पानी का आपातकाल


बुन्देलखण्ड पानी की कमी से जूझने के लिये अभिशप्त है। इस साल यहाँ हालात बेहद गम्भीर हैं। नदी, तालाब, पोखर सब सूखे हुए हैं, फसलें बर्बाद हैं और पानी की आस में हाथ में, सिर पर साइकिल पर मटके, बाल्टियाँ थामे लोग लम्बी दूरियाँ तय कर रहे हैं। महिलाएँ तो पानी लेने जा ही रही हैं, बच्चे भी स्कूल छोड़कर पानी लाने के काम में लगे हैं। यूँ तो पूरा बुन्देलखण्ड ही सूखे की वजह से पानी की समस्या से जूझ रहा है। लेकिन झाँसी जिले का बोडा गाँव इससे भी ज्यादा संकट झेल रहा है। मऊरानीपुर तहसील के बंगरा ब्लॉक का ये गाँव है। केवल भारत ही नहीं एशिया के बड़े भू-भाग भयंकर सूखे की चपेट में हैं। यह सूखा पहले ही सैकड़ों लोगों की जान ले चुका है। धान सहित कई दूसरी फसलें भी बर्बाद हो चुकी हैं। इस संकट की जड़ में अन्धाधुन्ध विकास, खतरनाक शहरीकरण, अधिक पानी वाले फसलों की खेती और जीवनशैली में बदलाव आया है।

देश पानी के आपातकाल दौर से गुजर रहा है। केन्द्र ने सर्वोच्च न्यायालय के सामने स्वीकार किया है कि 10 राज्यों के 256 जिले सूखाग्रस्त हैं और लगभग 33 करोड़ लोग सूखे की मार झेल रहे हैं। यानी देश की कुल आबादी का एक-तिहाई हिस्सा सूखे का संकट झेल रहा है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात, ओडिशा, झारखण्ड, बिहार, हरियाणा और छत्तीसगढ़ आदि एक दर्जन राज्यों के बड़े हिस्से में सूखा पड़ा हुआ है।

जल संकट कितना गम्भीर है, इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2000 में प्रति व्यक्ति 2000 क्यूबिक मीटर पानी सालाना उपलब्ध होता था, जो अब घटकर 1500 क्यूबिक मीटर पर आ गया है। अब तक शहरों और महानगरों का जिस अनियोजित और अव्यवस्थित ढंग से विकास हुआ है उसमें पानी की जरूरत और उसकी उपलब्धता के अनुपात पर ध्यान नहीं दिया गया है।

खेती में आज भी पानी का पारम्परिक तरीका इस्तेमाल किया जा रहा है। इसमें नई तकनीकी को नहीं अपनाया गया है। नतीजतन बहुत बड़ी मात्रा में पानी बर्बाद हो रहा है। जोहड़, तालाब, कुएँ, बावड़ी आदि पाट दिये गए हैं। बहुत बड़े पैमाने पर भवन निर्माण होने के कारण जमीन के भीतर पानी की स्वतः होने वाली आपूर्ति बन्द हो गई है। जिसके कारण भूजल का स्तर लगातार गिरता जा रहा है। इस तरह साल-दर-साल पानी का स्तर नीचे जा रहा है। जिसका नतीजा आज में भुगतना पड़ रहा है।

बुन्देलखण्ड की और बुरी हालात


ऐसा लगता है कि बुन्देलखण्ड पानी की कमी से जूझने के लिये अभिशप्त है। इस साल यहाँ हालात बेहद गम्भीर हैं। नदी, तालाब, पोखर सब सूखे हुए हैं, फसलें बर्बाद हैं और पानी की आस में हाथ में, सिर पर साइकिल पर मटके, बाल्टियाँ थामे लोग लम्बी दूरियाँ तय कर रहे हैं। महिलाएँ तो पानी लेने जा ही रही हैं, बच्चे भी स्कूल छोड़कर पानी लाने के काम में लगे हैं।

यूँ तो पूरा बुन्देलखण्ड ही सूखे की वजह से पानी की समस्या से जूझ रहा है। लेकिन झाँसी जिले का बोडा गाँव इससे भी ज्यादा संकट झेल रहा है। मऊरानीपुर तहसील के बंगरा ब्लॉक का ये गाँव है। इस ब्लॉक के तमाम गाँवों में मुख्य सड़क से गाँव में घुसते ही पानी ढोने के तमाम देसी साधन इस्तेमाल करते हुए लोग आपको दिख जाएँगे।

कोई साइकिल पर आठ दस डिब्बे टाँगे हुए है तो कुछ महिलाएँ सिर पर तीन चार घड़े रखे हुए हैं या फिर कुछ लोग बैलगाड़ी पर भी पानी से भरे बड़े-बड़े ड्रम लादे हुए दिख जाएँगे। आस-पास के कुछ कुँओं और हैण्डपम्पों पर पानी मिल जाता है। इससे सबका काम चलता है। लेकिन इस पानी को लाने के लिये दो-दो किमी. दूर तक जाना पड़ता है और उसके बाद पानी के लिये लाइन लगानी पड़ती है।

साइकिल पर पानी लाने का काम ज्यादातर युवा और बच्चे करते हैं। जब दिन का एक बड़ा हिस्सा पानी लाने में ही बीत जाता है तो ये पढ़ाई कब करते होंगे? इसका अन्दाजा आप खुद लगा सकते हैं। उनके माता-पिता कहते हैं कि पहले पानी जरूरी है या पढ़ाई। पानी भरने से फुर्सत मिले तब तो ये स्कूल जाएँ।

महाराष्ट्र में सूखे का कहर


महाराष्ट्र में मराठवाड़ा के आठ जिलों में सूखा इतना भयानक है कि ये इलाका महाराष्ट्र की पहली मरुभूमि बनने की राह पर है। इसका कारण मराठवाड़ा में गन्ने की खेती है। इसके लिये पानी की भारी मात्रा में जरूरत होती है। एक आँकड़े के मुताबिक एक किलो चीनी बनाने पर करीब ढाई हजार लीटर पानी खर्च होता है।

महाराष्ट्र की पाँच फीसदी कृषि जमीन पर गन्ने की खेती होती है और इसमें राज्य का 70 फीसदी पानी लग जाता है। जबकि महाराष्ट्र के केवल छह फीसदी किसान गन्ने की खेती करते हैं। यहाँ सूखे की समस्या का हल आसान नहीं है क्योंकि राज्य में हर साल पैदा होने वाला लाखों टन गन्ना जमीन का काफी पानी सोख लेता है। कई चीनी मिलें इस गन्ने से चल रही हैं।

पानी की कमी का नतीजा ये है कि लोग मराठवाड़ा छोड़कर जीवन बचाने दूसरे इलाकों में भाग रहे हैं। सरकार चीनी मिल खड़ी करने के लिये सब्सिडी देती है। इसके लिये बिजली और पानी पर सरकार सब्सिडी देती है। जो लोग रासायनिक उर्वरक इस्तेमाल करते हैं, उस पर भी सरकार सब्सिडी देती है। लेकिन किसानों की जिन्दगी पर चीनी मिल मालिकों की पकड़ है।

अगर किसान चीनी मिलों से न जुड़े तो उनके खाने के लाले पड़ जाएँगे। अगर किसान विरोध करते हैं तो चीनी मिल मालिक उन्हें पानी, बिजली की सप्लाई को लेकर परेशान करते हैं।

धरती भी तप रही


वर्ष 1850 के करीब औद्योगिक क्रान्ति से पहले की तुलना में धरती एक डिग्री गर्म हुई है। वैज्ञानिकों को डर है कि उनके द्वारा तय 2 डिग्री की सीमा को वर्ष 2100 तक बचा पाना सम्भव नहीं है। इसी तरह धरती का तापमान यदि तेजी से बढ़ता है तो तीस लाख लोग तटीय क्षेत्रों में आने वाली बाढ़ से खतरे में पड़ जाएँगे। इसके अलावा 2 अरब लोग सूखे की वजह से पानी की कमी का शिकार होंगे।

20 से 30 प्रतिशत प्रजातियाँ खत्म हो जाएँगी। क्योंकि धरती के गर्म होने से उनकी प्रकृति के अनुरूप ढलने की क्षमता खत्म हो जाएगी। आशंका है कि आने वाले समय में सूखे के चलते बेहतर, जिन्दगी, भोजन और पानी की तलाश में लोग एक इलाके से दूसरे इलाकों की तरफ भागेंगे। इस सबका कुल मिलाकर असर यह है कि पानी की उपलब्धता लगातार कम होती जा रही है। यह समस्या केवल कुछ हद तक ही प्राकृतिक है। इसका अधिक दोष मनुष्य की लापरवाही है।

पानी को सोखते उद्योग


जहाँ जनता को पीने का पानी नहीं मिल रहा वहीं बोतलबन्द पेयजल का कारोबार चारों तरफ पैर पसार रहा है। अभी तो रेलवे स्टेशन इन बोतलों से पटा हुआ है। भविष्य में जब पानी ही नहीं रहेगा तो बोतलबन्द पेयजल का क्या होगा? अरबों-खरबों के इस कारोबार की भी सरकारों को विशेष फिक्र है। जाहिर है कि इस कारोबार के लिये जल जैसे प्राकृतिक संसाधन का निजी हितों में दोहन किया जाता है। पानी संकट अब राष्ट्रीय आपदा के रूप में उभर रहा है। इसलिये सूखे से निपटने के लिये पहले से कार्य-योजना तैयार करनी होगी।जहाँ जनता को पीने का पानी नहीं मिल रहा वहीं बोतलबन्द पेयजल का कारोबार चारों तरफ पैर पसार रहा है। अभी तो रेलवे स्टेशन इन बोतलों से पटा हुआ है। भविष्य में जब पानी ही नहीं रहेगा तो बोतलबन्द पेयजल का क्या होगा? अरबों-खरबों के इस कारोबार की भी सरकारों को विशेष फिक्र है। जाहिर है कि इस कारोबार के लिये जल जैसे प्राकृतिक संसाधन का निजी हितों में दोहन किया जाता है।

पानी संकट अब राष्ट्रीय आपदा के रूप में उभर रहा है। इसलिये सूखे से निपटने के लिये पहले से कार्य-योजना तैयार करनी होगी। आने वाले दिनों में पानी का यह संकट कम होने वाला नहीं है। इसकी भयावहता में लगातार वृद्धि होगी। सरकारों द्वारा लोगों को इस संकट के प्रति सचेत करने और पानी के इस्तेमाल में कटौती करने के उपाय अपनाने के बारे में जागरुकता पैदा करनी होगी। अभी तक इसके लिये कोई खास पहल नहीं की गई है। भूजल का स्तर कैसे ऊपर उठे, इसके लिये भी विज्ञान और तकनीकी का सहारा लेकर जरूरी और दूरगामी कदम उठाने होंगे।

कुप्रबन्धन के कारण त्राहि-त्राहि


ज्यादातर शहरों में पास की नदियों से जलापूर्ति होती है। इन नदियों का पानी बेहद प्रदूषित हो चुका है यहाँ तक कि इनमें पानी भी नहीं होता। ऐसा नहीं है कि देश में पानी नहीं है। भारत में पानी की सम्पदा बिखरी है, लेकिन विडम्बना है कि कुप्रबन्धन की वजह से कई राज्य और कई महानगरों में पानी के लिये त्राहि-त्राहि मची हुई है।

पानी की समस्या पूरे देश में किसी और समस्या से ज्यादा विकराल होती जा रहा है। महाराष्ट्र में पानी के कारण झड़पें हुईं। जिसके कारण वहाँ धारा 144 लगानी पड़ी है। उत्तर प्रदेश के बदायूँ में कुछ दिन पहले सरकारी नल से पानी भरने को लेकर हुए विवाद में एक पैंतीस साल के युवक की हत्या कर दी गई। मध्य प्रदेश के रायसेन में पानी को लेकर हुए खूनी संघर्ष में तीन महिलाओं समेत आठ लोग गम्भीर रूप से जख्मी हो गए थे।

देश के तमाम हिस्सों में पानी को लेकर हाहाकार मचा हुआ है। लातूर एक बार फिर खबरों में है। इस बार भूकम्प की वजह से नहीं, पानी के गम्भीर संकट की वजह से। यहाँ भी फिलहाल 31 मई तक धारा 144 लगा दी गई थी। ऐसा इसलिये किया गया क्योंकि यह आशंका थी कि पानी को लेकर यहाँ हिंसक संघर्ष हो सकता है।

सूखे का जिम्मेदार कौन?


सूखे का संकट दो वर्षों से लगातार कम बारिश के कारण आया है। देश का लगभग एक चौथाई क्षेत्र इस समय सूखे की चपेट में है। इसकी आशंका पहले भी थी। मौसम वैज्ञानिकों ने भी यह भविष्यवाणी की थी कि इस साल भीषण गर्मी पड़ेगी, जिससे जल संकट और अधिक गहराएगा। भारतीय उपमहाद्वीप में मौसम के दुष्चक्र के वैज्ञानिक कारण हैं।

विश्व के एक हिस्से में जब अल नीनो का प्रकोप होता है तो उसका प्रभाव भारतीय उपमहाद्वीप में मौसम चक्र पर पड़ता है। प्रत्येक सात-आठ वर्ष में पड़ने वाले इस दुष्प्रभाव का असर लगातार दो साल रहता है। अल नीनो के कारण बारिश कम होती है। इसके चलते देश का अच्छा-खासा भाग सूखे की चपेट में आ जाता है, लेकिन इसके लिये हम पहले से तैयारी नहीं करते।

पिछले कई वर्षों के मौसम सम्बन्धी आँकड़े भी अत्यधिक गर्मी-सर्दी या फिर कम-ज्यादा बारिश की तस्वीर पेश कर रहे हैं। आमतौर पर हम सूखे और बाढ़ जैसी आपदाओं को नियति की देन मान लेते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि पानी के बेहतर प्रबन्धन और समय रहते किये गए उपायों से इन आपदाओं के असर को कम किया जा सकता है।

जल भण्डारण का अभाव


सूखे के बाद अक्सर बारिश होती है। इस समय प्रचुर मात्रा में पानी उपलब्ध होता है। लेकिन हम भविष्य के लिये जल का संचयन नहीं करते। समुचित प्रबन्धन के अभाव में बरसात का पानी बर्बाद हो जाता है। आगे चलकर यही मुसीबत बन जाता है। ऐसा इसलिये भी होता है, क्योंकि जल के परम्परागत स्रोत या तो पूरी तरह खत्म हो गए हैं या फिर उचित रख-रखाव के अभाव में नष्ट हो रहे हैं।

किसी समय छोटे-बड़े तालाब ग्रामीण क्षेत्रों में जल भण्डारण का प्रमुख माध्यम हुआ करते थे, लेकिन अब उनका अस्तित्व ही मिटता जा रहा है। यही हाल नहरों का भी है। चूँकि तालाबों-नहरों के रख-रखाव की परवाह नहीं की गई इसलिये किसान सिंचाई के लिये बारिश या फिर भूजल पर ही आश्रित होकर रह गए। अब तो कई इलाकों में भूजल का स्तर भी नीचे होता जा रहा है।

किसानों के आर्थिक संकट का सबसे बड़ा कारण सिंचाई के साधनों का अभाव है। रही-सही कसर कृषि के आधारभूत ढाँचे की जर्जर स्थिति ने पूरी कर दी है। देश के ज्यादातर हिस्सों में किसान ऐसी स्थिति में हैं कि अगर उन्हें एक वर्ष भी सिंचाई के लिये पर्याप्त पानी न मिले तो उनकी कमर टूट जाती है। ऐसा इसलिये और भी होता है, क्योंकि बहुत कम किसान दुधारू पशु रखते हैं। उनके आय के अन्य स्रोत नहीं होते हैं।

अभी चूँकि खेती-किसानी के तौर-तरीके भी परम्परागत हैं। इसलिये भी कम बारिश व सूखा किसानों को बहुत प्रभावित करते हैं। इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर बहुत भारी प्रभाव पड़ता है। सूखे के समय खाद्यान्न और फल-सब्जियों के दाम आसमान छूने लगते हैं। ऐसे हालत में जमाखोरी होती है, जो महंगाई को बढ़ाती है।

इस सिलसिले में कुछ आँकड़े इस प्रकार हैं। जल संसाधन मंत्रालय के मुताबिक देश के 91 प्रमुख जलाशयों में मार्च के अन्त तक उनकी कुल क्षमता के 25 फीसदी के बराबर ही पानी बचा था। महाराष्ट्र में यह महज 21 प्रतिशत था। एक एनजीओ की रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्ष महाराष्ट्र में 3,228 किसानों ने आत्महत्या की। कृषि मंत्रालय के अनुसार वर्ष 2015 में देश में 2,806 किसानों ने कृषि सम्बन्धी कारणों से खुदकुशी की। इनमें 1,841 महाराष्ट्र के थे। इसे देखते हुए हालात भयावह हैं।

केवल भारत ही नहीं एशिया के बड़े भू-भाग भयंकर सूखे के चपेट में हैं। यह सूखा पहले ही सैकड़ों लोगों की जान ले चुका है। धान सहित कई दूसरी फसलें भी बर्बाद हो चुकी हैं। इस संकट की जड़ में अन्धाधुन्ध विकास, खतरनाक शहरीकरण, अधिक पानी वाले फसलों की खेती और जीवनशैली में बदलाव आया है।

इस वजह से विश्व के सबसे बड़े और घनी आबादी वाले इस महाद्वीप में प्राकृतिक संसाधनों, पर्यावरण और जलवायु पर खासा दबाव पड़ रहा है। बार-बार के सूखे ने एशिया में पहले से मौजूद पानी की समस्या को और गहरा कर दिया है। यह आर्थिक विकास, सामाजिक शान्ति और उन देशों को प्रभावित कर रहा है जो साझा जलस्रोतों पर निर्भर हैं।

एशिया की अधिकांश नदियाँ विभिन्न देशों की सीमाओं को पार करती हैं। कई एशियाई देश पानी के लिये दूसरे देशों से आने वाली नदियों पर निर्भर हैं। हालांकि चीन इसका अपवाद है। उसका तिब्बत के पठार पर नियंत्रण होने के कारण वह एशिया में जल प्रवाह को नियंत्रित करता है। यह निर्भरता बांग्लादेश और वियतनाम जैसे देशों में ज्यादा है। ये देश अन्तरराष्ट्रीय नदियों से काफी दूर स्थित हैं। इसलिये अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर जल विवाद होना सामान्य सी बात हो गई है।भूकम्प और चक्रवात से लेकर बाढ़ और औद्योगिक हादसों सहित दूसरे प्राकृतिक और मानवजनित आपदाओं के विपरीत सूखा दबे पाँव आता है। संसाधनों के संरक्षण, पारिस्थितिकीय पुनर्निमाण और टिकाऊ विकास के अभाव में एशिया में सूखे के संकट के रह-रहकर सिर उठाने की आशंका है। एशिया में वैसे ही संसाधनों का अभाव है। तेज आर्थिक विकास ने इसके प्राकृतिक संसाधनों पर और दबाव बढ़ाया है।

प्राकृतिक संसाधनों का अति दोहन पर्यावरण संकट को भी जन्म दे रहा है। तिब्बत का पठार ताजा पानी का सबसे बड़ा भण्डार गृह है। लेकिन यह पठार तेजी से गर्म हो रहा है। इसके चलते एशिया की जलवायु, मानसून और ताजा पानी के भण्डार के गम्भीर रूप से प्रभावित होने का अन्देशा है। शायद लोगों को पता नहीं कि अफ्रीका के बजाय एशिया में पानी की उपलब्धता कम है।

एशिया में दूसरे महाद्वीपों की तुलना में प्रति व्यक्ति ताजा जल की उपलब्धता पहले से ही कम है और वह प्रदूषित भी है। भले ही जल संकट को अभी कम महत्त्व दिया जा रहा हो, लेकिन आने वाले दिनों में यह एशिया में झगड़े का कारण बनेगा।

सूखे के लिये चीन भी जिम्मेदार


एशिया की अधिकांश नदियाँ विभिन्न देशों की सीमाओं को पार करती हैं। कई एशियाई देश पानी के लिये दूसरे देशों से आने वाली नदियों पर निर्भर हैं। हालांकि चीन इसका अपवाद है। उसका तिब्बत के पठार पर नियंत्रण होने के कारण वह एशिया में जल प्रवाह को नियंत्रित करता है।

यह निर्भरता बांग्लादेश और वियतनाम जैसे देशों में ज्यादा है। ये देश अन्तरराष्ट्रीय नदियों से काफी दूर स्थित हैं। इसलिये अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर जल विवाद होना सामान्य सी बात हो गई है। एशिया में दुनिया के सबसे ज्यादा बाँध हैं। ये बाँध सबसे अधिक चीन में हैं। दुनिया के आधे से अधिक बाँध यहीं हैं। इनके चलते चीन सूखे के समय पानी का पर्याप्त भण्डारण करने में समर्थ है।

बाँधों की अधिकता के कारण चीन मे नदियों का स्वाभाविक प्रवाह बाधित हुआ है। वहाँ की मरणासन्न हो चुकी पीली नदी इसका प्रमाण है। चीन द्वारा मेकांग नदी पर छह बाँध निर्मित करने से यह समस्या पैदा हुई है। दक्षिणपूर्व एशिया में सूखे का वर्तमान संकट बढ़ाने में भी इसकी भूमिका है।

एशिया में सूखा और पर्यावरण तथा जलवायु में परिवर्तन के लिये निम्न जलस्तर और वनों की कटाई जैसे दूसरे कारक भी जिम्मेदार हैं। हिमालय और तिब्बत क्षेत्र में वनों की कटाई सबसे ज्यादा है, जहाँ से एशिया की बड़ी-बड़ी नदियाँ निकलती हैं। वनों की कटाई से पर्यावरण अस्थिर होता है। इससे न केवल सूखे और बाढ़ की आवृत्ति बढ़ती है, बल्कि उनसे उपजे संकट भी बढ़ जाते हैं।

एशिया में भूजल के अन्धाधुन्ध दोहन पर नियंत्रण नहीं है। दरअसल भूजल स्तर का क्षरण हम अपनी आँखों से नहीं देख सकते। इस वजह से भी वे उसका दोहन करते हैं। सतह के जल और भूजल एक दूसरे से जुड़े होते हैं। यह एक ही संसाधन है। इसलिये इसका अति दोहन प्रतिबन्धित किया जाना चाहिए। भूजल की आपूर्ति पर विभिन्न समुदायों की अतिनिर्भरता को कम करना भी जरूरी है। मिट्टी की गुणवत्ता बढ़ाने, जल क्षरण और तटीय कटाव को रोकने, ताजा जल के भण्डार को बढ़ाने के उपाय सूखे को नियंत्रित करने में मदद करेंगे।

 

पानी बिन दम तोड़ते लोग


मराठवाड़ा में एक 11 साल की बच्ची 4 सौ मीटर की दूरी पर बने हैण्डपम्प से पानी लाते-लाते बेहोश हो गई। बाद में शरीर में पानी की कमी के कारण उसने दम तोड़ दिया। पानी के संकट का अन्दाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि जालौन जिले के कदौरा कस्बे में पिछले दिनों आग लग गई। लेकिन आग को बुझाने के लिये लोगों के पास पानी नहीं था। लोगों ने घरों में रखे पानी से आग बुझाने की कोशिश की लेकिन महज कुछ बाल्टी पानी आग बुझाने के लिये पर्याप्त नहीं था।


लोग बेबस होकर आग से जलते घर को देखते रहे। ऐसे ही, हमीरपुर जिले के झलोखर गाँव में पिछले दिनों एक मकान में आग लग गई। गाँव में फायर ब्रिगेड नहीं आ सकती थी। गाँव के लोगों के पास इतना पानी नहीं था कि उससे बुझा पाते। नतीजतन, घर में जो कुछ भी था जलकर खाक हो गया। यही नहीं, आग में झुलसने से एक व्यक्ति की मौत हो गई। आग बुझाना तो दूर लोगों को पीने का दो घूँट पानी तक नसीब नहीं है।


अप्रैल की शुरुआत से ही बुन्देलखण्ड इलाके में आगजनी की ऐसी कई घटनाएँ सुनने में आ रही हैं। खेतों में तो आये दिन आग लग जाती है। खड़ी फसल पल भर में जलकर खाक हो जाती है। गरीब किसान देखता रह जाता है। ऐसे संकट से निपटने के लिये राहत पैकेज तो जारी कर दिये जाते हैं। लेकिन पीड़ित तक पहुँचते वह भी सूख जाता है।

 

 

जल दूत बुझाती प्यास


हिमालय की स्नोलाइन लगातार पीछे खिसकती जा रही है। ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। समुद्र का जल स्तर बढ़ता जा रहा है। ग्लोबल वार्मिंग का बढ़ता प्रभाव कभी सूखे तो कभी बाढ़ का संकट पैदा कर रहा है। हाल ही में लातूर में पानी के विकट संकट को देखते हुए जल दूत नाम की ट्रेन चलाई गई जो पाँच लाख लीटर पानी लेकर रोज वहाँ जाएगी।


यह ट्रेन रोजाना कई किलोमीटर का सफर तय करेगी। इस पानी को पहुँचाने में लगभग तीन करोड़ का खर्चा होगा। इसी तरह की एक ट्रेन चौदह साल पहले अजमेर से भीलवाड़ा के लिये भी चलाई गई थी जो रोजाना पच्चीस लाख लीटर पानी लेकर जाती थी। वैसे तो पानी ले जाने वाली ट्रेन का इतिहास तीस साल पुराना है।


वर्ष 1980 से 1986 तक जब सौराष्ट्र में भीषण अकाल पड़ा था तो उस दौरान वहाँ का सबसे बड़े शहरों में से एक राजकोट पूरी तरह से प्यासा हो गया था। उसकी प्यास को बुझाने के लिये वर्ष 1986 में पहली पानी की ट्रेन चलाई गई थी। इन तीस सालों में कई तकनीकें बदल गईं। हम आधुनिकता की चरम पर पहुँच गए। लेकिन पानी का दोहन बदस्तूर जारी रहा। जल संचयन को हम भूल गए। हमने हर स्रोत से पानी को निचोड़ लिया।


हालत ये हो गई कि मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल जिसे तालों का शहर कहा जाता है, वहाँ ले देकर दो तालाब बचे हैं। बाकी तालाबों पर भूमाफियाओं का कब्जा है। भोपाल के तीन सीढ़ीदार तालाब जो उस दौर की इंजीनियरिंग का बेहतरीन नमूना थे। आज इन तालाबों का बस जिक्र भर बचा है क्योंकि अब इन तालाबों में पानी नहीं मकान नजर आते हैं।


भारत में तालाब बनाने की परम्परा बहुत पुरानी है। वर्ष 1800 में मैसूर राज के दीवान ने वहाँ 39,000 तालाब बनाए थे। देश की राजधानी दिल्ली में ही लगभग 350 तालाब हुआ करते थे। लेकिन आज ढूँढने पर शायद ही पानी भरा तालाब मिल जाये। इन्दौर के पास देवास में बीते तीस सालों में छोटे-बड़े सभी तालाब भू-माफियाओं के कब्जे में हैं और बताया जाता है कि 1990 से यहाँ रोजाना ट्रेन पानी लेकर आती है।

 

सम्पर्क सूत्र :


श्री विजन कुमार पाण्डेय,
विभागाध्यक्ष बड़ी बाग लंका मैदान,
मजार के पास गाजीपुर 233001 (उ. प्र.)
मो : 9450438017;
ई-मेल : vijankumarpandey@gmail.com

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