जिससे आर्सेनिक मुक्त जोन से पानी निकाल कर आपूर्ति की जा सके।

त्रिपाठी यह भी बताते हैं कि एल्यूमिना पर आधारित आर्सेनिक हटाने वाली करीब 1011 इकाइयाँ बलिया, बहराइच, गोंडा, बरेली और गोरखपुर में लगाई गई हैं। पाइप से जल आपूर्ति की व्यवस्था आर्सेनिक से दूषित इलाकों में की जा रही हैं। इसमें आर्सेनिक मुक्त जोन से पानी की आपूर्ति किये जाने की योजना है। इस साल 31 मार्च 2015 तक करीब 534 आर्सेनिक प्रभावित बस्तियों में पाइप से जल आपूर्ति की व्यवस्था की गई है। करीब 112 और आर्सेनिक प्रभावित बस्तियों को और इस जल आपूर्ति योजना के तहत लाने के लिये काम हो रहा है। बाकी बचे इलाकों को साल 2017 तक पाइप जल आपूर्ति योजना में लाने का लक्ष्य है। राज्य सरकार इसमें गंगा और घाघरा के पानी के भी बेहतरीन इस्तेमाल की सम्भावनाओं को तलाश रही है।

लेकिन इलाके के लोग इन आँकड़ों को महज कागजी बताते हैं। वह इन दावों की पोल भी खोलते हैं बलिया के तिवारी टोला के निवासी भरत पांडेय बताते हैं कि करीब सात-आठ साल पहले जिले में पाइप जल आपूर्ति के लिये गहराई वाले बोरवेल और आर्सेनिक फिल्टर यूनिट लगाई गई थी। लेकिन आज ये सभी आर्सेनिक मिला पानी ही सप्लाई में पी रहे हैं। इस तरह से पानी की गुणवत्ता के नियंत्रण के लिये कोई व्यवस्था नहीं है। पानी की जाँच के लिये बनाई गई प्रयोगशालाएँ भी सही ढंग से काम नहीं कर रही हैं और वह झूठे आँकड़े दे रही हैं। सरकार पानी के जाँच के लिये किट देने की बात दोहराती रहती है। पर हमें अभी तक कुछ नहीं मिला है।

पानी से जुड़े विशेषज्ञों का मानना है कि भूजल स्तर को बढ़ाकर, कुओं की सफाई और बेहतरीन रखरखाव से गाँवों में फैल रहे जल में आर्सेनिक की मात्रा को खत्म किया जा सकता है। इसके लिये खुले कुओं में नमक और पोटैशियम परमैंगनेट आदि का इस्तेमाल कर आसानी से साफ किया जा सकता है। बलिया, गाजीपुर और वाराणसी को मिलाकर करीब 20 हजार कुएँ हैं। एक कुआँ बनवाने की लागत करीब पाँच से आठ लाख रुपये तक आती है। लेकिन कोई भी इन पानी के सस्ते और सहज जलस्रोतों को फिर से सहेजना नहीं चाहता।

प्रोफेसर दत्ता बताते हैं कि सरकारी एजेंसियों का जोर इन गाँवों में केवल महंगे बड़े प्रोजेक्ट बनाने पर है। उनकी रुचि यहाँ की मुश्किलों को खत्म करने में नहीं दिखाई देती। वे सिर्फ बड़े बजट में दिलचस्पी दिखा रहे हैं।

बलिया में आर्सेनिक से मौत


बलिया के तिवारी टोला के लोगों का औसत जीवन आयु अब 55 साल हो गई है। आर्सेनिकोसिस नाम की बीमारी से दर्जनों लोग हर साल मर रहे हैं। करीब 25 से ज्यादा देश और विदेश की टीमों ने गाँव में जाकर इसका अध्ययन किया है। जिससे गाँव के पानी में मिले आर्सेनिक की मात्रा और प्रभाव को जाना और समझा जा सके। लेकिन अभी भी किसी खास और प्रभावी हल का इन्तजार है। हरिहरपुर के हरे राम सहित करीब 20 लोगों से ज्यादा की जान साल 2010 से अब तक जा चुकी है। इकौना के राम बहादुर सहित दो लोग एक ही परिवार से और बलिहार के बसंत मिश्रा और रामगढ़ के कन्हैया की जान भी आर्सेनिकोसिस से पिछले चार साल में चली गई। इसके अलावा अधिक मौत होने वाले गाँवों में उदवंत छपरा, राजपुर, गंगापुर, हल्दी, रिंकी छपरा, चौबे छपरा, श्रीपालपुर, सोनबरसा, ओझवलिया और बाहुरा शामिल हैं।

हालांकि सरकार दावा करती है कि कई कदम इस समस्या को कम करने के लिये उठाए गए हैं। इसका सबसे बड़ा नमूना यह है कि पानी की गुणवत्ता जाँच के लिये जिले में करीब 70 लाख रुपए से बनी प्रयोगशाला पिछले दो सालों से बेकार पड़ी है। यहाँ तक कि इसकी रिपोर्ट भी झूठी हैं। पीने के पानी में आर्सेनिक की तय मात्रा 10 से 50 पीपीबी है जबकि जिले के कई गाँवों में यह मात्रा पानी के स्रोतों में 1000 पीपीबी से ज्यादा पाई गई है। इनर वॉयस फ़ाउंडेशन के सौरभ सिंह कहते हैं कि उत्तर प्रदेश जलनिगम का कहना है कि आर्सेनिक प्रभावित जिले के इन गाँवों में से करीब 200 में पाइप से जल आपूर्ति की व्यवस्था की गई है। लेकिन करीब दस साल से गाँवों में काम करने के दौरान हमें यह पाइप सही ढंग से जल आपूर्ति करती कभी नहीं दिखाई पड़ी और करीब 90 फीसदी यह आपूर्ति आर्सेनिक मिले पानी की हो रही है।

सिंह कहते हैं कि देश में बलिया आर्सेनिक युक्त पानी से सबसे ज्यादा प्रभावित है। जिले के 17 ब्लाकों में से करीब दस ब्लाक के 500 गाँव इसकी बुरी तरह से चपेट में हैं। ये जिले गंगा और घाघरा नदियों के बीच में हैं। इनमें भारी जनसंख्या है। जो त्वचा रोग के बीमारियों की गिरफ़्त में हैं इसमें कैंसर की वजह पीने का पानी है। जिले के ब्लाकों में बैरियाँ, मुरली छपरा, बेलाहरि, दुभाद, रीओटी, बेरूआरबरी और सोहान आदि बुरी तरह से प्रभावित हैं।

गिरफ़्त में वाराणसी


साल 2014 में हुए अध्ययन से खुलासा हुआ कि आर्सेनिक की मौजूदगी करीब 50 से 200 फीट के नीचे दक्षिणी और मध्य वाराणसी के इलाकों में भी है। इसके बाद साल 2015 में हुए शोध में पता चला कि आर्सेनिक की मौजूदगी करीब 300 फीट नीचे भूर्गभ जल में भी है। वाराणसी में आर्सेनिक की मात्रा तय सीमा से ज्यादा डुमरी, मधिया, भगवानपुर, चित्तुपुर और शीर गोवर्धन इलाकों में है। इसकी वजह गंगा के किनारे इन गाँव के इलाकों में जीवाणु संक्रमण, सीवेज के निस्तारण और साफ सफाई की भी दिक्कतें हैं।

कुछ तथ्य :


1. आर्सेनिकोसिस की चार अवस्थाएँ हैं। इसमें मेलोनेसिस (पिंगमेंट्स का ज्यादा हो जाना), किरेटोशिस (त्वचा में किरेटिन की मात्रा बढ़ जाना), बोंस (त्वचा कैंसर से पहले की अवस्था) फिर कैंसर।
2. राष्ट्रीय पेयजल समीक्षा सुरक्षा पायलट प्रोजेक्ट की बैठक 16-17 अप्रैल को खजुराहो में हुई यह किसी आर्सेनिकोसिस प्रभावित इलाके में हो सकती थी। पर नहीं किया गया।
3. साल 2013 मई में एक शिकायत के जवाब में बलिया में हजारों लोगों की मौत पर चिन्ता जताई गई। इसके बाद एनएचआरसी ने साल 2014 में एम्स के डॉक्टरों की एक टीम बलिया भेजी। जिसने बाद में राज्य सरकार को समस्या के बारे में चेतावनी दी।
4. राज्य सरकार ने साल 2011 में इसके लिये करीब 41 करोड़ का बजट पाइप जल आपूर्ति के लिये दिया। इसमें राज्य स्तर की प्रयोगशालाओं के लिये करीब 2.34 करोड़ रुपए पानी की जाँच के लिये और 25 लाख रुपए डाटा कलेक्शन के लिये दिये गए थे। पर आज यह प्रयोगशालाएँ काम नहीं कर रही हैं। डाटा कलेक्शन का काम साल 2005 से नहीं हो रहा है।

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